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सफलता व उपलब्धि बनाम हमारी मानसिकता

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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सफलता व उपलब्धि को हम ठीक से परिभाषित ही नहीं कर पाए हैं। यदि सफलता को हम ठीक से परिभाषित कर लिए होते तो हमारे समाज की दिशा ही भिन्न होती, लोगों की मानसिकता भिन्न होती, जीवन के मानदंड ही भिन्न होते। हममें से अपवाद छोड़ सभी लोग जिसे सफलता व उपलब्धि कहते हैं वह वास्तव में है क्या? आप पाएंगे कि ग्लैमर, शक्ति व सुविधाओं को ऐनकेन प्रकारेण कब्जाना, प्राप्त करना व भोगना ही सफलता है। पक्के घर में रहने वाला बेईमान व्यक्ति, झोपड़ी में रहने वाले ईमानदार व सेवा-भावी व्यक्ति की तुलना में अधिक सफल माना जाता है। श्वेत-श्याम टीवी वाले की तुलना में रंगीन टीवी वाला, रंगीन टीवी की तुलना में एलसीडी टीवी वाला अधिक सफल माना जाता है। महंगे ब्रांड वाले कपड़े पहनना, चश्मे लगाना इत्यादि सफलता माना जाता है। छोटे, मझोले या बड़े घर का मालिक होना जीवन की क्रमशः बड़ी सफलताओं व उपलब्धियों में मानी जाती है।
एक पुराने मित्र हैं इंजीनियरी में स्नातक करने के बाद आईआईटी मुंबई से प्रबंधन में परास्नातक किया फिर नामचीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बहुत ऊंचे वेतनमानों की नौकरियां शुरू कीं। वे पिछली बार जब मुझे मिले तब दो दिनों तक अपने जीवन की सफलताओं व उपलब्धियों के बारे में बताते रहे। उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने भारत के सबसे प्रतिष्ठित मेट्रो-शहरों में से एक में एक प्रतिष्ठित क्षेत्र में एक महंगा फ्लैट खरीदा है। पति-पत्नी दोनो ऊंचे वेतनमानों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी करते हैं। वेतन का एक भाग हर महीने बैंक का ब्याज चुकाने में देते हैं और शेष वेतन-राशि का प्रयोग बच्चों की पढ़ाई, अपने बाजारू उपभोक्ता वाले शौक पूरा करने जैसे उनके अनुसार व्यवहारिक, सफल व प्रतिष्ठित जीवन यापन में करते हैं। सुबह नाश्ता करके कार्यालय जाते हैं, वहां कुर्सी पर बैठकर जो काम दिया जाता है वह करते हैं, शाम को या तो घर लौटते हैं या मित्रों के साथ किसी शराबखाने जाते हैं, घर आकर भोजन करते हैं, बाजार से कोई वस्तु खरीदने की बच्चों की मांगों को सुनते हैं, पत्नी के साथ एक बिस्तर में सो जाते हैं। यही दिनचर्या रोज की है।
इस दिनचर्या में सफलता या उपलब्धि जैसा क्या है? भोजन हर व्यक्ति करता है, हर विवाहित दंपति एक बिस्तर में साथ सोते हैं, हर बच्चा अपने माता पिता के सामने अपनी मनचाही वस्तु के लिए मांग रखता है। फुटपाथों, रैनबसेरों व झोपड़ियों से लेकर बड़े-बड़े महलों में रहने वाला भी जब सोता है तो वह कुछ फुट से अधिक के बिस्तर में नहीं सोता है। गांवों में एक एकड़ के बड़े घर की तुलना में शहर का छोटा सिकुड़ा सा फ्लैट भी उपलब्धि मान लिया जाता है क्योंकि शहरों में बाजार ने जमीनों की कीमत ऊपर पहुंचा रखी है और लोग खुद को सफल साबित करने के लिए प्रकृति से बहुत दूर ऊंची कीमतों के फ्लैटों को खरीदने में अपना जीवन लगाते रहते हैं। अजीब बेहोशी है।
एक दिन एक अन्य मित्र से बातचीत हो रही थी। मित्र ने भारत में तकनीक में स्नातक किया था, उसके बाद अमेरिका के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से परास्नातक किया था। पढ़ाई पूरी करने के बाद अमेरिका में कई वर्ष रहकर दुनिया की नामचीन कंपनियों में काम किया। एक दिन भारत लौटे और बड़ी कंपनियों में ऊंचे वेतन पर नौकरियां करनी शुरू किया, माता पिता की इच्छा से विवाह किया, पत्नी भी इंजीनियर और बड़ी कंपनियों में ऊंचे वेतन पर नौकरी करतीं हैं। मैंने उनसे पूछा कि वह क्या हैं? मित्र ने जवाब दिया कि खूबसूरत है, ऊच्च शिक्षा की डिग्रियां प्राप्त किए हुए है, सुंदर पत्नी है, अपना फ्लैट खरीद लिया है, कार है, बैंक में पैसे हैं, बड़ी कंपनी में ऊंचे वेतन की नौकरी करता है, आदि-आदि। मित्र इसी प्रकार का बहुत कुछ बता व गिना गए।
मैंने उनसे कहा कि मान लीजिए आपका चेहरे की खूबसूरती किसी दुर्घटना में बिगड़ जाए, मान लीजिए आपकी नौकरी न रहे, मान लीजिए आपकी कार खो जाए, मान लीजिए कि किसी अधिग्रहण में आपका फ्लैट आपका न रहे, मान लीजिए कि आपकी डिग्रियां जल कर राख हो जाएं, आपकी पत्नी आपको छोड़कर चली जाएं आदि-आदि। इन स्थितियों के घटित होने पर क्या आप नहीं रहेंगे, क्या आपकी मृत्यु हो जाएगी, क्या आपकी समझ समाप्त हो जाएगी, क्या आपके जीवन मूल्य पतित हो जाएंगे? मित्र बोले नहीं मैं तब भी रहूंगा। मैंने मित्र से कहा तब फिर जब मैंने आपसे पूछा कि आप क्या हैं तब आपने जिन चीजों को अपने होने के रूप में बताया, उन सबके नष्ट होने पर भी आप कैसे बचे रह गए? मित्र बोले कि इन सबके जाने के बाद भी मैं मनुष्य तो रहूंगा ही। मैंने मित्र से कहा कि हमारी बेहोशी का आलम यह है कि हम जो हैं उसके होने का अहसास तक नहीं करते हैं। आप मनुष्य हैं लेकिन मेरे पूछने पर आपने मुझे दुनिया भर की फिजूल बातें बता दीं लेकिन यह नहीं बताया कि आप मनुष्य हैं जबकि आप जीवन जीने की कला के ढेरों शिविर कर चुके हैं और करते रहते हैं। ऐसे जीवन जीने की कला का क्या औचित्य जो आपको जीवन का मूलभूत तत्व तक नहीं समझा पाता कि आप मनुष्य हैं।
बच्चा बचपन से ही केवल और केवल बाजार का बड़ा उपभोक्ता बन पाने को ही अपने जीवन के एकमात्र लक्ष्य के रूप में चुनता है। ईमानदारी से सामाजिक सेवा करने वाले व्यक्ति का उपहास उड़ाया जाता है, बेईमानी व भ्रष्टाचार से सामाजिक कार्यों को करने के नाम पर लाखों-करोड़ों का घालमेल करने वाले एनजीओ चलाने वाले धूर्त लोगों को सफल माना जाता है। युवा नौकरशाह सिर्फ इसलिए बनना चाहता है क्योंकि नौकरशाह बनकर भ्रष्टाचार से पैसे कमाए जा सकते हैं। राजनेता भी पैसे कमाने के लिए ही बना जाता है। चूंकि हर प्रकार के तंत्र पूरी तरह ही भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं इसलिए भ्रष्टाचार करते हुए भी स्वयं को लिखापढ़ी में ईमानदार साबित किया जा सकता है, जीवन मूल्यों के कोई मायने ही नहीं रह गए हैं। महंगे विद्यालयों जहां बच्चे के बारे में बच्चा या बच्चे के माता पिता नहीं तय करते हैं, विद्यालय के शिक्षक व प्रबंधन तय करता है, जिनका उद्देश्य बच्चों का समग्र विकास न होकर उनके अपने विद्यालय का ब्रांड व बाजार-लाभ वाली साख महत्वपूर्ण होती है। पैसा खर्च करना हर बात का समाधान माना जाता है इसलिए महंगे विद्यालयों को सफल व बच्चे द्वारा सफलता प्राप्ति को सुनिश्चित करने वाला माना जाता है।
बच्चे को अच्छे अंकों को प्राप्त करने के लिए पूजापाठ व मंदिर आदि जाना सिखाया जाता है, बाबाओं से आशीर्वाद प्राप्त करना सिखाया जाता है। अपने से कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोगों व उनके बच्चों को गंदा, खराब, नीच व अपराधी मानना सिखाया जाता है। और भी बहुत कुछ। जन्म लेते ही बच्चे की मानसिकता को माता-पिता, रिश्तेदारों, विद्यालयों व धार्मिक कर्मकांडों के द्वारा बाजारूपने के लिए अनुकूलित किया जाता है। शिक्षा के नाम पर बाजार के तंत्रों के यांत्रिक-अवयव बनने की दुकानें स्थापित हो रही हैं। आर्थिक विकास के नाम भ्रामक चक्र खड़े किए जाते हैं। कंपनियां खुलती हैं, उनमें सप्लाई के लिए व्यवसायिक प्रतिष्ठान रूपी तथाकथित शिक्षा के संस्थान खुलते हैं। इनमें छात्रों के अभिभावक पैसे देकर डिग्रियां खरीदते हैं, फिर जुगाड़ से किसी कंपनी में नौकरी खोजी जाती है। नौकरी में मिलने वाले वेतन व सुविधा के आधार पर छात्रों की योग्यता, सफलता व उपलब्धि आंकी जाती है। एक बार फिर विवाह प्रस्तावों के लेनदेन व विवाहों के नाम पर बाजारूपन शुरू होता है। जीवन सहचरत्व जैसे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी जीवन मूल्यों को एक बार फिर से तिरस्कृत कर दिया जाता है।
भोजन, कपड़े व घर का इंतजाम, विभिन्न प्रकार की शारीरिक भूखों के ही प्रयोजनों में आजीवन लगे रहना, सुविधाओं के आकार व प्रकार के आधार पर जीवन की सफलता व उपलब्धियों को तय करने की मूर्खता व बेहोशी में पूरा जीवन जीते रहना किस प्रकार की सफलता है जो व्यक्ति को सिर्फ और सिर्फ बाजारू बनाती है, बाजार का उपभोक्ता बनाती है, जीवन की हर बात का मूल्यांकन मुद्रा के आधार पर करती है, व्यक्ति को पूरे जीवन एक पल के लिए भी मनुष्य होने का आभास तक नहीं करने देती है। बहुत लोग तो केवल अपने लिए ही नहीं अपने बच्चों व उनके बच्चों के लिए भी घर व संपत्ति अर्जित करने में लगे रहते हैं। ऐसे लोग यह भी नहीं सोचते हैं कि वे अपनी अगली पीढ़ियों को अकर्मण्य, असंवेदनशील व यांत्रिक बना रहे हैं। सफलता व उपलब्धि का अर्थ ही मुद्रा संचय करना व बाजार का उपभोक्ता होना ही हो गया है। ऐसी अनुकूलताओं से उत्पन्न विभिन्न परिभाषाओं व प्रयोजनों ने ही समाज व देश के व्यक्ति की रगों में भ्रष्ट्राचार, असंवेदनशीलता व फरेब को कूट-कूट कर भर दिया है। यहां तक कि सामाजिक कार्यों के लिए दिए जाने वाले अति प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी बाजारूपन पर ही आधारित हैं। समाज, देश व विश्व को समाधानित व्यवस्था की ओर ले चलने के लिए इन परिभाषाओं को परिवर्तित करना भी आधारभूत आवश्यक तत्व हैं।
हम लोग कभी सोचते ही नहीं। कभी खुद को समझने व जानने का प्रयत्न करते ही नहीं। खुद को समझने व जानने के नाम पर चल रही आध्यात्मिक व धार्मिक दुकानों ने व्यक्ति को और खतरनाक बेहोशी में ढकेल देते है। हम बिना सोचे समझे दूसरों द्वारा कहे गए तर्कों इत्यादि को रट लेते हैं या अपनी मानसिक-कंडीशनिंग के आधार पर अपने एजेंडे के लिए खुद ही मनमाने तर्क गढ़ लेते हैं। कई मामलों में ऐसा लोग अपने इगो के लिए भी करते हैं या जबरिया दूसरों को अपने से नीचा दिखाने के लिए अपने अहं की तुष्टि के लिए करते हैं। मनुष्य के जीवन का पूरा चक्र ही बाजार व मुद्रा तक ही कुंठित कर दिया गया है। सबसे भयावह बात यह है कि इसी कुंठा में जीने को ही जीवन की समझ, मूल्य, सफलता व उपलब्धि आदि के रूप में प्रतिष्ठापित कर दिया गया है। ग्रंथों में शब्दों में लिखकर कहा जाता है कि हम मनुष्य हैं, मनुष्य प्रकृति की सबसे अधिक ज्ञानावस्था है, मनुष्य के जीवन का उद्देश्य मुक्त होना है, मनुष्य परमात्मा के साथ योग करने के लिए उत्पन्न होता है, लेकिन जीवन जीने की प्रमाणिकता में मनुष्य होने को ही सबसे अधिक तिरस्कृत व कुंठित किया जाता है।
हमारी सोच व मानसिकता इतनी अधिक विकृत है कि व्यक्ति के पैदा होने से लेकर मृत्यु तक लगभग हर एक गतिविधि, मानव-निर्मित तंत्र, व्यवस्थाएं व परिभाषाएं यही प्रमाणित करतीं हैं कि मनुष्य का मनुष्य न होना ही सफलता व उपलब्धि है। जो मनुष्यत्व से जितना परे वह उतना ही सफल है।
*——विवेक उमराव——*
की लगभग 7 वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक
*”मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर”* से
{मूल्य लगभग 6500 रुपए प्रति, (भारत में लगभग 2500 रुपए प्रति)}

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