Home हमारे लेखकदयानंद पांडेय वे जो हारे हुए का कुछ अंश : सरोकारनामा

वे जो हारे हुए का कुछ अंश : सरोकारनामा

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हम तो समझे थे कि राजनीति में ही पलीता लगा है, पर पत्रकारिता वाले तो राजनीति से भी कहीं आगे निकल रहे हैं : हालांकि काफ़ी हाउस की न वो गंध रही, न वो चरित्र, न वो रंगत। फिर भी कुछ ठलुवे, कुछ थके नेता, बुझे हुए लेखक और कुछ सनकी पत्रकारों के अलावा कुछ एक दूसरे का इंतज़ार करते लोग अब भी ऊंघते-बतियाते, दाढ़ी नोचते दिख जाते हैं। कुछेक जोड़े भी। काफ़ी का स्वाद पहले भी तीखा था, अब भी है।
हां, सिगरेट के धुएं ज़रा बढ़ गए हैं। फिर भी काफ़ी की गंध और सिगरेट के धुएं की मिली जुली महक नथुनों में अभी भी बेफ़िक्री और बेलौसपना का स्वाद बिंदास अंदाज़ में सांस में भर जाती है। इतना कि रात शराब पर उसे मिनिस्टर मित्र द्वारा साइकेट्रिक के यहां जाने की मिली सलाह, तिस पर पत्नी का तुर्रा कि ‘आप ने ज़्यादा पी ली है सो जाइए!’ और फिर अभी भरी दोपहर में जावेद अख़्तर का कहा कि, ‘भई आप तो बहुत परेशान लगते हैं।’ या फिर उकता कर यह बोलना कि, ‘चलिए आप तो अभी हमें माफ़ कर दीजिए!’ जैसी बातें उस की नसें तड़का रही थीं। वह सोच रहा था कि कभी सब का प्रिय रहने वाला वह अब सब का अप्रिय कैसे होता जा रहा है। कहां तो वह सब को सलाह दिया करता था, अब लोग उसे सलाह देने लगे हैं। इतनी कि लोगों की सलाह उसे चुभने लगी है? या कि वह ही, उस की बातें ही लोगों को चुभने लगी हैं? सीने में उस के जलन बढ़ती जा रही है। और यह चुभन उसे मथती जा रही है। जावेद का ही लिखा राधा कैसे न जले! गाना उसे याद आ जाता है। तो क्या वह राधा है?
वह सिगरेट सुलगा लेता है।
काफ़ी हाउस में कश लेते-धुआं फेंकते वह एक नज़र पूरे हाल में दौड़ाता है। भीतर कोई परिचित नहीं दिखता। बाहर सड़क पर ट्रैफ़िक का शोर है। मन में उठ रहा शोर ज़्यादा है या ट्रैफ़िक का शोर ज़्यादा है? तय करने के लिए वह काफ़ी हाउस के हाल से निकल कर बरामदे में आ जाता है। नहीं तय कर पाता।
वह घर आ जाता है। आ कर सो जाता है।
एक फ़ोन से उस की नींद टूटी। एक इंजीनियर मित्र का फ़ोन था। सिंचाई विभाग में थे। विभागीय मंत्री से परेशान थे। चीफ़ इंजीनियर बनने की ख़्वाहिश थी। चाहते थे कि आनंद सिफ़ारिश कर दे। कहीं से परिचय सूंघ लिए थे और कह रहे थे कि, ‘मंत्री जी आप के पुराने दोस्त हैं। कह देंगे तो काम बन जाएगा।’ आनंद ने साफ़ बता दिया कि, ‘इस तरह के ट्रांसफर-पोस्टिंग जैसे कामों में उस की न तो कोई दिलचस्पी रहती है, न ही वह कोई सिफ़ारिश कर पाएगा। हां, कहीं किसी के साथ कोई नाइंसाफ़ी हो तो वह मसले को अपने ढंग से उठा ज़रूर सकता है। फिर भी समस्या का समाधान हो ही जाए, कोई गारंटी नहीं है।’
‘तो नाइंसाफ़ी ही तो हो रही है।’
‘क्या?’
‘मंत्री जी का भाव बहुत बढ़ गया है।’
‘मतलब?’
‘जिस काम के वह पहले पचीस-तीस लाख लेते थे, अब एक करोड़ रुपए मांग रहे हैं।’
‘तो आप देते ही क्यों हैं?’
‘अच्छा चलिए हम लोग कहीं बैठ कर बातचीत करें?’
‘हम लोग मतलब कुछ और लोग भी?’ आनंद ने पूछा।
‘हां।’
‘किस लिए?’
‘बातचीत करेंगे और कोई रास्ता निकालेंगे?’
‘चलिए ठीक है।’ आनंद बोला, ‘पर बैठेंगे कहां?’
‘जिमख़ाना क्लब में बैठें?’
‘ठीक है।’ इंजीनियर मित्र बोला, ‘शाम साढ़े सात बजे आज मिलते हैं।’
‘ठीक है।’
शाम को जब जिमख़ाना क्लब में बैठकी हुई तो आठ-दस इंजीनियर लोग हो गए। इधर-उधर की बात के बाद में जब दो-दो पेग हो गया तो इंजीनियर लोग बोलना शुरू हुए। एक इंजीनियर बहुत तकलीफ़ में थे, ‘बताइए इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन हमने किया, इतने साल नौकरी करते हो गए और एक मंत्री हम इंजीनियरों को बिठा कर कहता था कि तुम लोग क्या जानते हो सिंचाई के बारे में? सिंचाई विभाग के बारे में? कहता था कि तुम लोग साल-डेढ़ साल-दो साल के लिए चीफ़ इंजीनियर बनते हो। क्या जानोगे? मैं जानता हूं सिंचाई विभाग को। इतने सालों से विभाग का मंत्री हूं। सरकार किसी की आए-जाए-रहे। इस विभाग का मंत्री तो मैं ही हूं। रहूंगा। बताइए मिनिस्ट्री जैसे रजिस्ट्री करवा ली थी।’
‘हां भई, आखि़र मिली-जुली सरकारों का दौर था तब!’ एक इंजीनियर बोला, ‘बारगेनिंग पावर थी उस में। ’
‘पर अब तो बहुमत की सरकार है।’ एक दूसरा इंजीनियर बोला।
‘बहुमत की सरकार तो अब और ख़तरनाक हो गई है।’ यह तीसरा इंजीनियर था, ‘जो चाहती है, मनमाना करती है। कोई रोकने-छेंकने वाला नहीं।’
‘क्यों आनंद भइया आप की क्या राय है?’ वह इंजीनियर पूछ बैठा।
‘अव्वल तो यह कि बिना बहुमत के कोई सरकार नहीं बनती। पर यहां मैं समझ रहा हूं कि आप लोग एक दल के बहुमत की सरकार की बात कर रहे हैं। तो ऐसी बहुमत की सरकारें प्रशासनिक तौर पर क्या गड़बड़ करती हैं इस पर तो बहुत तफ़सील में मैं नहीं जा रहा। पर यह तो कह ही सकता हूं कि विकास के लिए एक दल के बहुमत की सरकार ज़रूरी है।’ आनंद बोला, ‘पर एक तथ्य और भी हमारे सामने है। कि जब एक दल के बहुमत की सरकारें बहुत ताक़तवर हो जाती हैं तो उन के निरंकुश होने के ख़तरे भी बहुत बढ़ जाते हैं। जैसे इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई तब केंद्र में कांग्रेस बहुमत में ही थी। कल्याण सिंह ने जब बाबरी मस्जिद गिरवाई तब उत्तर प्रदेश में भाजपा बहुमत में ही थी। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने दंगे करवाए। और अब जब मायावती की बसपा सरकार बहुमत में है तो वह भी दलितोत्थान के नाम पर मनमाना कर रही है।’
‘यही तो। यही तो!’ सारे इंजीनियर जैसे उछल पड़े।
सिगरेट का धुआं, शराब की गंध और उसकी बहक, तंदूरी चिकन से उड़ती भाप में घुल कर एक अजब ही नशा तारी कर रही थी। एक ग़ज़ब ही गंध परोस रही थी।
‘तो इस मिनिस्टर साले का क्या किया जाए?’ इसी धुएं और भाप में से एक आवाज़ अकुलाई।
‘अब तो आनंद भइया आप ही बताइए!’ इंजीनियर मित्र बोला।
‘मेरी बात मान पाएंगे आप लोग?’
‘बिलकुल!’ लगभग सभी आवाजें एक सुर में बोलीं।
‘इस मिनिस्टर को उसी की भाषा में सबक़ सिखाइए।’
‘अब उस की भाषा तो आप ही बताइए। आखि़र आप उस मिनिस्टर के दोस्त हैं!’
‘बिलकुल नहीं!’ आनंद बोला, ‘ऐसा व्यक्ति मेरा दोस्त नहीं हो सकता।
‘तब?’ सभी घबराए।
‘यह बताइए कि इस मिनिस्टर को एक करोड़ रुपए का भाव किस ने बताया? यहां तक उस को किस ने पहुंचाया?’ आनंद ज़रा रुका और सब को एकदम चुप देख कर धीरे से बोला, ‘आप ही लोगों ने।’ आनंद के यह कहते ही जैसे पूरी
महफ़िल में सन्नाटा छा गया। सो आनंद ज़रा रुक कर बोला, ‘अब आप ही लोग उस को ज़मीन पर लाएंगे। तय कर लीजिए कि अब से कोई भी उस मिनिस्टर के पास अपनी पोस्टिंग के लिए नहीं जाएगा। चीफ़ इंजीनियर आप ही के बीच से किसी को उस को बनाना मज़बूरी है। शासन बहुत दिनों तक इस पोस्ट को ख़ाली नहीं रख सकता। कोई पैसा दे तब भी, न दे तब भी चीफ़ इंजीनियर बनना ही है। तो आप लोग क्यों एक करोड़ रुपए का रेट खोले हुए हैं? यह रैट रेस बंद कीजिए। चीज़ें अपने आप तय हो जाएंगी।’
आनंद की इस बात पर इंजीनियरों में कुछ ख़ास रिएक्शन तो नहीं हुआ पर सन्नाटा टूटता सा लगा। सिगरेट के धुएं और बढ़ गए। किसी ने यह सवाल ज़रूर उछाला, ‘और जो कहीं वह डेप्युटेशन पर किसी को ले आया तो?’
कुछ नहीं होगा। ऐसा नहीं कर पाएगा वह।’ और यह बात इधर-उधर हो गई। तभी एक इंजीनियर जो सिख था अचानक उछल कर बोला, ‘डन जी! अब कल से मंत्री के पास कोई नहीं जाएगा। इस की गारंटी मैं लेता हूं।’
‘तो देख लीजिएगा एक करोड़ का रेट ज़ीरो पर आ जाएगा।’ आनंद बोला।
पर महफ़िल का रंग तो उड़ चुका था। लोग जाने लगे। आनंद भी उठा और चलने लगा। चलते-चलते पीछे से उसे खुसफुसाहट सुनाई दी। कोई कह रहा था, ‘यार यहां रणनीति बनाने के लिए इकट्ठे हुए थे या जुगाड़ जमाने के लिए!’
फिर वही जोड़ भी रहा था, ‘आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास!’
आनंद भी हैरत में था और साथ चल रहे एक इंजीनियर से बोल रहा था, ‘यह अच्छा है कि इतना पीने के बाद भी आप इंजीनियरों को चढ़ी नहीं।’ उस ने ज़रा रुक कर सवाल सीधा करते हुए पूरा किया, ‘क्या इंजीनियरों को शराब नहीं चढ़ती?’
पर किसी ने आनंद को कोई जवाब नहीं दिया। सब का नशा शायद उतर गया था।
पर आनंद का नहीं।
हां, वह तब हैरत में ज़रूर पड़ा जब उसे पता चला कि इंजीनियरों ने उस रात के बाद सिंचाई मंत्री की ओर सचमुच रुख़ नहीं किया। नतीजा सामने था। ह़फ्ते भर में ही चीफ़ इंजीनियर की पोस्टिंग का रेट एक करोड़ से गिर कर पचास लाख रुपए पर आ गया था। उस ने अपने इंजीनियर मित्र को

शाबाश

ी देते हुए कहा भी कि, ‘वेल डन! अब देखना ह़फ्ते-दस रोज़ में रेट ज़ीरो पर आ जाएगा।’ पर उस इंजीनियर ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। धीरे से बोला, ‘देखिए कब तक यह यूनिटी क़ायम रहती है!’

‘क्यों?’
‘इंजीनियरों को आप नहीं जानते। यह साले अपने बाप को छोड़िए, अपने आप के भी नहीं होते।’
और सचमुच जिन सरदार जी ने सबसे आगे कूद कर गांरटी ली थी कि, ‘अब कल से कोई नहीं जाएगा। इसकी गारंटी मैं लेता हूं।’ वही सबसे पहले पहुंच गए और पचास लाख रुपए दे कर चीफ़ इंजीनियर पोस्ट हो गए। पूछने पर कहते, ‘कोई नहीं जी, रेट तो करोड़ से आधा कर दिया। यही हमारी फ़तह। रही बात पैसे देने की तो कोई न कोई देता ज़रूर। मैंने दे दिया। प्राब्लम क्या है?’
पर प्राब्लम तो थी।
आनंद को खीझ हुई थी कि वह इन भ्रष्ट इंजीनियरों के हाथों इस्तेमाल हुआ। और कि उस की रणनीति पर इन इंजीनियरों ने पूरी तरह अमल नहीं किया। दूसरे, उस मिनिस्टर तक भी यह बात पहुंच गई कि यह रणनीति इंजीनियरों ने आनंद के उकसाने पर बनाई थी। उस ने एक दिन फ़ोन पर तंज़ करते हुए कहा भी कि, ‘क्या भाई आनंद जी, अब इंजीनियर्स एसोसिएशन बना कर ट्रेड यूनियन की राजनीति करने का इरादा है क्या?’
‘ट्रेड यूनियन की राजनीति देश में अब बची भी है क्या?’ आनंद ने प्रति प्रश्न किया तो वह चुप हो गया।
उस मिनिस्टर की प्राब्लम यह थी कि उस को मिले पूरे पचास लाख रुपए में से एक भी पैसे उस के हिस्से नहीं आया था। सारा का सारा पैसा मुख्यमंत्री के खाते में चला गया था। बाक़ी उस के हिस्से का पचास लाख इंजीनियरों ने रेट गिरा कर गड़प कर लिया। उस की अपनी टीस थी।
टीस तो आनंद के सीने में भी थी। टीस ही टीस।
अपने सामाजिक जीवन में टूट-फूट को ले कर। अपने दांपत्य जीवन में टूट-फूट को ले कर। अपनी नौकरी में टूट-फूट को ले कर। और राजनीतिक पार्टियों में वैचारिक टूट-फूट तो जैसे उस के मन में सन्निपात ज्वर की तरह भारी उथल-पुथल मचाए थी यह टीस!
किस-किस से लड़े वह?
जो राजनीतिक मित्र थे। साथ जूझे थे, लड़े थे, पुलिस की लाठियां खाई थीं, बेहतर दुनिया के, दुनिया को बदलने के सपने देखे थे। सिद्धांतों के लिए जिए-मरे थे। अब वही लोग रास्ता बदल कर, सिद्धांतों को किसी नाबदान में बहा कर, समझौतों की रेलगाड़ी में बैठ कर सत्ता भोग रहे थे और आनंद को राजनीति का नया व्याकरण सिखा रहे थे। उस के स्वाभिमान को लगभग रौंदते हुए साइकेट्रिक के पास जाने की सलाह दे रहे थे, ट्रेड यूनियन की राजनीति में जाने की संभावनाएं टटोल रहे थे। लेटे होंगे भीष्म पितामह अर्जुन के वाणों से घायल हो कर शर शैय्या पर और पिलाया होगा अर्जुन के वाणों ने उन को पानी। पर गंगापुत्र भीष्म पानी के लिए तरसेंगे यह भी क्या किसी ने कभी सोचा है? उन की इस यातना की थाह ली है किसी ने?
बताइए गंगा का बेटा और प्यास से मरे?
भीष्म पितामह तो फिर भी धर्म अधर्म की लड़ाई में हस्तिनापुर के साथ वचनबद्धता के फ़रेब में अधर्म के साथ खड़े थे। जुआ, द्रौपदी का चीर हरण, निहत्थे अभिमन्यु का मरना देखते रहे। तो यह तो होना ही था! फिर वह एक बार सोचता है कि ऐसा तो नहीं कि कहीं हस्तिनापुर की वचनबद्धता की आड़ में सत्ता और सुविधा के आगे वह घुटने टेक रहे थे? चलिए हस्तिनापुर के साथ आप की वचनबद्धता थी। पर शकुनी, दुर्योधन और धृतराष्ट्र की धूर्तई के आगे घुटने टेकने की वचनबद्धता तो नहीं थी? पर आप तो जैसे वचनबद्ध ही नहीं, प्रतिबद्ध और कटिबद्ध भी थे!
अद्भुत!
तो क्या जैसे आज के राजनीतिज्ञ आज की राजनीति, आज की व्यवस्था, मशीनरी सत्ता और बाज़ार के आगे नतमस्तक हैं, वैसे ही भीष्म पितामह भी तो नतमस्तक नहीं थे? गंगापुत्र भीष्म! और पानी के लए तड़प रहे थे। और प्रायश्चित कर रहे थे कि दुर्योधन के द्वारा प्रस्तुत स्वर्ण पात्र का जल पीने के बजाए अर्जुन के वाणों से धरती की छाती चीर कर ही प्यास की तृप्ति चाहते थे? इच्छा मृत्यु का वरदान उन की इच्छाओं का हनन तो नहीं कर रहा था? सोचते-सोचते उसे एक गीत याद आ गया है- पल-छिन चले गए/जाने कितनी इच्छाओं के दिन चले गए!
शिखंडी, अर्जुन का वाण, शर-शय्या और इच्छा मृत्यु का झूला। कितना यातनादायक रहा होगा भीष्म के लिए इस झूले में झूलना। व्यवस्था-सत्ता और बाज़ार के आगे घुटने टेकने की यातना ही तो नहीं थी यह? तो क्या था गंगापुत्र भीष्म? फिर उसे एक गीत याद आ गया है- बादल भी है, बिजली भी है, सागर भी है सामने/मेरी प्यास अभी तक वैसी जैसे दी थी राम ने!
फिर वह पूछता है कि क्या यह सिर्फ़ भीष्म प्रतिज्ञा ही थी? पर आचार्य द्रोण? सत्ता-सुविधा के आगे वह क्यों घुटने टेके हुए थे? सिर्फ़ बेटे अश्वत्थामा को दूध उपलब्ध न करा पाने की हेठी ही थी? तो एकलव्य का अंगूठा क्या था?
दासी पुत्र विदुर? उन्हों ने तो सत्ता-व्यवस्था और तब के बाज़ार के आगे घुटने नहीं टेके थे? पर वह पांडवों के साथ भी कहां खड़े थे? गदा, धनुष या तलवार ले कर? जहां-तहां सिर्फ़ प्रश्न ले कर खड़े थे। तो क्या आनंद विदुर होता जा रहा है?
एक और विदुर?
आनंद भी जहां-तहां प्रश्न ले कर खड़ा हो जा रहा है आज कल। इतना कि अब ख़ुद प्रश्न बनता जा रहा है! यह तो हद है! वह बुदबुदाता है। उसे विदुर नहीं बनना। विदुर की सुनता कौन है? महाभारत में भी किसी ने नहीं सुनी थी तो अब कोई क्यों सुनने लगा? वह सोचता है क्या विदुर के समय में भी साइकेट्रिक होते रहे होंगे? और कभी किसी धृतराष्ट्र या उस के वंशज ने विदुर को किसी साइकेट्रिक के पास जाने की सलाह दी होगी? या फिर क्या उस समय भी ट्रेड यूनियनें रही होेंगी? और किसी ने तंज़ में विदुर को भी ट्रेड यूनियन की राजनीति में जाने का विमर्श दिया होगा?
और सौ सवाल में अव्वल सवाल यह कि क्या तब भी कारपोरेट जगत रहा होगा जहां तब के विदुर नौकरी बजाते रहे होंगे?
क्या पता?
फ़िलहाल तो आज की तारीख़ में वह अपना नामकरण करे तो प्रश्न बहादुर सिंह, या प्रश्नाकुल पंत या प्रश्न प्रसाद जैसा कुछ रख ही सकता है। कैसे छुट्टी ले वह इस प्रश्न प्रहर के दुर्निवार-अपार प्रहार से? सोचना उस का ख़त्म नहीं होता। अब इस टीस का वह क्या करे? यह एक नई टीस है। जिस का उसे अभी-अभी पता चला है।
‘बहुत दिन हो गए तुम ने मालपुआ नहीं बनाया।’ वह पत्नी से कहता है। ऐसे गोया इस टीस को मालपुए की मिठास और भाप में घुला देना चाहता है। और कहता है, ‘हां, वह गरी की बर्फ़ी और गाजर का हलवा भी। जो तुम पहले बहुत बनाया करती थीं, जब बच्चे छोटे थे।’ कह कर वह लेटे-लेटे पत्नी के बालों में अंगुलियां फिराने लगता है। पत्नी पास सिमट आती है पर कुछ बोलती नहीं। वह जानता है कि जब ऐसी कोई बात टालनी होती है तो पत्नी चुप रह जाती है। बोलती नहीं। वह जानता है कि पत्नी को मीठा पसंद नहीं। बच्चे भी पत्नी के साथ अब नमकीन वाले हो गए हैं। बड़े हो गए हैं बच्चे। जब छोटे थे तब मीठा खा लेते थे। अब नहीं। मीठा अब सिर्फ़ उसी को पसंद है। और वह डाइबिटिक हो गया है। सो पत्नी अब मालपुआ नहीं बनाती। नहीं बनाती गरी की बर्फ़ी और गाजर का हलवा भी। खीर तक नहीं। पत्नी ब्लडप्रेशर की पेशेंट है। पर ख़ुद नमक नहीं छोड़ती। उस का मीठा छुड़वाती है।
आफ़िस में भी पहले सहयोगी बहुत रिस्पेक्ट करते थे। बिछ-बिछ जाते थे। यह जान कर कि आनंद की पालिटिकल इंलुएंस बहुत है। रुटीन काम भी वह करवा ही देता था सब का। पर जब सब की उम्मीदें बड़ी होती गईं, मैनेजमेंट भी लायजनिंग करवाने की कोशिश में लग गया। उस ने पहले तो संकेतों में फिर साफ़-साफ़ मना कर दिया कि वह लायज़निंग नहीं करेगा। हरगिज़ नहीं। सहयोगियों को साफ़ बता दिया कि इतना ही जो पालिटिकल इंलुएंस उस का होता तो वह ख़ुद राजनीति नहीं करता? राजनीति छोड़ नौकरी क्यों करता? नौकरी में टूट-फूट शुरू हो गई। जो लोग पलक पांवड़े बिछाए रहते थे, देखते ही मुंह फेरने लगते।
यह क्या है कारपोरेट में राजनीति या राजनीति में कारपोरेट?
वह एक परिचित के घर बैठा है। घर के लोग किसी फंक्शन में गए हैं। घर में एक बुज़ुर्गवार हैं। घर की रखवाली के लिए। अकेले। बुज़ुर्गवार पेंशन या़ता हैं। आनंद का हाथ पकड़ कहते हैं, ‘भइया गवर्मेंट में एक काम करवा देते!’
‘क्या?’
‘जो पेंशन महीने में एक बार मिलती है, महीने में चार बार की हो जाती। या दो बार की ही हो जाती।’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’ आनंद मुसकुराता है, ‘क्या किसी को दो बार या चार बार तनख़्वाह मिलती है जो पेंशन भी दो बार या चार बार मिले?’
‘नहीं भइया आप समझे नहीं।’ बुज़ुर्गवार आंखें चौड़ी करते हुए बोले, ‘पेंशन का एमाउंट मत बढ़ता। वही एमाउंट चार बार में, दो बार में मिलता। हर महीने।’
‘इस में क्या है? आप को पेंशन तो बैंक के थ्रू मिलती होगी। आप चार बार में नहीं छह बार में यही एमाउंट निकालिए। दस बार में निकालिए!’
‘आप समझे नहीं भइया!’
‘आप ही समझाइए।’
‘निकालने की बात नहीं है। आने की बात है।’
‘ज़रा ठीक से समझाइए।’ आनंद खीझ कर बोला।
‘भइया अब आप से क्या छिपाना?’ बुज़ुर्गवार बोले, ‘घर की बात है। पेंशन की तारीख़ करीब आती है तो घर के सारे लोग मेरी ख़ातिरदारी शुरू कर देते हैं। क्या छोटे-क्या बड़े। पानी मांगता हूं तो कहते हैं पानी? अरे दूध पीजिए। पानी मांगता हूं तो दूध लाते हैं। खाने में सलाद, सब्ज़ी, दही, अचार, पापड़ भी परोसते हैं। ज़रा सी हिचकी भी आती है तो दवा लाते हैं। लेकिन जब पेंशन मिल जाती है तब नज़ारा बदल जाता है। घर का हर कोई दुश्मन हो जाता है। क्या छोटा, क्या बड़ा। पानी की जगह दूध देने वाले लोग पानी नाम सुनते ही डांटने लगते हैं। कहते हैं ज़्यादा पानी पीने से तबीयत ख़राब हो जाती है। बहुत पानी पीते हैं। मत पिया कीजिए इतना पानी। हिचकी की कौन कहे, खांसते-खांसते मर जाता हूं, दवा नहीं लाते। खाना भी रूखा-सूखा। हर महीने का यह हाल है। तो जब दो बार या चार बार पेंशन मिलेगी हर महीने तो हमारी समस्या का समाधान हो सकता है निकल जाए!’
‘पर ऐसा कैसे हो सकता है भला?’ बुज़ुर्गवार का हाथ हाथ में ले कर कहते हुए उन के दुख में भींग जाता है आनंद। कहता है, ‘अच्छा तो अब चलूं?’
‘ठीक है भइया पर यह बात हमारे यहां किसी को मत बताइएगा।’
‘क्या?’
‘यही जो मैं ने अभी कहा।’
‘नहीं-नहीं बिलकुल नहीं।’ कह कर आनंद उन के पैर छू कर उन्हें दिलासा देता है, ‘अरे नहीं, बिलकुल नहीं।’
बताइए इस भीष्म पितामह को महीने में चार बार पेंशन का पानी चाहिए।
एक डाक्टर के यहां अपनी बारी की प्रतीक्षा में वह बैठा है। डाक्टर होम्योपैथी के हैं सो वह सिमटम पर ध्यान ज़्यादा देेते हैं। एक ब्लड प्रेशर के मरीज़ से डाक्टर की जिरह चल रही है, ‘क्या टेंशन में ज़्यादा रहते हैं?’
‘हां, साहब टेंशन तो बहुत है ज़िंदगी में।’ पेशेंट मुंह बा कर बोला।
‘जैसे?’
‘द़तर का टेंशन। घर का टेंशन।’
‘द़तर में किस तरह का टेंशन है?’
‘नीचे के सब लोग रिश्वतख़ोर हो गए हैं। बात-बात पर फाइलें फंसाते हैं। पैसा नहीं मिलता है तो बेबात फंसाते हैं। मैं कहता हूं दाल में नमक बराबर लो। और सब नमक में दाल बराबर लेते हैं। यह ठीक तो नहीं है।’
‘आप का काम क्या है?’
‘बड़ा बाबू हूं।’ वह ठसके से बोला, ‘बिना मेरी चिड़िया के फ़ाइल आगे नहीं बढ़ती।’
‘चिड़िया मतलब?’
‘सिंपल दस्तख़त।’
‘ओह! इतनी सी बात!’
‘इतनी सी बात आप कह रहे हैं। अफ़सर बाबू मिल कर देश बेचे जा रहे हैं और आप इतनी सी बात बोल रहे हैं?’ वह तनाव में आता हुआ बोला, ‘मैं तो अब वी.आर.एस. लेने की सोच रहा हूं।’
‘अच्छा घर में किस बात का टेंशन है?’
‘घर में भी कम टेंशन नहीं?’ वह तफ़सील में आ गया, ‘एक लड़का नौकरी में आ गया है। दूसरा बिज़नेस कर रहा है। बिज़नेस ठीक नहीं चल रहा। तीसरा लड़का कुछ नहीं कर रहा। लड़की की शादी नहीं तय हो रही है।’
‘बस?’
‘बस क्या, घर में रोज़ झगड़ा हो जाता है मिसेज़ से।’
‘किस बात पर?’
‘मुझे हरी सब्ज़ी पसंद है। साग पसंद है। मिसेज़ को तेल मसाला पसंद है। बच्चों को भी मसालेदार पसंद है। इस पर झगड़ा बहुत है।’
‘ठीक है। आप अपनी सब्ज़ी अलग बनवाइए। तेल-घी मसाला और नमक बिलकुल छोड़ दीजिए। द़तर से लंबी छुट्टी ले लीजिए। ब्लड प्रेशर आप का चार सौ चला गया है। इस को रोकिए। नहीं मुश्किल में पड़ जाइएगा।’
‘जैसे?’
‘लकवा मार सकता है। आंख की रोशनी जा सकती है। कुछ भी हो सकता है।’ कहते हुए डाक्टर उस के परचे पर दवाइयां लिख देते हैं।
दूसरा मरीज़ शुगर का है। डाक्टर की मशहूरी सुन कर पटियाला से लखनऊ आया है। सिख है। सरदारनी को भी साथ लाया है। सरदारनी उस के शुगर से ज़्यादा शराब छुड़ाने पर आमादा है। सरदार डेली वाला है। डाक्टर भी समझा रहे हैं। पर वह कह रहा है, ‘नहीं साहब बिना पिए मेरा काम नहीं चलता। बिना इस के नींद नहीं आती।’ डाक्टर नींद की गोलियों की तजवीज़ करते हैं। पर वह अड़ा हुआ है कि, ‘बिज़नेस की टेंशन इतनी होती है कि बिना पिए उस की टेंशन दूर नहीं होती।’
‘तो बिना शराब रोके कोई दवा काम नहीं करेगी?’
‘कैसे नहीं करेगी?’ सरदार डाक्टर पर भड़क गया है, ‘पटियाला से लखनऊ फिर किस काम के लिए आया हूं।’ बिलकुल दम ठोंक कर कहता है, ‘दवा आप दो, काम करेगी मेरी गारंटी है।’
‘इस वक्त भी आप पिए हुए हैं।’ डाक्टर उसे तरेरते हुए मुसकुराते हैं।
‘हां, थोड़ी सी।’ वह हाथ उठा कर मात्रा बताता है।
‘इन को कल ले कर आइए। जब पिए हुए न हों।’ डाक्टर सरदारनी से कहते हैं। पर सरदार अड़ा है कि, ‘दवा आज ही से शुरू होगी। भले कल से बदल दो।’ वह जोड़ता है, ‘आखि़र इतना पैसा ख़र्च कर पटियाले से ख़ास इसी काम के लिए आया हूं। तो काम तो जी होना चाहिए ना!’ डाक्टर को चुप देख कर वह बड़बड़ाता है, ‘फ़ीस बाहर दे दी है, आप दवा दो!’
आनंद बिना दवा लिए क्लिनिक से बाहर आ गया।
सोचता है सिगरेट पिए।
पर सिगरेट नहीं है। आस पास कोई दुकान भी नहीं है। वह कई बार पाइप और सिगार पीने के बारे में भी सोच चुका है। सिगार तो मौक़े बेमौक़े पी लेता है। पर पाइप हर बार मुल्तवी हो जाता है। सोच-सोच कर रह जाता है। ख़रीद नहीं पाता। सिगार भी कभी-कभार ही। नियमित नहीं।
नियमित नहीं है काफ़ी हाउस में भी बैठना उस का। पर बैठता है जब-तब। पहले के दिनों में काफ़ी हाउस में बैठना एक नशा था। अब वहां बैठ कर नशा टूटता है। समाजवादी सोच को अब वहां सनक मान लिया गया है। समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई/हाथी से आई घोड़ा से आई/समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई।’ को अब वहां इसी शाब्दिक अर्थ में गूंथा जाता है। और लोग पूछते हैं, ‘का हो कब आई?’ इतना कि आनंद को ‘जब-जब सिर उठाया/चौखट से टकराया’ दुहराना पड़ता है। लगता है विद्यार्थी जीवन ख़त्म नहीं हुआ। विद्यार्थी जीवन याद आते ही उसे अपनी छात्र राजनीति के दिन याद आ जाते हैं। याद आते हैं पिता। पिता की बातें। वह अंगरेज़ी हटाओ आंदोलन के दिन थे। पिता कहते थे कि, ‘पहले अंगरेज़ी पढ़ लो, अंगरेज़ी जान लो फिर अंगरेज़ी हटाओ तो अच्छा लगेगा। नहीं ख़ुद हट जाओगे। कोई पूछेगा नहीं।’ लेकिन तब वह पिता से टकरा गया था। आंदोलन का जुनून था। कई बार वह पिता से टकराता था तो लगता था-व्यवस्था से टकरा रहा है। व्यवस्था से आज भी टकराता है। पर इंक़लाब ज़ि़दाबाद सुने अब ज़माना गुज़र गया है। जिंदाबाद-मुर्दाबाद के दिन जैसे हवा हो गए। ‘हर ज़ोर-जुलुम के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ को जैसे सांप सूंघ गया है। आर्थिक मंदी के दौर में जगह-जगह से लोग निकाले जा रहे हैं, बेरोज़गार हो रहे हैं। पर अब यह सब सिर्फ़ अख़बारों की ख़बरें हैं। इन ख़बरों में हताशा की बाढ़ है। जोश और इंक़लाब का हरण हो गया है, हमारी रक्त कोशिकाएं रुग्ण हो गई हैं। नहीं खौलता ख़ून। बीस हज़ार-तीस हज़ार की नौकरी छूटती है तो दस हज़ार-पंद्रह हज़ार की नौकरी कर लेते हैं। लाख डेढ़ लाख की नौकरी छूटती है पचास हज़ार-साठ हज़ार की कर लेते हैं कंपनी बदल लेते हैं। शहर बदल लेते हैं। ज़मीर और ज़हन बदल लेते हैं। ‘एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे’ गाना हम भूल गए हैं। भूल गए हैं यह पूछना भी कि एक ही आफ़िस में कुछ आदमी आठ लाख-दस लाख महीने की तनख़्वाह ले रहे हैं तो कुछ लोग दस हज़ार, बीस हज़ार, पचास हज़ार की तनख़्वाह ले रहे हैं। यह चौड़ी खाई क्यों खोद रहे हैं हुजू़र? यह कौन सा समाज गढ़ रहे हैं। क्यों नया दलित गढ़ रहे हैं? क्यों एक नए नक्सलवाद, एक नई जंग की बुनियाद बना रहे हैं? अच्छा बाज़ार है! चलिए माना। फिर ये बेलआउट पैकेज भी मांग रहे हैं।
यह क्या है?
मालपुआ खाना है तो बाज़ार की हेकड़ी है। भीख मांगनी है तो लोक कल्याणकारी राज्य की याद आती है? भई हद है!
काफ़ी हाउस में बैठा आनंद सिगरेट सुलगाता है और सोचता है कि इसी माचिस की तीली से बेल आउट देने और लेने वालों को भी किसी पेट्रोल पंप पर खड़ा कर के सुलगा दे। और बता दे कि जनता की गाढ़ी कमाई से भरा गया टैक्स, सर्विस टैक्स और दुनिया भर का ऊल जुलूल टैक्स का पैसा है। इस से बेलआउट के गड्ढे मत पाटो।
‘शिव से गौरी ना बियाहब हम जहरवा खइबौं ना!’ शारदा सिनहा का गाया भोजपुरी गाना कहीं बज रहा है। यह कौन सा कंट्रास्ट है?
वह रास्ते में है।
कोहरा घना है। और थोड़ी सर्दी भी। कोहरे को देख उसे सुखई चाचा की याद आ गई।

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