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सबका साथ सबका विकास

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सबका साथ सबका विकास

सबका विश्वास के साथ ही, “सबकी सुरक्षा” भी सरकार का दायित्व है या नहीं?
जब सरकार नहीं थी, तब हमने सुना था कि मजबूत सरकार बन जाए तो कोई भेदभाव या तुष्टिकरण नहीं होगा और सबको पूरी सुरक्षा मिलेगी। अब पूर्ण बहुमत वाली सरकार है, पर कुछ लोग अब बता रहे हैं कि समाज अपनी सुरक्षा के लिए खुद को स्वयं तैयार करे, हर बात के लिए पुलिस और प्रशासन के भरोसे न बैठे क्योंकि पुलिस हर घर की पहरेदारी नहीं कर सकती।
लेकिन यदि लोग स्वयं आत्मरक्षा का प्रयास भी करते हैं तो वही पुलिस आकर सबसे पहले उन्हें उठा ले जाती है।
ऐसा कन्फ्यूजन सबके लिए घातक है।
यह बड़ी विचित्र और आपत्तिजनक बात है कि नागरिक सुरक्षा के मामले में सरकार लगभग निष्क्रिय बैठी हुई लगती है और उसके स्वघोषित समर्थक आम लोगों को स्वयं ही कानून अपने हाथ में लेने और हिंसा करने के लिए उकसा रहे हैं। यदि लोगों को स्वयं ही आपस में मारकाट करके विवाद निपटाने हैं, तो पुलिस और गृह विभाग क्यों बनाया गया है?
मैंने बहुत पहले भी लिखा था कि सरकार के काम बहुत अच्छे हैं, नीयत भी ठीक है लेकिन कुछ प्राथमिकताएं गलत हैं। शौचालय बनाना और स्वच्छता अभियान चलाना बहुत अच्छी बात है लेकिन केन्द्र में दो बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार लोगों ने केवल उसके लिए नहीं बनाई थी। शौचालय बनाने और नाली खोदने जैसे काम ग्राम पंचायतों और नगर पालिकाओं के माध्यम से भी हो सकते हैं।
देश का विकास आवश्यक है लेकिन सबकी सुरक्षा अनिवार्य है। बड़े बड़े पुल, हाइवे, मंदिर, कॉरीडोर सब बन रहे हैं, ये सब अच्छी बात है। लेकिन केवल भव्यता और सुंदरता से सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलती, बल्कि सुरक्षा पर खतरे और बढ़ जाते हैं। इमारत की नींव जितनी आवश्यक है, उतनी ही उसकी सुरक्षा की व्यवस्था भी आवश्यक है। इसलिए सृजन के साथ सुरक्षा पर भी उतना ही ध्यान देना अपरिहार्य है।
पिछले दो-तीन वर्षों की घटनाओं को देखकर यह विश्वास नहीं महसूस होता कि इस विषय पर सरकार का पर्याप्त ध्यान है। मुझे बहुत अधिक नहीं लिखना है क्योंकि आप सब समझदार हैं और भारत में रहने वाले तो मुझसे ज्यादा अच्छी तरह इन बातों को समझते हैं।
मुझे केवल इतना ही कहना है कि कोई भी शासक अमर नहीं है और कोई भी सरकार शाश्वत नहीं है। मैंने पिछले वर्ष भी यह आशंका जताई थी कि जिस प्रकार के लक्षण दिख रहे हैं, उससे मुझे 2024 की जीत खतरे में दिख रही है। संभव है कि चुनाव के ठीक पहले कोई तात्कालिक मुद्दा उछालकर जीत पक्की हो भी जाए, लेकिन जीतने वालों को यह तो सोचना ही चहिए कि वे केवल चुनाव जीतकर शौचालय बनवाने और प्रधान सेवक बनने आए थे या व्यवस्था को बदलकर उसके दोषों से देश को मुक्ति दिलाने आए थे?
रामायण काल में एक शासन व्यवस्था तय हुई थी, जो रामराज्य कहलाती है। फिर आचार्य चाणक्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक शासन व्यवस्था और दंड नीति बताई। आगे मुगलों ने पुरानी व्यवस्थाओं को बदलकर अपनी पद्धतियां लागू की और फिर अंग्रेजों ने अपने कानून हम पर लादें। 1947 के बाद वाली सरकारों ने कुछ व्यवस्थाओं को जारी रखा और कुछ नई कुव्यवस्थाएं भी दीं। उन सबके लाभ हानि का हिसाब हम आज तक चुका रहे हैं। अगर इसमें सुधार करना है तो उस व्यवस्था की समीक्षा और सुधार इस पूर्ण बहुमत वाली सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए थी। यह ठीक है कि कोई काम रातों रात नहीं हो सकता, लेकिन यह भी सत्य है कि इस सरकार का एक दशक अब लगभग पूरा होने वाला है। कई राज्यों में तो पूर्ण बहुमत वाली सरकारें कई दशकों से चल रही हैं।
इन सबके अलावा दिल्ली की प्रशासनिक संचरना तो आज तक अधिकांश लोगों को समझ नहीं आ पाई है। मैं भी उनमें शामिल हूं। दिल्ली में केवल एक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दो-चार नगर निगम होने चाहिए। लेकिन वहां सात सांसद, सत्तर विधायक, ढेरों पार्षद, अनेक नगर निगम, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, उपराज्यपाल आदि क्यों हैं और कौन किसके अधीन क्या काम करता है, यह मेरे जैसों के लिए एक अबूझ पहेली है। उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि इतना भयंकर तामझाम होते हुए भी राष्ट्रीय राजधानी इतनी असुरक्षित क्यों है और उसको ठीक करना किसकी जिम्मेदारी है?
कृपया इस बारे में कागजी ज्ञान न दें कि किन दंगों में कितने लोगों पर चार्जशीट दाखिल हुई है और कितनों की जमानत याचिका अभी विचाराधीन है। पुलिस चार्जशीट दायर करती है लेकिन निर्णय माननीय सुनाते हैं और उनके अविश्वसनीय निर्णय हम सबने कई बार देखे हैं।
हर बार की तरह रेत में सिर दबाकर मुद्दों से भागने या तोते जैसे रटे रटाए तर्क देकर चर्चा की गुंजाइश खत्म करने के लिए हर कोई स्वतंत्र है। लेकिन यह भी याद रखें कि वह स्वतंत्रता तभी तक उपलब्ध है, जब तक असुरक्षा आपके घर तक नहीं पहुंची है। अन्यथा मैं तो कुछ सालों बाद पीछे देखकर खुद को समझा लूंगा कि मैंने अनजाने में ही कुछ वर्ष पूर्व ही भारत से पलायन कर लिया था, पर मेरी चिंता यह है कि हर किसी को पलायन के लिए भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाएगा। सादर!

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