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सरोकारनामा – वे जो हारे हुए है भाग 1

Dayanand Panday

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पानी को लेकर लखनऊ में एक सेमिनार में वह उपस्थित है। पर्यावरणविद हैं, अफ़सर हैं, समाजसेवी हैं, आयोजक हैं, आयोजक के कारिंदे हैं। लंच है, नाश्ता है, कवरेज के लिए प्रेस है। बस श्रोता नहीं हैं और लोगों की आंखों में पानी भी। फिर भी आनंद बता रहा है कि नदियों के पानी पर पहला हक़ समुद्र का है। ये नहरें, ये डैम, ये बिजली परियोजनाएं सभी पर्यावरण और पानी को नष्ट कर रही हैं। नदियों में मछलियां मर रही हैं। बताइए अब गंगा का पानी पी कर लोग मर रहे हैं। कछुवा, मगरमच्छ ग़ायब हो रहे हैं। कैसे पानी साफ़ हो? तिस पर फ़ैक्ट्रियों का कचरा, शहरों के नाले, सीवर। जली-अधजली लाशें। सारी पर्यावरण एजेंसियां, सरकारी मशीनरी सो रही है। लोग कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को ले कर होगा। मैं कहता हूं हरगिज़ नहीं। अरे पानी होगा तब न इस के लिए युद्ध या विश्व युद्ध होगा? तो मसला पानी नहीं हमारी सोच है। हम अगर यह जानते हैं कि बच्चे को फ़लां स्कूल में भेजेंगे तो अच्छा पढ़ेगा। अगर फ़लां ट्रेन से फ़लां जगह जाएंगे तो जल्दी पहुंचेंगे। फ़लां से मिल लेंगे तो फ़लां काम जल्दी हो जाएगा। तो हम यह क्यों नहीं सोच पाते कि साफ़ पानी हमारे जीवन को सुंदर बनाएगा? जल ही जीवन है हम आखि़र कैसे भूल गए? अब तो एक व्यवसायी टुल्लू बेचता है और टुल्लू के विज्ञापन में बड़ा-बड़ा लिखता है कि पानी बचाइए! सेव वाटर! हद है आप टुल्लू भी चलाएंगे और पानी भी बचाएंगे? यह दोगलापन विज्ञापन में चले तो चले हमें अपने जीवन में आने से रोकना होगा। शहरों में भू-जल स्तर लगातार गिर रहा है। खेतों में डाली जा रही खाद हमारी फ़सलों को तो बीमार कर ही रही हैं, पानी को भी ज़हरीला बना रही है। शहरों में तो आप एक्वागार्ड छोड़ कर आर.ओ. लगा रहे हैं। बताइए अब एक्वागार्ड भी पानी को साफ़ नहीं कर पा रहा तो आप आर.ओ. लगा रहे हैं शहरों में। पर गांवों में? और शहरी गरीबों के यहां? वहां क्या करेंगे? वहां कैसे बचाएंगे लोगों की किडनी और लीवर? हमें सोचना होगा कि हम लोक कल्याणकारी राज्य में रह रहे हैं कि व्यवसायी राज्य में? यह एक साथ आबकारी विभाग और मद्य निषेध विभाग क्यों चल रहे हैं? चोर से कहो चोरी करो और सिपाही से कहो पकड़ो! यह खेल कब तक चलेगा? क्या यह लोक कल्याणकारी राज्य है? गांधी का चश्मा, घड़ी, चप्पल, कटोरी जैसी चीजें नीलाम होती हैं और अख़बारों में ख़बर छपती है कि विजय माल्या ने बचा ली देश की लाज! यह क्या है? गांधी को कभी मुन्ना भाई के भरोसे हम छोड़ देते हैं कभी शराब सम्राट विजय माल्या के भरोसे? गांधी क्या इतनी गिरी और बिकाऊ वस्तु हो गए हैं? आप सभी को याद होगा कुछ बरस पहले तालिबानियों ने जेहाद के नाम पर अफ़गानिस्तान में बुद्ध की विशाल प्रतिमा डायनामाइट लगा कर तोड़ डाली थी क्रमशः। पूरी दुनिया ने गुहार की, निंदा की तालिबानों और अफ़गानिस्तान से। पर उन्हों ने किसी की नहीं मानी। चीन जो अपने को बौद्धिस्ट मानता है और दुनिया का महाबली भी, वह भी इस पूरे मामले की सिर्फ़ निंदा कर के रह गया।
थाईलैंड, अमरीका, भारत आदि सभी निंदा कर के रह गए। लड़े नहीं। प्रतिहिंसा नहीं की। तो यह बुद्ध की जीत थी, उन की अहिंसा की जीत थी। विजय माल्या भी गांधी की यह प्रतीकात्मक चीजें न ख़रीदते तो अच्छा होता। गांधी बाज़ारवाद के खि़लाफ़ थे। गांधी को बाज़ार के हवाले कर दिया हम लोगों ने। हम हार गए, यह गांधी की हार है। तो आदरणीय मित्रो हमें अपने पानी को भी बाज़ार से निकालना होगा। ठीक वैसे ही जैसे आज की राजनीति और बाज़ार ने हमारी लोकशाही को खा लिया है। संवैधानिक संस्थाएं धूल चाटती नष्ट हो रही हैं। खरबपतियों की गिनती नौ से बढ़ कर छप्पन हो गई है और नब्बे करोड़ लोगों की कमाई बीस रुपए रोज़ की भी नहीं रह गई है। महात्मा गांधी कहते थे कि हम हर गांव का आंसू पोछेंगे। क्या ऐसे ही? हम पानी से हर चीज़ को बदलने की शुरुआत क्यों न करें? पानी जो बाज़ार के चंगुल से हम नहीं निकाल पाएंगे तो हम समूची मानवता को लगातार ज़हरीले पानी के हवाले कर दुनिया को नष्ट कर डालेंगे। लोग अब साफ़ पानी नहीं पाते तो कोक पीते हैं। यह कोक भी सोख रहा है पानी को। चेतिए। पिघलते ग्लेशियर को ग्लीसरीनी आंसुओं से धोने के बजाय हिमालयी कोशिश करनी होगी। बचाना होगा हिमालय, प्रकृति और पानी, तभी हम बचेंगे!
सेमिनार का लंच हो गया है और चर्चा चल रही है गांवों में आ गए बाघ की जो अब आदमख़ोर होता जा रहा है। चर्चा इस पर भी है कि मंत्री जी भी बाघ खोज रहे हैं। आनंद कहता है यही तो दुविधा है कि मंत्री शिकारी का काम कर अख़बारों में फ़ोटो छपवा रहे हैं। अब मंत्री शिकारी तो हैं नहीं कि बाघ पकड़ लेंगे? शिकारी का काम मंत्री करेंगे तो मंत्री का काम कौन करेगा? लोग अपना-अपना काम भूलते जा रहे हैं। मंत्री जी को तो यह सोचना चाहिए कि जंगलों की कटान वह कैसे रोक सकते हैं ताकि बाघ जंगल छोड़ कर मैदान में न आएं। पर नहीं आप हिरन मार कर खाएंगे तो बाघ आप को नहीं तो किस को खाएगा?
‘भाई साहब यह दुविधा तो आप के साथ भी है।’ आनंद का कंधा पकड़ कर एक आदमी कहता है।
‘माफ़ कीजिए मैं ने आप को पहचाना नहीं।’ आनंद अचकचा गया।
‘कैसे पहचानेंगे आप?’ वह बोला, ‘आप वक्ता हैं, मैं श्रोता हूं।’
‘नहीं-नहीं यह बात नहीं है।’
‘आप शायद भूल रहे हैं, मैं आप का वोटर रहा हूं।’
‘क्या बात कर रहे हैं?’ आनंद बोला, ‘आप किसी और को ढूंढ रहे हैं। मैं और चुनाव? नहीं-नहीं।’
‘अरे आप आनंद जी हैं आप हमारी यूनिवर्सिटी में………’
‘अच्छा-अच्छा छात्र संघ के चुनाव की बात कर रहे हैं आप!’ आनंद सकुचाया, ‘वह तो बीते ज़माने की बात हो गई। बाई द वे आप लखनऊ मंे ही रहते हैं?’
‘हां।’ वह बोला, ‘यहीं सचिवालय में डिप्टी सेक्रेट्री हूं।’
‘अच्छा अच्छा!’
‘आप को नहीं लगता कि आप भी दुविधा में जी रहे हैं? अंतर्विरोध में जी रहे हैं?’
‘ऐसा लगता है आप को?’
‘हां।’
‘कैसे?’
‘आप को लोकसभा या विधानसभा में होना चाहिए था। चुनावी सभाओं में होना चाहिए था। पर आप हैं कि सेमिनारों में जिं़दगी ज़ाया कर रहे हैं। यह आप की दुविधा और आप का अंतर्विरोध नहीं है तो क्या है?’
‘अरे आप तो ऐसे कह रहे हैं कि जैसे कोई अपराध कर रहा हूं मैं?’
‘जी बिलकुल!’
‘आप को लगता है कि आज की राजनीति में मैं कहीं फ़िट हो सकता हूं?’
‘एक समय आप ही कहा करते थे कि राजनीति में पढ़े लिखे लोगों को आना चाहिए।’
‘अरे वह सब बातें तो अब किताबी बातें हो गई हैं।’ आनंद बोला, ‘अब हमारे जैसे लोग जी ले रहे हैं इस समाज में यही बहुत है।’
‘तो मैं मान लूं कि मैं अब एक पराजित आनंद से मिल रहा हूं।’
‘इस में भी कोई संदेह बाक़ी रह गया है क्या?’ आनंद ने धीरे से कहा।
‘आप ने तो आज निराश कर दिया?’
‘कैसे?’ आनंद ने प्रति प्रश्न किया, ‘आप अपने को पढ़ा लिखा मानते हैं?’
‘हां, मानता तो हूं।’ वह व्यक्ति बोला।
‘और आप यह भी चाहते हैं कि पढ़े लिखे लोग राजनीति में रहें।’
‘हां।’
‘तो अपनी नौकरी छोड़ कर क्यों नहीं आ जाते राजनीति में?’
‘राजनीति मेरा कैरियर नहीं है। न कभी की राजनीति। तो अब कैसे राजनीति कर सकता हूं?’
‘क्यों ये अतीक़ अहमद, मुख़्तार अंसारी, डी.पी. यादव, हरिशंकर तिवारी, तसलीमुद्दीन, पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, अमरमणि त्रिपाठी जैसों ने तो कभी यह सवाल नहीं पूछा, बबलू श्रीवास्तव और गावली जैसों ने नहीं पूछा कि कभी राजनीति नहीं की, कैसे करूं?’
वह चुप रहा।
‘अपनी बीवी के साथ सोने के पहले किसी और औरत के साथ सोए थे कभी। ली थी कभी सेक्स की ट्रेनिंग?’
‘नहीं तो!’ आनंद के ऐसे सवालों से वह अचकचा गया।
‘तो फिर?’ आनंद बोला, ‘राजनीति आप क्यों नहीं कर सकते?’
‘नहीं कर सकता।’
‘तो मित्र यही बात मैं कह रहा हूं तो आप को पराजित आनंद मुझ में दिखाई दे रहा है।’ वह बोला, ‘सच यही है कि हम सभी पराजित हैं।’
‘नहीं मैं पराजित नहीं हूं।’ वह व्यक्ति बोला, ‘बस पारिवारिक ज़िम्मेदारियां ख़त्म हो जाएं। बच्चे पढ़ लिख लें, शादी ब्याह हो जाए तो सोचता हूं।’
‘यह भी जोड़िए न कि ज़रा रिटायर हो जाऊं, पी.एफ़, ग्रेच्युटी और पेंशन हो जाए तब सोचता हूं।’
‘हां-हां, यह भी।’
‘तब आप राजनीति के लायक़ बचेंगे भी?’ आनंद बोला, ‘बचेंगे भी तो राजनीति पर बतियाने और नाक भों सिकोड़ने के लिए ही।’
सेमिनार का दूसरा सत्र शुरू होने का समय हो गया। सो आनंद ने उन सज्जन का नाम, पता, नंबर लिया, अपना पता, नंबर दिया और कहा कि, ‘मेरी बात का बुरा मत मानिएगा हम लोग फिर मिलेंगे-बतियाएंगे।’ उस ने जैसे जोड़ा, ‘दरअसल ज़िम्मेदारियों और सुविधाओं में जीने की आदत आदमी को नपुंसक बना देती है। और कायर भी।’
‘बिन पानी सब सून’ की अनंत कथा फिर शुरू हो जाती है। बीच पानी की कथा में उसे प्यास लग जाती है। वह पानी पीने के लिए उठ कर बाहर आ जाता है। और देखता है कि भीतर हाल से अपेक्षाकृत ज़्यादा लोग बाहर हैं। यह तो खै़र हर सेमिनार में वह पाता रहा है कि भीतर एक सेमिनार चल रहा होता है और बाहर कई-कई।
पानी पीते समय वह सोचता है आखि़र वह इस तरह क्यों पराजित हो गया है? क्या यह सत्ता की प्यास की पराजय है? वह ख़ुद से ही पूछता है। या ज़िम्मेदारियों और सुविधाओं में जीने की आदत ने उसे भी नपुंसक बना दिया है? वह राजनीति में सर्वाइव नहीं कर पाया और पीछे रह गया? या फिर उस में राजनीति के जर्म्स नहीं थे सिर्फ़ बोलने के जर्म्स थे सो वह सेमिनारी वक्ता बन कर रह गया। राजनीति में भी होता तो शायद पार्टी का प्रवक्ता बन कर रहता या थिंक टैंक हो जाता किसी बरगदी नेता का? राजनीतिक माफ़िया तत्व उस में कभी थे ही नहीं। उसे जब भी सूझा विचारक तत्व ही सूझा। और इस विचारहीन राजनीति के दौर में वह पराजित नहीं होगा तो कौन होगा। उस का सिर चौखट से नहीं टकराएगा तो क्या मुलायम, मायावती, सोनिया, आडवाणी, मोदी और राहुल का टकराएगा?
बताइए क्या रंग हो गया है राजनीति का? विद्यार्थी जीवन के समय का एक फ़िल्मी गाना उसे याद आ गया है- पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिस में मिला दो लगे उस जैसा! अब तो राजनीति ही नहीं पानी भी बदरंग हो चला है। कैसे और किस में मिलाया जाए जो राजनीति भी साफ़ हो और पानी भी। क्या पानी और राजनीति का भी कोई आपसी रिश्ता है? साफ़-साफ़ होने का और फिर बदरंग-बदरंग होने का?
ज़रूर होगा।
वह फिर से आ कर हाल में बैठ गया है। एक साइंटिस्ट पानी में प्रदूषण के आंकड़ों की फ़ेहरिस्त परोस रहे हैं जो बहुत ही भयावह तसवीर पेश कर रही है। वह डर जाता है। डर जाता है और पूछता है अपने आप से कि क्या राजनीति में भी प्रदूषण के आंकड़े कोई समाजिक या राजनीतिक विज्ञानी बटोर रहा होगा? जल प्रदूषण मापने के लिए तो वैज्ञानिकों के पास निश्चित विधि और साज़ो सामान हैं। पर राजनीतिक प्रदूषण मापने के लिए कोई वैज्ञानिक तरीक़ा है क्या हमारे पास?
नहीं है।
यह सोच कर ही वह माथा पीट लेता है।
यह कौन सी प्यास है? भीष्म पितामह वाली तो नहीं है। सिगरेट के धुएं, डोसे की तीखी गंध और काफ़ी के गर्म भाप की तासीर में आज काफ़ी हाउस में कुछ समाजवादी इकट्ठे हो गए हैं। आनंद का एक पत्रकार मित्र सुजीत उस से धीरे से कहता है कि, ‘आज तो हम भी मेढ़क तौलने का मज़ा लेंगे!’
‘क्या मतलब?’
‘अरे, जहां चार-छह-दस समाजवादी इकट्ठे हो जाएं वहां उन को किसी बिंदु पर एक कर लेना तराज़ू में मेढक तौलना ही तो है। एक मानेगा, दूसरा उछलेगा, तीसरा मानेगा, चौथा मानेगा पांचवां उछल जाएगा। कभी कोई दसो मेढक एक साथ नहीं तौल पाएगा।’
‘तो तुम हम सब को मेढक समझते हो?’ आनंद किंचित मुसकुरा कर पूछता है और सिगरेट का धुआं फिर धीरे-धीरे छोड़ता है।
‘मेढ़क?’ वह पलटते हुए कहता है यह तो मैं ने नहीं कहा। और हंसने लगता है? और कहता है, ‘छोड़िए भी। अभी मैं कहीं पढ़ रहा था कि राम मनोहर लेाहिया ने कहीं लिखा है भारत के तीन स्वप्न हैं; राम, कृष्ण और शिव!’
‘हां, लिखा तो है!’
‘पर आज के समाजवादी मुलायम सिंह यादव के तो लगता है तीन स्वप्न हैं; सत्ता, पैसा और औरत।’
‘ना।’ एक दूसरे समाजवादी ने हस्तक्षेप किया, ‘मुलायम सिंह यादव के तीन नहीं चार स्वप्न हैं; सत्ता, पैसा, औरत और अमर सिंह।’
‘फिर अमिताभ बच्चन को क्यों छोड़ दे रहे हो भाई!’ राय साहब जो नियमित काफ़ी हाउस का सेवन करते हैं सिगरेट फूंकते हुए बोले।
‘ऐसे तो फिर कई स्वप्न उन के जुड़ते जाएंगे।’ वर्मा जी जो कभी मुलायम सिंह के बहुत क़रीबी होने का दावा करते फिरते थे बोले।
‘अरे यार बात लोहिया जी की कर रहे थे वही करो। कहां राजनीतिक व्यवसायियों की बात ले बैठे।’ मधुसूदन जी भनभनाए। मधुसूदन जी सुलझे हुए लोगों में से जाने जाते हैं और बहुत कम बोलते हैं। अनावश्यक तो हरगिज़ नहीं। वैसे भी वह बोलने के लिए नहीं सुनने के लिए जाने जाते हैं। अकसर उकताए हुए लोग, आजिज़ आए लोग उन के पास आ कर बैठ जाते हैं और जितनी भड़ास, जितना फ्रस्ट्रेशन उन के दिल में होता है मधुसूदन जी के पास जा कर दिल का गु़बार तो निकाल देते हैं और मधुसूदन जी उन गु़बारों को गु़ब्बारे की तरह उड़वा देते हैं। आदमी शांत हो जाता है। ऐसे जैसे कोई नटखट बच्चा सो जाता है, ठीक वैसी ही शांति! निर्मल शांति। और आज मधुसूदन जी ऐसी बात पर सिर्फ़ ऐतराज़ नहीं जता रहे, एक शेर भी सुना रहे हैं; ‘रंग-बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में।’
‘क्या बात है मधुसूदन जी! आज तो आप ने कमाल कर दिया।’ आनंद बोला।
‘कमाल मैं नहीं, आप लोग कर रहे हैं। फ़ालतू लोगों के बारे में बात कर के क्यों समय नष्ट कर रहे हैं?’
‘मधुसूदन जी हम लोग अपनी राजनीति और अपने समाज की व्याधियों-बीमारियों के बारे में अब बात भी नहीं कर सकते?’ वर्मा जी ने पूछा।
‘किस-किस बीमारी के बारे में बात करेंगे आप लोग?’ मधुसूदन जी जैसे फटे पड़े जा रहे थे, ‘पाखंडी, नक़ली और भ्रष्ट जब हमारा समूचा समाज ही हो चला हो तो किस-किस बीमारी के बारे में बात करेंगे? बीमारी के बारे में बात करने से पूरा माहौल बीमार हो जाता है। मत कीजिए!’
‘तो क्या अगर हमारे हाथ में कोढ़ हो गया है तो उसे कपड़े से ढंक देने से वह ठीक हो जाएगा?’ वर्मा जी ने मधुसूदन जी को लगभग घेर लिया।
‘नहीं ठीक होगा। पर सिर्फ़ कोढ़ है, कोढ़ है कहने से भी ठीक नहीं होगा।’ मधुसूदन जी बोले, ‘दवा देनी होगी।’
‘तो मधुसूदन जी, हम लोग यही कर रहे हैं। बीमारी का ब्यौरा बटोरने के बाद ही तो दवा तजवीज़ करेंगे?’
‘यहां काफ़ी हाउस में बैठ कर?’ मधुसूदन जी ने तरेरा सभी को, ‘कि ड्राइंगरूम में बैठ कर या सेमिनारों में बोल कर? क्यों आनंद जी?’
आनंद चुप रहा। समझ गया कि मधुसूदन जी आज कहीं गहरे आहत हैं। वरना वह आज यूं न बोलते। शेर नहीं सुनाते रंग बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में। आनंद ने ग़ौर किया कि वह ही नहीं मधुसूदन जी के तंज़ पर सभी के सभी चुप हैं। पर मधुसूदन जी चुप नहीं थे, ‘अरे जाइए आप लोग जनता के बीच। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि राजनीति पर अब अपराधियों और भ्रष्ट लोगों का क़ब्ज़ा है सो हम लोग दुबके पड़े हैं। यह हिप्पोक्रेसी बंद कीजिए आप लोग।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘बताइए भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स तक लाइन से रिटायर हो कर राजनीति में दाखि़ला ले रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं। और आप लोग हैं कि काफ़ी हाउस में बैठ कर चोर-सिपाही खेल रहे हैं। अरे जाइए जनता में बताइए इन सब की करतूत।’
‘क्या बताएं मधुसूदन जी?’ बड़ी देर से चुप बैठे वर्मा जी बोले, ‘कि जिस संचय के खि़लाफ़ थे लोहिया जी, उन्हीं का अनुयायी अब खरबपति बन कर सी.बी.आई. जांच फेस कर रहा है। और सी.बी.आई. कहीं लटका न दे इस लिए गै़र कांग्रेसवाद का नारा भूल कर सारे अपमान पी कर कांग्रेस के आगे घुटने टेके हुए है। भीख मांग रहा है। एक दल्ले अमर सिंह के फंदे में फंस कर फ़िल्मी हीरो हीरोइनों को चुनाव लड़वा रहा है, सारे समाजवादियों को पार्टी से बाहर धकेल चुका है? ख़ुद भी कभी हिस्ट्रशीटर था, सारे गवाहों, पक्षकारों को मरवा कर अब पोलिटिकल हो गया है। पिछड़ों को एक करने के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराने वालों को अपने बगल में बिठा कर घूम रहा है। अमरीका परस्त हो चला है?’
‘बिलकुल!’ मधुसूदन जी ने बड़े ठसके से कहा।
‘अरे मधुसूदन जी निरे बबुआ हैं आप?’ वर्मा जी बोले, ‘अभी जितनी और जो बातें मैं ने आप से कहीं क्या कोई नई बात कही क्या? हम आप यह सब जानते हैं और आप समझते हैं कि आप की यह महान जनता कुछ नहीं जानती?’
अब मधुसूदन जी चुप थे।
‘अरे जनता सब जानती है।’ वर्मा जी चालू थे, ‘ये मोटी खाल वाले सिर्फ़ तमाम पार्टियों के नेता भर नहीं हैं। यह जो हमारी महान जनता जो है न उस की खाल इन नेताओं से भी ज़्यादा मोटी है। जानती वह सब है फिर भी इन्हीं भ्रष्ट और गुंडों को वोट दे कर विधानसभा और लोकसभा भेजती है। और नतीजे में हम आप शेर सुनाते हैं-रंग-बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली मंे। यह रंग-बिरंगे सांप हमारी जनता ही पालती पोसती है। और दोष मढ़ती रहती है दूसरों पर।’
‘अच्छा राजनीति छोड़िए। सिनेमा पर आइए। एक से एक बे सिर पैर की कहानियां, चार सौ बीसी से भरे डिटेल्स वाली फ़िल्में सुपर-डुपर हुई जा रही हैं तो अपनी इसी महान जनता की ही तो बदौलत!’ वर्मा जी अब पूरा नहा-धो कर मधुसूदन जी पर पिल पड़े थे, ‘फ़िल्में भी छोड़िए इलेक्ट्रानिक चैनलों पर आइए। अवैध संबंधों और बे सिर पैर की कामेडी से भरे सीरियलों की कहानियां साल भर बाद भी वहीं की वहीं खड़ी मिलती हैं और हमारी महान जनता उन्हें देख-देख उन की टी.आर.पी. बढ़ाती रहती है। न्यूज़ चैनलों की तो महिमा और बड़ी है। न्यूज़ नहीं है, उन के यहां बाक़ी सब है। भूत प्रेत है, अपराध है, सीरियलों के झगड़े हैं और दिन रात चलने वाली चार ख़बरों का न्यूज़ ब्रेक है। तो यह सब किस की बदौलत है?’ वर्मा जी बोले, ‘हमारी महान जनता की बदौलत है मधुसूदन जी!’
‘क्या तभी से मधुसूदन जी, मधुसूदन जी लगा रखा है वर्मा जी। अब इस में बेचारे ये क्या करें?’ राय साहब बोले।
मधुसूदन जी कुछ बोले नहीं। चुपचाप उठे और काफ़ी हाउस से जाने लगे।
‘कोई रोको भी उन्हें।’ आनंद खुसफुसाया।
पर किसी ने उन्हें रोका नहीं। वह चले गए।
‘तो बात मीडिया की हो रही थी।’ वर्मा जी पत्रकार सुजीत की ओर मुख़ातिब थे, ‘और तुम चुप थे?’
‘तो क्या करता?’
‘मीडिया का बचाव करते।’
‘क्या ख़ाक करता।’ सुजीत भन्नाया, ‘मीडिया को तो जितना भी कोसा जाए कम है।’
‘क्या?’ राय साहब ने जैसे मुंह बा दिया।
‘हां राय साहब!’ सुजीत बोला, ‘मीडिया अब मीडिया नहीं, एक डिपार्टमेंटल स्टोर है, जाइए जो चाहिए ख़रीद लीजिए।’
‘मतलब?’
‘यह जो तमाम तांत्रिक, ज्योतिषी चैनलों पर आ रहे हैं, आप क्या समझते हैं यह सब सचमुच अपने सबजेक्ट के एक्सपर्ट हैं?’
‘हां तो?’
‘कोई एक्सपर्ट-वोक्सपर्ट नहीं हैं। सब टाइम और स्लाट ख़रीदते हैं चैनल वालों से। वह चाहे किसी धार्मिक चैनल पर हों या न्यूज़ चैनल पर। अपने ख़र्चे से पूरा प्रोग्राम शूट करते हैं, चैनल वालों से टाइम बुक करते हैं। वह चाहे कोई
बापू हो, कोई स्वामी हों, कोई तांत्रिक या कोई ज्योतिषी।’
‘यह क्या हो रहा है मीडिया में?’ वर्मा जी खदबदाए।
‘यही नहीं आज कल तो तमाम नेता, अभिनेता, खिलाड़ी अपना इंटरव्यू करवाने या अपनी फ़ोटो वाली फ़ुटेज दिखाने के लिए भरपूर पैसा ख़रचते हैं।’
‘मतलब सब कुछ प्रायोजित!’ राय साहब ने फिर मुंह बा दिया।
‘जी हां, प्रायोजित!’ सुजीत बोला, ‘आज कल की सेलीब्रेटी आखि़र कौन है? अमिताभ बच्चन, शाहरुख, अमर सिंह, सचिन तेंदुलकर, राखी सावंत जैसे फ़िल्मी लोग या खिलाड़ी।’ सुजीत बोला, ‘‘आखिर यह सेलीब्रेटी हमारे चैनल ही तो गढ़ रहे हैं? पैसा ख़र्च कीजिए राय साहब आप अमर सिंह से बड़े नेता बन जाइए।’
‘क्या बात कर रहे हो?’ राय साहब बिदके, ‘अब यह दिन आ गया है कि मैं पैसा ख़र्च कर के नेता बनूंगा। अरे गांव जा कर खेती-बाड़ी कर लूंगा। मूत दूंगा ऐसी नेतागिरी पर!’
‘अरे राय साहब आप और आप जैसे लोग अगर ऐसे ही अड़े रहे तो लोग आप की राजनीति पर अभी छुप छुपा कर मूत रहे हैं, बाद में खुल्लमखुल्ला मूतने लगेंगे।’ सुजीत मुसकुराते हुए बोला, ‘सुधर जाइए राय साहब और अपने साथियों को भी सुधारिए।’
‘तो अब तुम हम को राजनीति का ककहरा सिखाओगे?’ राय साहब फिर बिदके।
‘हम नहीं ये चैनल सिखाएंगे।’
‘इन चैनलों से देश तो नहीं चल रहा?’
‘फ़िलहाल तो चल रहा है राय साहब!’ सुजीत बोला, ‘अच्छा आप अभिनव बिंद्रा को
जानते हैं?’
‘क्यों?’
‘नहीं, जानते हैं कि नहीं?’
‘कौन है यह?’
‘देखिए मैं जानता हूं कि आप नहीं जानते होंगे। सुजीत बोला, ‘देश का गौरव है अभिनव बिंद्रा लेकिन चैनलों का गढ़ा सेलीब्रेटी नहीं है।’
‘बताओगे भी कि कौन है?’ राय साहब भनभनाए, ‘कि पहाड़ा ही पढ़ाते रहोगे?’
‘पिछले ओलंपिक में निशानेबाज़ी में गोल्ड मेडल लाया था।’ सुजीत बोला, ‘देश में पहला व्यक्ति जो गोल्ड मेडल ओलंपिक से लाया। लेकिन आप या बहुतायत लोग नहीं जानते क्यों कि चैनल वाले इस का खांसी ज़ुकाम नहीं दिखाते।
क्यों कि यह सब दिखाने के लिए वह चैनलों को पैसा नहीं परोसता।’
‘तो बात यहां तक पहुंच गई है।’ वर्मा जी ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।
‘अच्छा आप यह बताइए कि एक अभिनेता अपने घर से नंगे पांव मंदिर जा रहा है, या नैनीताल अपने पुराने स्कूल जा रहा है या ऐसे ही कुछ और कर रहा है और चैनल वाले आधे-आधे घंटे का स्पेशल कार्यक्रम दिखाते हैं तो कैसे? क्या सपना देख कर? आप मंदिर जा रहे हैं कि स्कूल? भाई लोग मीडिया टीम अरंेज करते हैं, लाद के अमुक जगह तक ले जाते हैं, पैसा ख़र्च कर स्लाट ख़रीदते हैं, देख रही है जनता। क्यों कि आप यह दिखाना चाह रहे हैं। पर आप के बेटे की शादी होती है वह फु़टेज नहीं दिखाते चैनल वाले क्यों कि आप नहीं देते। पर चैनल वाले एक फ़िल्म की शादी वाली क्लिपिंग दिखा-दिखा कर अपने श्रद्धालु दर्शकों का पेट भरते हैं। हद है!’ सुजीत बोल रहा है, ‘क्या तो आप सदी के महानायक हैं। तो महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल क्या हैं? अच्छा अभिनेताओं वाले महानायक हैं? तो मोती लाल, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, संजीव कुमार जैसे लोग घास छीलते रहे हैं जो आप सदी के महानायक बन गए?’ सुजीत ऐसे बोल रहा था गोया प्रेशर कुकर की सीटी। सीटी न हो तो कुकर फट जाए। पर वह फट भी रहा था और बोल भी रहा था। वह बोल रहा था, ‘इस महानायक के खांसी जु़काम वाली ख़बरों सहित तमाम इंटरव्यू भी जब तब चैनलों पर आते ही रहते हैं। अच्छा महानायक और रेखा की कहानी कौन नहीं जानता? पर किसी चैनल वाले के पास रेखा से जुड़ा कोई प्रश्न नहीं होता। क्यों कि महानायक को यह पसंद नहीं। हालत यह है कि कवि पिता का निधन होता है तो चैनलों पर श्रद्धांजलि कोई कवि, आलोचक नहीं अमरीशपुरी, सुभाष घई जैसे लोग देते हैं। यह क्या है?’ कह कर सुजीत ज़रा देर के लिए रुका।
पूरी महफ़िल पर ख़ामोशी तारी थी।

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