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संकर्षण वार्ता :
समस्त सुखों को भोग लेने के बाद आनंद बोला ” सुख संपत्ति, पकवान , भोग सब बेकार है कोई अर्थ नहीं इन सबका..!
सामने से आते एक मजदूर को देखकर आनंद बोला : कहाँ जा रहे हो..?
मजदूर बोला : सरकार अनाज वितरण कर रही है उसी को अपने हिस्से का कोटेदार के यहां से लेने जा रहा हूँ.!
आनंद खाट पर बैठे हुए जम्हाई लेते हुए बोला ; जा रे कामचोर ले ले फ्री का..!
सरकार फ्री का बाँटकर मुफ्तखोरी फैला रही है , ई नहीं सोच रही कि मुक्तखोरी से देश गर्त में चला जायेगा…
आनंद की बात सुनकर मजदूर बोला: मालिक एक बात पूछे बुरा तो नहीं मानेंगे..?
आनंद: पूछ …..! पूछ ..!
बुरा मानकर भी क्या उखाड़ लेंगे , सरकार आज कल वोट के खातिर सूद गंवार के पीछे पागल बा…तोहन का राज बा..!
हम क्या कर लेंगे..पूछ..! पूछ..!
मजदूर : मालिक , आपके पास कितना बीघा खेत बा..?
आनंद : खेत तो हमारे पास 10 बीघा बा..! लेकिन ई काहे पूछत है..?
मजदूर : मालिक एक बात बताओ तुम्हरे पास 10 बीघा खेत बा, एक नौकरी बा , आपके भाई के पास भी 4 बीघा खेत बा और नौकरी बा..!
लेकिन हमारे पास क्या है …?
हमारे पास न खेत है और न नौकरी है …. दिन भर मजदूरी करें तो 300 रुपिया मिल जाय बहुत बड़ी बात बा..!
अब बताओ उतने में हम अनाज कितने का खरीदें , कितने में कपड़ा लत्ता खरीदें, कितने में बच्चों को पढ़ाएं…?
कभी कभी तो रोज काम भी नहीं मिलता…!
आनंद : अरे साला तुम लोग बहुत कमाता है लेकिन सब दारू में उड़ा देता है ..!
मजदूर : एक बात बताओ बाबू जी देश भर की सारी नैतिकता की जिम्मेदारी काहे गरीब पर ही डाल दी जाती है ..?
जब वह अपना दुख बताये तो उसमें ढूढ ढूढ कर ऐसी प्रचंड नैतिकता की आशा क्यों की जाती है कि उसमें तनिक भी दोष न निकले…!
दारू पीना तो इंसान इंसान की प्रवृत्ति पर निर्भर है , ये बताओ क्या आप नहीं पीते..?
कल तो आप भी चौधरी के यहां गाँजा फूँक रहे थे वो क्या था।
कुछ न कुछ किसी न किसी प्रकार का व्यसन सबके पास है और रहता है , रहेगा भी मानवीय प्रकृति है।
आंनद कंधा उचकाते हुए : जाओ तुम जहां जा रहे थे , बेवजह का ज्ञान मत दो..!
तुम साला लोग बड़का पंडित बनता जा रहा है , साला मुँह में दांत आ गवा है तुम्हारे..
मजदूर ; अरे मालिक …… खाने हगने में ही हमारी पीढ़ी बीत जाएगी .. हमरे मुँह में दांत कहाँ से आ जायेगा….. कमजोर के अंदर क्रोध ही तो एक चीज़ होती है मालिक जो उसकी पूँजी होती है….उ भी खर्च करने में हमको दो बार सोचना पड़ता है।
गरीब के पेट में अन्न जा रहा है तो इतना ईर्ष्या तो मत कीजिये और यदि गलत हो रहा है तो अपनी सारी संपत्ति का ,विद्या का, नौकरी का त्याग करके हमरे जैसी मजदूरी करिये और फिर बताईये कि सरकार जो फ्री का अन्न दे रही है वो देना चाहिए या नहीं देना चाहिए……!
खैर मालिक आप नहीं समझोगे,
पेट भरा है , सारा स्वाद चख लिया है तो वैराग ही सूझेगा न.!
खैर, आपके भाई साहब के पास चार बीघा खेत है फिर भी वो कोटेदार के यहाँ लाइन लगाकर बैठे हैं , जा रहा हूँ उसी लाइन में मैं भी खड़ा होने..!
कम से कम कहीं तो समानता आएगी..!!

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