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सरोकारनामा : एक औरत की जेल डायरी

Dayanand Panday

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कैदी क्या होते हैं आज इस का एहसास हो रहा है। आप सब काम करते हैं बस अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकते। जब चाहें तब हाल के बाहर नहीं जा सकते। बाक़ी रहना खाना सब अपने हिसाब से कर ही रहे हैं लेकिन फिर भी एक घबराहट हमेशा रहती है। न चाहते हुए जिन से मन न मिले उन के बीच में रहना पड़ता है। लेकिन अब लगता है कि शायद हॉस्टल इसी का नाम है लेकिन वहां बस आप कैद नहीं होते और आप की एक रिस्पेक्ट होती है। यहां तो साले को कोई इज्जत ही नहीं है सारे मुलजिमों के बीच रहो। कभी-कभी ए.डी.जे. वगैरह आते हैं तो सारे मुलजिम एक लाइन में खड़े होते हैं। वो पूछते हैं कि कोई दिक्क़त तो नहीं है? इतनी शर्मिंदगी होती है कि हम तो आंख ही नहीं उठाते कि क्या सोचते होंगे ये लोग कि 420 में आए हैं हम।
एक और सी.बी.आई की है सुनाली 420 में ही है। बैंक का लोन है। वो पति पत्नी दोनों अंदर हैं। और एक नौ साल का बच्चा बाहर है। और पति ने भी उस पर डायवोर्स फाइल कर रखा है। उसे 15 महीने हो गए हैं जेल में। सोचो वो कैसे रहती होगी? उसने अपने आप को पूरी तरह पूजा में लगा लिया है। भगवान में ही रमी रहती है। फिर अपने पर सब्र करते हैं कि हमारे बच्चे तो बड़े हैं। बुलबुल बेटा बुरा न मानना लेकिन सच यही है कि चिंता मुदित की ही होती है तुम तो मेरा बहुत ही समझदार बच्चा हो मी प्रॉऊड आफ यू। तुमने मुझे आज तक कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया। इमोशनली भी तुम मजबूत हो। ये छोटा ही रह गया है। लेकिन चलो इन हालात में ये भी मजबूत हो जाएगा तो दुनियादारी आ ही जाएगी। आगे की ज़िंदगी में संभल ही जाएगा। पापा बड़े परेशान होते हैं कि बच्चे कैसे मैनेज कर रहे होंगे। हमने तो कह दिया कि अपनी मर्जी से तुम बैरक से भी नहीं निकल सकते और चिंता दूर बैठे बच्चों की। जहां हो वहां की सोचो। यहां अपनी व्यवस्था बनाओ ताकि जितने दिन यहां हो दिक्क़त न हो। वैसे रमेश चाचा तो हैं ही। तो कहते हैं उनकी ज़मानत हो जाएगी वो चले जाएंगे। अरे उन की हो जाएगी तो धीरे-धीरे सब की ही होगी। सभी चले जाएंगे। वैसे शुरुआत हो गई है। मेरठ के एक डाक्टर की ज़मानत हुई है और बिना पेमेंट बेसिस के। तो अब शुरू तो हुई एन.आर.एच.एम. की जमानत।
कल तो हिम्मत ही नहीं थी कुछ लिखने की। आज भी समझ नहीं आ रहा। गप्पू की शक्ल आंख के सामने से हट ही नहीं रही। हम सब ने क्या खोया है शब्दों में कहा नहीं जा सकता। लेकिन कल से मन और विरक्त हो गया है। एक पल को तो खुदगर्ज हुए हम कि अब हमारी ज़मानत कौन कराएगा। पता नहीं कितना समय यहां और रहना पड़ेगा लेकिन फिर दिल ने खुद को ही समझा लिया कि कोई फायदा नहीं है परेशान होने से जो होना है वही होगा और जब होना है तभी होगा किसी की मर्जी नहीं चलती। ‘‘अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर को है उधर के हम हैं।’’ शायद हमारा जेल में आना सही ही रहा नहीं तो ये झटका हम कैसे सहते? पहले हम कहते थे भगवान दोनों हाथ तोड़ डाले फिर जेल में डाल दिया। इस से बुरा भी कुछ होगा क्या? देखो हो गया और भी बुरा। गप्पू बेचारा बहुत परेशान होगा। अब सब कुछ उसे अकेले ही मैनेज करना है निर्णय भी लेने हैं सारे। हम दोनों में से कोई एक भी बाहर होता तो हालात कुछ क़ाबू में होते।
एक महीने में कुछ-कुछ मन लगने लगा था, कल से सब फिर बिखर गया है। कहीं भी मन नहीं लग रहा है कुछ भी समझ नहीं आ रहा। दो एक दिन में धीरे-धीरे सब्र भी आ जाएगा।

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