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15 अगस्त 1947 को भारत की सत्ता का हस्तांतरण हुआ और नेहरू जी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने। लेकिन तब तक भारत का संविधान नहीं बना था और न कोई चुनाव हुआ था, तो आखिर नेहरू जी को इस पद पर कैसे नियुक्त किया गया? इसे समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना पड़ेगा। सन 1940 में रामगढ़ में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ और मौलाना आज़ाद उसके अध्यक्ष बने। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और ब्रिटिश सरकार उसमें उलझी हुई थी। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू हुआ और काँग्रेस के कई प्रमुख नेताओं को अंग्रेज़ों ने जेल भेज दिया। ऐसे कई कारणों से अगले कुछ वर्षों तक काँग्रेस का अधिवेशन नहीं हो पाया और मौलाना आज़ाद ही उसके अध्यक्ष बने रहे।

 

1945 में विश्व युद्ध समाप्त हुआ। उसके बाद कांग्रेस नेताओं की भी जेल से रिहाई हो गई। उसी वर्ष ब्रिटेन के संसदीय चुनाव में विंस्टन चर्चिल की कंजर्वेटिव पार्टी की हार हुई थी और लेबर पार्टी के क्लेमेंट एटली प्रधानमंत्री बने। इसके साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेज जल्दी ही भारत छोड़कर चले जाएँगे। 1946 में भारत की प्रांतीय सभाओं के चुनाव हुए और उनमें निर्वाचित प्रतिनिधियों ने भारत की संविधान सभा के सदस्यों को चुना। इसमें कुल 389 सदस्य निर्वाचित हुए थे, जिनमें से 208 काँग्रेस के, 73 मुस्लिम लीग के और 15 अन्य दलों के थे। 93 सदस्य भारत की विभिन्न रियासतों से भेजे गए थे।

 

चूँकि काँग्रेस ही उस समय भारत का सबसे बड़ा राजनैतिक संगठन था और केन्द्रीय असेंबली में भी उसी के सबसे ज्यादा सदस्य थे, इसलिए यह भी स्पष्ट था कि अंग्रेज भारत की सत्ता काँग्रेस को ही सौंपेंगे। इसका सीधा मतलब यह था कि काँग्रेस का अध्यक्ष ही भारत का अगला प्रधानमंत्री होगा।1946 में मेरठ में काँग्रेस का अधिवेशन आयोजित हुआ। मौलाना आजाद दोबारा अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्होंने अपनी इच्छा खुलकर व्यक्त भी की थी। यह बात उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वयं लिखी है।

 

मौलाना आजाद की दावेदारी से जवाहरलाल नेहरू नाराज हो गए और उन्होंने गांधी जी से गुहार लगाई। गांधी जी ने घोषणा कर दी कि एक ही नेता को लगातार दूसरी बार अध्यक्ष पद नहीं मिलना चाहिए और इस तरह आजाद का नाम बाहर हो गया। गांधीजी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वे नेहरू जी को अध्यक्ष पद पर देखना चाहते हैं।

उन दिनों काँग्रेस अध्यक्ष का चुनाव प्रदेश काँग्रेस कमिटियों के नामांकन से होता था। देश में तब 15 प्रांत थे। उनमें से 12 प्रांतों ने सरदार पटेल का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया। अन्य तीन प्रांतों ने कोई नाम प्रस्तावित नहीं किया। नेहरू जी के लिए यह बड़ी निराशा की बात थी कि एक भी काँग्रेस कमिटी ने उनका नाम प्रस्तावित नहीं किया था।

अब फिर गांधी जी ने इसमें दखल दिया और सरदार पटेल से अपना नाम वापस लेने को कह दिया। गांधी जी को मालूम था कि सरदार पटेल उनका बहुत ज्यादा सम्मान करते हैं और वे उनकी बात को मना नहीं कर सकते। उन्हें ऐसा विश्वास इसलिए भी था क्योंकि पहले भी दो बार इसी तरह गांधीजी पटेल का हक छीनकर नेहरू जी को दे चुके थे।

1928 में मोतीलाल नेहरू काँग्रेस के अध्यक्ष थे। वे अपने जीते-जी अपने बेटे जवाहर को भी काँग्रेस में स्थापित कर देना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि उनके बाद 1929 में बेटे को अध्यक्ष पद मिले। लेकिन 1929 के चुनाव में सरदार पटेल काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। मोतीलाल नेहरू ने तुरंत गांधीजी से बात की और गांधीजी ने पटेल से नाम वापस लेने को कह दिया। इस तरह 1929 में जवाहरलाल नेहरू पहली बार काँग्रेस के अध्यक्ष बने। 1930 में भी वे ही दोबारा अध्यक्ष चुने गए। 1931 में मोतीलाल नेहरू के निधन के बाद ही सरदार पटेल काँग्रेस के अध्यक्ष बन पाए। लेकिन उसके बाद फिर कभी उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया गया। एक बार 1937 में उन्हें मौका मिल रहा था, लेकिन उस बार भी गांधीजी ने हस्तक्षेप करके पटेल की बजाय नेहरू जी को अध्यक्ष बनवा दिया था।

इन पिछले अनुभवों के कारण 1946 में भी गांधीजी जानते थे कि पटेल उनकी बात नहीं टालेंगे और नेहरू जी को अध्यक्ष बन जाने देंगे। यही हुआ भी और इस तरह जवाहर लाल नेहरू फिर एक बार काँग्रेस के अध्यक्ष बन गए।

गांधीजी का यह भेदभाव देखकर काँग्रेस के कई बड़े नेता उनसे बहुत नाराज हुए थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी नाराजगी जताई भी थी, लेकिन गांधीजी से कौन बैर मोल ले सकता था?

उसी वर्ष क्लेमेंट एटली ने एक केबिनेट मिशन का गठन किया और भारत के सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए उसे भारत भेजा। उसी के द्वारा यह भी तय हुआ कि अब वायसरॉय की कार्यकारी परिषद के बजाय भारत की अंतरिम सरकार का गठन होगा और इस नई केबिनेट में केवल वायसरॉय और कमांडर-इन-चीफ के अलावा सारे भारतीय सदस्य ही रहेंगे।

उसी के अनुसार वायसरॉय लॉर्ड वेवेल ने अंतरिम सरकार की घोषणा कर दी और नेहरू को उसका प्रधानमंत्री नियुक्त किया। सितंबर में इस नई सरकार ने शपथ ली। पाकिस्तान की माँग मनवाने के लिए एक माह पहले ही 16 अगस्त 1946 को जिन्ना की मुस्लिम लीग ने डायरेक्ट एक्शन डे मनाने की घोषणा की थी। इसके कारण कलकत्ता में भीषण दंगा हुआ था और हजारों लोगों की जान गई थी। जब नई अंतरिम सरकार बनी, तो मुस्लिम लीग ने पहले इसका बहिष्कार किया था। लेकिन अपना दबाव बनाए रखने और सरकार को भीतर से नुकसान पहुँचाते रहने के इरादे से अक्टूबर में वह सरकार में शामिल हो गई।

 

नवंबर 1946 में भारत की संविधान सभा का गठन हुआ। इसका काम भारत का नया संविधान तैयार करने का था।

फरवरी 1947 में एटली ने दो महत्वपूर्ण घोषणाएँ कीं: पहली यह कि 30 जून 1948 से पहले अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएँगे और दूसरी यह कि रियासतों का भविष्य उसके बाद तय होगा। इसके साथ ही लॉर्ड माउंटबेटन को भारत का नया वायसरॉय और गवर्नर जनरल नियुक्त करके दिल्ली भेजा गया।

3 जून 1947 को माउंटबेटन ने अपनी योजना प्रस्तुत की। उसमें घोषणा की गई कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएँगे। यह भी घोषित हो गया कि देश का बँटवारा होगा और पंजाब और बंगाल के टुकड़े करके पाकिस्तान नाम से एक नया देश बनेगा। दोनों देशों में गवर्नर-जनरल की नियुक्ति होगी, जो ब्रिटेन के ताज का प्रतिनिधि होगा। रियासतों के साथ ब्रिटेन का जो समझौता था, वह भी 15 अगस्त को समाप्त हो जाएगा और उसके बाद वे भारत या पाकिस्तान में शामिल होने अथवा दोनों से अलग रहने का निर्णय कर सकती हैं।

15 जून 1947 को दिल्ली में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसमें भारत के विभाजन का प्रस्ताव रखा गया और काँग्रेस के सदस्यों ने देश के टुकड़े करने का वह प्रस्ताव पारित कर दिया। इसके बाद तय हो गया कि भारत का बँटवारा होगा और नेहरू जी स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे।

उसी के अनुसार 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण हुआ और अंग्रेज़ों ने नेहरू जी के नेतृत्व वाली सरकार को भारत की सत्ता सौंप दी।

आगे की कहानी अगले भाग में…

 

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