Home हास्य व्यंग शादी विवाह में फूफा की भूमिका | प्रारब्ध

शादी विवाह में फूफा की भूमिका | प्रारब्ध

लेखक - सुमंत विद्वांस

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शादी-विवाह जैसे हर अच्छे आयोजन में कोई न कोई मीन-मेख निकालकर मुंह फुला लेने वाले किसी न किसी फूफा के बारे में आपने अवश्य सुना होगा। कुछ फूफा तो इतने अदभुत होते हैं कि वे आयोजन में कोई कमी न ढूंढ सकने पर अपने आप से भी नाराज हो सकते हैं।
सोशल मीडिया पर सक्रिय होने के बाद मुझे पता चला कि समाज में फूफा से भी ऊपर वाले दर्जे की एक प्रजाति और पाई जाती है जो केवल शादी-विवाह जैसे आयोजनों में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर एक क्षण में और दुनिया की हर एक बात में कोई न कोई कमी निकालती रहती है या किसी न किसी से तुलना करके ऊंच-नीच बताती रहती है।
जब मैं भारत में रहता था और किसी भी विषय पर कुछ लिखता था, तो कुछ लोग यह ज्ञान देते थे कि मुझमें दुनिया की कोई समझ नहीं है क्योंकि मैंने भारत के अलावा कभी कुछ देखा ही नहीं है। जब मैं भारत से बाहर आ गया तो उन्हीं में से कई लोग अब इस बात से पीड़ित रहते हैं कि मुझे अगर भारत की इतनी चिंता है तो विदेश से सब छोड़-छाड़कर मुझे भारत लौट आना चाहिए।
भारत में जब तक मैं अपने शहर में रहता था, तब लोगों को लगता था कि मेरी बातें निरर्थक हैं क्योंकि मैंने अपने जीवन में अभी खुद कुछ नहीं किया है। पहले मैं खुद को साबित करूं, फिर कुछ कहूं। वही बातें मैं अब कहता हूं, तो कुछ लोगों को लगता है कि अपने जीवन में सब-कुछ ठीक-ठाक कर लेने के बाद बैठे-बैठे उपदेश देना बहुत सरल है। इसलिए मुझे जमीन पर उतरकर उनके लिए कुछ करना चाहिए, ताकि वे बैठे-बैठे उसमें कमियां निकाल सकें।
इसी प्रजाति के कुछ लोगों का एक और गुण यह है कि उन्होंने स्वयं कुछ किया हो या न किया हो, लेकिन वे हर एक से इस बात का हिसाब चाहते हैं कि उसने देश या समाज के लिए क्या किया है।
जब मैं भारत में रहता था, तब मेरी आर्थिक स्थिति इतनी सशक्त नहीं थी कि मैं अच्छे सामाजिक कार्यों में पर्याप्त आर्थिक सहयोग कर सकूं। लेकिन उस समय भी मैं थोड़ा-बहुत धन और बहुत सारा समय देकर सामाजिक या राजनैतिक कामों में योगदान करता रहता था।
आगे भारत से बाहर आने पर कामकाज की व्यस्तता बहुत अधिक बढ़ गई, तो उतना समय देना संभव नहीं रहा। लेकिन आर्थिक स्थिति थोड़ी अच्छी हो जाने से अब समय की कुछ भरपाई धन से करना संभव हो गया। इसलिए अब मैं पहले की तुलना में बहुत-कम समय लेकिन थोड़ा-अधिक धन भारत के सामाजिक कार्यों में देकर अपना योगदान करता रहता हूं। जितना टैक्स मैं भारत में कुछ सालों पहले भरता था, आज उससे कई गुना ज्यादा भरने की स्थिति में हूं।
मैं चाहे भारत में रहा या भारत से बाहर, लेकिन हर समय भारत के लिए कुछ न कुछ अपनी क्षमता से करता रहा और आज भी करता हूं। लेकिन यह बात मुझे बड़ी अदभुत लगती है कि जो लोग कुछ सालों पहले भी देश के लिए कुछ नहीं कर रहे थे, उस तरह के लोग आज भी हाथ पर हाथ धरकर वैसे ही निकम्मे बैठे रहते हैं और दूसरों से हिसाब मांगते हैं। मुझे ऐसे लोगों को देखकर घृणा होती है क्योंकि इसी मानसिकता वाले लोग ही बहुत सारी सामाजिक समस्याओं की जड़ हैं।
दूसरी एक विशेष प्रजाति मानसिक गुलामों की है। इनको आज तक ठीक से समझ नहीं आया है कि इन्हें भारत को महान मानना है या दूसरे देशों का गुणगान करना है। कभी ये लोग विश्व-भर के सारे देशों की अच्छाइयां गिनाकर यह बताते फिरते हैं कि भारत में स्वास्थ्य, शिक्षा, भ्रष्टाचार, जातिवाद, बेरोजगारी और ऐसी न जाने कितनी समस्याएं हैं और उनके कारण क्या-क्या हैं। फिर यह नशा उतरने पर वही लोग बताने लगते हैं कि दुनिया में भारत से अच्छा कोई देश नहीं है और भारत के अलावा सब बेकार है। कभी वे बताते हैं कि अंग्रेजी न बोल पाना या छुरी कांटे से न खा सकना पिछड़ेपन की निशानी है और कभी वे बताते हैं कि अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति ही पूरी मानव सभ्यता में सबसे श्रेष्ठ है।
ऐसा भयंकर कन्फ्यूजन देखकर मुझे उन लोगों पर तरस आता है।
ऐसे लोग वास्तव में बहुत बड़ी हीन भावना से ग्रस्त हैं। बहुत अफसोस की बात है कि वे कभी भी किसी भी बात में किसी और बात से तुलना किए बिना संतुष्ट नहीं हो सकते। किसी नदी, पहाड़, पर्वत, झील का चित्र देखकर या किसी काव्य की पंक्तियों को सुनकर वे केवल उसके सौंदर्य का आनन्द नहीं ले सकते, न कोई अच्छा लेख या नई जानकारी पढ़ने पर कोई सकारात्मक चर्चा कर सकते हैं और न यह सोचकर संतुष्ट हो सकते हैं कि उन्होंने कुछ नया सीखा। उनका मस्तिष्क अनजाने में भी उन्हें केवल यही समझाता है कि जो भी उनसे पूछकर न बताया गया हो, वह सब तुच्छ है।
जिनमें कुछ अच्छा देखने या बनाने की क्षमता न हो, वे अपनी ईर्ष्या और हीनता के कारण हर अच्छी बात में कमी निकालकर अपने अहं को तुष्ट करते रहते हैं। उससे भी आगे बढ़कर यदि संभव हो तो वे हर अच्छी बात का सौंदर्य नष्ट भी कर देना चाहते हैं, ताकि अन्य लोग भी उनके ही समान कुंठित हो जाएं और वे भी जीवन में कभी किसी अच्छी बात का आनंद न ले पाएं। इतिहास में भी ऐसे ही क्षुद्र विचार वालों ने विश्व में सबसे ज्यादा विनाश फैलाया है। जो नई पुस्तकें नहीं रच पाए, उन्होंने ही पुस्तकालय जला दिए, जो विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाए, उन्होंने ही वैज्ञानिकों को जहर दे दिया और जो सुंदर मूर्तियों और इमारतों का निर्माण नहीं कर पाए, उन्होंने ही सब तोड़ फोड़कर अपनी कुंठा से इतिहास को कलंकित किया।
ऐसी मानसिकता को कुचलना बहुत आवश्यक है लेकिन उससे भी आवश्यक यह है कि ऐसी क्षुद्र भावना रखने वालों की बातें सुनकर आप अपने मन की सौम्यता या अपने जीवन के सौंदर्य को न खोएं। आपको अपने आसपास या यहां सोशल मीडिया पर भी ऐसा कोई व्यक्ति दिखे, जो हर किसी की हर बात में केवल मीन-मेेख ही निकालता हो, तो उसे उसके हाल पर छोड़ दें। ऐसे लोगों को मैं कभी कोई जवाब नहीं देता हूं और न जवाब देने लायक भी समझता हूं। अपने अनुभव से मैं आपको भी यही बताना चाहता हूं कि कोई आपको कमतर महसूस करवाने का कितना ही प्रयास क्यों न करे, लेकिन आप कभी भी स्वयं को उसकी बातों का शिकार न बनने दें।
बचपन में मैंने एक पिता-पुत्र की कहानी सुनी थी, जो गधे को साथ लेकर जा रहे थे। चाहे वे दोनों ही गधे पर सवार हो जाएं या उनमें से कोई एक सवार हो जाए अथवा दोनों ही गधे के साथ-साथ पैदल चलें, कुछ ऐसे लोग उन्हें हर स्थिति में मिलते थे जो हमेशा केवल उनकी आलोचना ही कर रहे थे। सोशल मीडिया पर भी आपकी या मेरी बातों में केवल कमियां ढूंढने की ताक में बैठे जो फूफा श्रेणी के लोग हमें दिखाई देते हैं, वे भी उस कहानी वाले लोगों की ही प्रजाति के हैं। कम से कम उस कहानी वाला गधा किसी न किसी काम अवश्य आता था लेकिन ये लोग किसी काम के नहीं हैं। इसलिए उन्हें उसी कुंठित अवस्था में पड़ा रहने दें।
यह पोस्ट मैंने उन कुंठित लोगों के लिए नहीं, बल्कि आपसे संवाद करने के लिए लिखी है। ऐसे लोगों की चिंता किए बिना आप अपने जीवन में अच्छी बातों का आनंद लें और दूसरों तक भी वह अच्छाई पहुंचाते रहें। आपको हार्दिक शुभकामनाएं। सादर!

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