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भारत की स्वतंत्रता के साथ ही इसका अपना संविधान बनाना भी एक महत्वपूर्ण कार्य था। 1930 के दशक ही कांग्रेस की यह माँग रही थी कि भारत के लोगों को अपना संविधान स्वयं बनाने का अधिकार मिले। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में इस बात को याद रखना बहुत आवश्यक है कि उस समय कांग्रेस का स्वरूप आजादी के बाद वाली कांग्रेस से बहुत अलग था।

आजादी के बाद सत्ता हासिल हो जाने पर कांग्रेस के नेताओं ने लगातार यह प्रचार जारी रखा कि कांग्रेस ने ही देश को आजादी दिलाई है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि आजादी के बाद कांग्रेस केवल एक राजनैतिक पार्टी बन चुकी थी और चुनाव जीतकर सत्ता पर अधिकार बनाए रखना ही अब उसका सबसे बड़ा लक्ष्य था। इसलिए सारे स्वतंत्रता संग्राम का श्रेय स्वयं ही ले लेना और उसमें भी केवल एक-दो नेताओं को ही सबसे महान बताकर उनके लिए वोट माँगना राजनैतिक रूप से कांग्रेस के लिए लाभप्रद था। इसलिए उसके नेताओं ने जी-जान से इस बात का प्रयास किया कि लोग केवल इसी बात को सच मानें कि आजादी के लिए सब-कुछ सिर्फ़ कांग्रेस ने ही किया था।

जबकि सच्चाई यह है कि स्वतंत्रता संग्राम के समय कांग्रेस एक राजनैतिक पार्टी जैसी नहीं, बल्कि कई राजनैतिक दलों के गठबंधन जैसी थी। अंग्रेज़ों का मुकाबला करने के लिए विभिन्न विचारधाराओं वाले नेता और समूह कांग्रेस नाम के उस मंच पर एकजुट हुए थे। कई विषयों में उनकी राय एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत भी रहती थी। लेकिन फिर भी देशहित को सबसे महत्वपूर्ण मानकर वे सब नेता मिलकर काम कर रहे थे।

दूसरी ओर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों में से कोई भी कांग्रेस का सदस्य नहीं था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस से बाहर निकलकर अपनी अलग राह बनाई और आजादी हिन्द फ़ौज के माध्यम से स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया। भारतीय संविधान के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाले डॉ. आंबेडकर भी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे।

स्वतंत्रता आन्दोलन में इनमें से किसी का भी योगदान कांग्रेस के किसी भी नेता से जरा भी कम नहीं है। इसलिए यह भ्रम किसी को नहीं पालना चाहिए कि भारत को आजादी सिर्फ़ कांग्रेस के दो-चार नेताओं ने ही दिलाई थी। यह भ्रम भी किसी को नहीं पालना चाहिए कि आज की कांग्रेस पार्टी ठीक वही कांग्रेस है, जिसने स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान किया था। वास्तविकता यही है कि आजादी के पहले वाली और आजादी के बाद वाली कांग्रेस बिल्कुल अलग-अगल थी और पिछले 75 वर्षों में उस एक कांग्रेस के भी कई टुकड़े हो चुके हैं। अगले भागों में समय-समय पर उनमें से कई घटनाओं की जानकारी आपको पढ़ने को मिलेगी, तब उस पर भी चर्चा करेंगे, लेकिन अभी संविधान-निर्माण के घटनाक्रम पर वापस लौटते हैं।

द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद 1946 में ब्रिटिश सरकार इस बात पर सहमत हो गई कि भारतीयों को अपना संविधान स्वयं बनाने का अधिकार दिया जाए। उस वर्ष के प्रांतीय चुनावों को आधार बनाकर एक संविधान सभा का गठन किया गया। ब्रिटिश भारत से निर्वाचित सदस्यों के अलावा इसमें रियासतों के प्रतिनिधि भी शामिल थे। शुरू में मुस्लिम लीग ने इसका बहिष्कार किया था, लेकिन बाद में वह इसमें शामिल हुई। भारत-विभाजन के बाद पाकिस्तान का संविधान बनाने के लिए एक अलग संविधान सभा का गठन हुआ और मुस्लिम लीग फिर एक बार भारतीय संविधान सभा से अलग हो गई।

भारत की संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी। यह बहुत उल्लेखनीय और प्रशंसनीय बात है कि संविधान-सभा में सभी विचारधाराओं, प्रान्तों और हर तरह की सामाजिक पृष्ठभूमि वाले लोग थे। उनमें कुछ सदस्य नास्तिक थे, तो कुछ अत्यंत धार्मिक। कुछ लोग समाजवादी विचारधारा वाले थे, तो कुछ राजाओं और जमींदारों के समर्थक। कुछ नेता किसी विशिष्ट जाति या वर्ग के प्रतिनिधि थे, तो कुछ क़ानून के विशेषज्ञ थे। संविधान सभा में कुछ महिलाएँ भी थीं और कुछ निर्दलीय सदस्य भी थे।

इस प्रकार इसमें भारत के लगभग सभी तरह के लोगों का प्रतिनिधित्व था। लेकिन इस विविधता का यह अर्थ भी था कि उनके विचारों और धारणाओं में भी बहुत विविधता थी, जो संविधान सभा की कार्यवाही में बार-बार दिखाई भी दी। हर वर्ग के सदस्य इस बात के लिए प्रयासरत रहते थे कि उनके हितों से जुड़ा कोई मुद्दा छूट न जाए।

कुछ नेताओं का आग्रह था कि हमारा नया संविधान हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। गौहत्या पर प्रतिबंध लगना चाहिए और देश में सबके लिए एक क़ानून होना चाहिए। जबकि दूसरी ओर कुछ नेताओं ने माँग की कि जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए चुनावों में और नौकरियों में जातिगत आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। विभिन्न भाषा-भाषियों की माँग थी कि सबको अपनी मातृभाषा का उपयोग करने की छूट मिलनी चाहिए और भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। ऐसे अलग-अलग समूहों के बीच सामंजस्य बिठाना संविधान-सभा के सामने एक बड़ी चुनौती थी।

इस संविधान सभा के गठन के समय इसमें 389 सदस्य थे। जून 1947 के बाद यह संख्या घटकर 299 हो गई। उनमें भी लगभग 20 सदस्य सबसे महत्वपूर्ण थे, जिनमें से बारह के पास क़ानून की डिग्री भी थी। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू भी उनमें शामिल हैं।

संविधान सभा में नेहरू जी का पहला भाषण 13 दिसंबर को हुआ। उन्होंने संविधान की प्रस्तावना पेश की। उसके अनुसार भारत को स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य घोषित किया गया, जिसमें हर नागरिक को समानता और स्वतंत्रता दी गई। अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, दलितों आदि के हितों का ध्यान रखने की बात भी कही गई। यह उल्लेखनीय है कि संविधान की मूल प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष या सेकुलर शब्द नहीं था। वह कई वर्षों बाद 1976 में आपातकाल के दौरान गैर-कानूनी ढंग से जोड़ा गया।

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने तीन रंगों वाले झंडे को भारत का राष्ट्र-ध्वज स्वीकार किया, जिसमें केसरिया, सफेद और हरे रंग समान अनुपात में थे और बीचों-बीच नीले रंग का एक चक्र था। यही हमारा तिरंगा है।

यह सच है कि अंतरिम प्रधानमंत्री होने के नाते लगभग सभी महत्वपूर्ण विषयों का प्रस्ताव संविधान-सभा में नेहरू जी ही रखते थे। लेकिन वास्तव में उसकी सारी तैयारी सरदार पटेल के द्वारा की जाती थी। वे संविधान सभा की कई महत्वपूर्ण समितियों में शामिल थे और उनकी कार्यवाहियों में बहुत सक्रियता से हिस्सा लेते थे। ऐसी कई समितियों की रिपोर्टें तैयार करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। परस्पर विरोधी विचारों वाले सदस्यों के बीच सहमति बनाने का काम भी उनके ही जिम्मे था।

इन दोनों के अलावा संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी सबसे महत्वपूर्ण सदस्यों में से एक थे। सभा की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाना और सदस्यों के आपसी विवादों के बावजूद सदन में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना एक बड़ा कठिन कार्य था, जो उन्होंने प्रभावी ढंग से निभाया। संविधान-निर्माण के विभिन्न विषयों पर काम करने के लिए 22 समितियाँ बनी थीं, उनमें से कई समितियों के वे अध्यक्ष भी थे।

कांग्रेस के इन तीन नेताओं के अलावा डॉ. आंबेडकर भी संविधान सभा के सबसे महत्वपूर्ण सदस्यों में से थे। वे अंतरिम सरकार के क़ानून मंत्री थे और संविधान का स्वरूप तय करने के लिए बनाई गई ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष भी थे।

संविधान-निर्माण के दौरान कई महत्वपूर्ण विषय संविधान सभा के सामने आए। क्या भारत में फिर से पंचायती व्यवस्था लागू की जाए या अमरीका की राष्ट्रपति प्रणाली जैसी व्यवस्था अपनाई जाए, जिसमें एक सर्वोच्च नेता के हाथों में ही सारी शक्ति हो? क्या स्विटजरलैंड जैसी प्रणाली लागू की जाए, जिसमें केबिनेट मंत्रियों को सीधे जनता ही चुने या फिर ब्रिटेन जैसी प्रणाली को अपनाया जाए?

लंबी चर्चा और वाद-विवाद के बाद अंततः यह तय किया गया कि ब्रिटिश संसद वाला मॉडल ही भारत के लिए ठीक रहेगा। देश की संसद और प्रान्तों की विधानसभाओं के सदस्य जनता द्वारा व्यस्क मताधिकार से चुने जाएँगे। इसके अलावा संसद का एक उच्च सदन भी होगा, जिसके सदस्य विधानसभा के सदस्यों के मतदान से चुने जाएँगे।

यह भी तय हुआ कि मंत्रिमंडल का नेतृत्व प्रधानमंत्री के हाथों में रहेगा, लेकिन देश का सर्वोच्च अधिकारी राष्ट्रपति होगा। वही देश की तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर भी रहेगा। लेकिन वास्तव में यह पद केवल गरिमा का था, शक्ति का नहीं। वास्तविक शक्ति संसद और मंत्रिमंडल के पास ही रहनी थी। राष्ट्रपति के समान ही राज्यों में राज्यपालों को भूमिका सौंपी गई।

इन सबके अलावा एक स्वतंत्र चुनाव आयोग और महालेखाकार की व्यवस्था भी की गई। न्यायपालिका को राजनीति से अलग रखने के लिए यह तय हुआ कि राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश मिलकर अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय को व्यापक अधिकार दिए गए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर देश का कोई भी नागरिक न्याय पाने के लिए वहाँ अपील कर सके।

वित्तीय मामलों के लिए भी एक व्यवस्था बनाई गई। कुछ करों के मामले में पूरा अधिकार केंद्र सरकार को और कुछ मामलों में राज्य सरकारों को दिया गया। कुछ मामलों में दोनों के बीच साझा अधिकार की व्यवस्था की गई। इसी प्रकार सरकार की जिम्मेदारियों को भी संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची में बांटा गया। संघ सूची के विषयों पर क़ानून बनाने का अधिकार केवल केंद्र को था और राज्य सूची के विषयों पर केवल राज्य को अधिकार था। समवर्ती सूची के विषयों पर दोनों का अधिकार था। इसके अलावा सरकार के नीति निर्देशक तत्व और नागरिकों के मौलिक अधिकार व कर्तव्य भी बताए गए।

हालांकि भारतीय संविधान का निर्माण भारत के लिए और भारत के लोगों के लिए किया जाना था, लेकिन अधिकांश मामलों में यह लगभग पूरी तरह अन्य देशों के संविधानों की नकल जैसा था। संविधान-सभा के कई सदस्य इसके अनेक प्रावधानों से असहमत, दुःखी या नाराज़ थे। लेकिन उनकी शिकायतें कभी दूर नहीं हो पाईं।

अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर भी संविधान सभा में विस्तार से चर्चा हुई। मद्रास प्रान्त के एक मुस्लिम सदस्य ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाए जाने की मांग उठाई। लेकिन सरदार पटेल ने इसका तीखा विरोध किया। उन्होंने सदन में गरजते हुए कहा कि पृथक निर्वाचन की व्यवस्था के कारण ही अंततः देश का बंटवारा तक करना पड़ा। अब हम लोग यहाँ एक नए और एकीकृत राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं और जो लोग इसे फिर से बाँटने के लिए अलगाव का बीज बोना चाहते हैं, उनके लिए इसमें कोई स्थान नहीं है। ऐसे लोगों की जगह अब केवल पाकिस्तान में है, हिन्दुस्तान में नहीं।

1949 तक चली कई चर्चाओं के बाद अंततः मुस्लिम सदस्यों के बीच यह सहमति बनी कि आरक्षण माँगने की बजाय मुस्लिम समुदाय को एक वोट बैंक के रूप में संगठित होना चाहिए, ताकि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में उनकी पर्याप्त जनसंख्या है, वहाँ कोई भी राजनैतिक पार्टी उन्हें अनदेखा न कर सके और चुनाव में जीत-हार का फैसला उनके वोटों पर ही निर्भर रहे क्योंकि विशाल बहुसंख्यकों को भी केवल एक वोट से चुनाव में हराया जा सकता है।

इसी प्रकार महिलाओं के लिए भी आरक्षण की बात उठी थी, लेकिन अधिकांश महिला सदस्यों ने ही इसे अस्वीकार कर दिया। उनकी माँग थी कि आरक्षण की बजाय महिलाओं के लिए सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक न्याय और समानता को सुनिश्चित किया जाए।

संविधान में अल्पसंख्यकों और महिलाओं को आरक्षण नहीं दिया गया, लेकिन जातिगत आधार पर समानता लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसके लिए सरकारी नौकरियों, संसद, विधानसभाओं आदि में सीटों का आरक्षण किया गया। मंदिरों में भी सभी जातियों के लोगों को प्रवेश देने के लिए क़ानून बनाया गया।

आरक्षण के समर्थकों की माँग थी कि केवल सीटें आरक्षित करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि आरक्षित उम्मीदवारों को भर्ती के आवश्यक मापदंडों में भी छूट दी जाए। दूसरी ओर कांग्रेस के ही कई नेता आरक्षण के विरोध में भी खड़े थे। उनका तर्क था कि जातिगत आधार पर आरक्षण देने से इसका अधिकांश लाभ केवल उन जातियों के प्रभावशाली परिवार ही ले जाएँगे। इसलिए जाति की बजाय मोची, मल्लाह आदि वर्गों को आरक्षण दिया जाना चाहिए।

जयपाल सिंह नामक एक सदस्य ने आपत्ति उठाई कि आरक्षण के बारे में  विचार करते समय आदिवासी वर्ग को पूरी तरह भुला दिया गया है। वे स्वयं भी आदिवासी थे। आदिवासियों के धर्मांतरण में तेजी लाने के इरादे से ईसाई मिशनरियों ने कुछ वर्षों पूर्व उन्हें पढ़ाई का अवसर दिलाकर ऑक्सफोर्ड भेजा था। वहाँ वे ऑक्सफोर्ड की हॉकी टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के रूप में भी प्रसिद्ध हुए और 1928 के ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान भी बने। लेकिन भारत लौटने के बाद ईसाई मिशनरियों की इच्छा के अनुसार आदिवासियों के धर्मांतरण का काम करने की बजे जयपाल ने 1938 में एक आदिवासी महासभा का गठन किया और बिहार से अलग करके आदिवासियों के लिए झारखंड राज्य बनाने की माँग उठाई। संविधान सभा की बैठकों में भी उन्होंने आदिवासियों से जुड़े विषयों में कई बार आवाज उठाई और संविधान सभा ने भी आदिवासी अधिकारों के लिए एक उपसमिति का गठन किया। अंततः लंबी चर्चाओं के बाद सरकारी नौकरियों और विधायिका में आदिवासियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था तय की गई।

भाषा के मुद्दे पर भी संविधान सभा में बहुत विवाद हुआ। यहाँ तक कि सदन में कौन-सी भाषा बोली जाएगी और संविधान किस भाषा में लिखा जाएगा, इस पर भी विवाद हुआ। भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा किस भाषा को मिले, यह भी विवाद का एक बड़ा विषय था। भाषा का विवाद उसके पहले भी कई दशकों से चला आ रहा था। गांधीजी और नेहरू जी दोनों ही पिछले कई वर्षों से यह सुझाव दे रहे थे कि हिन्दी और उर्दू भाषाओं के मेल से बनी ‘हिन्दुस्तानी’ को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए क्योंकि यही एक भाषा पूरे देश की संपर्क भाषा का काम कर सकती है। लेकिन जैसे-जैसे भारत-विभाजन का आन्दोलन तीव्र होता गया, वैसे-वैसे ही हिन्दी और उर्दू भाषाएँ भी एक-दूसरे से दूर होती गईं और दोनों भाषाओं की मिलावट को अलग करके इनके शुद्ध स्वरूप का आग्रह बढ़ता गया। संविधान सभा में भी शुरुआती बैठकों में हिन्दुस्तानी का सुझाव आया, लेकिन भारत-विभाजन के बाद शुद्ध हिन्दी और देवनागरी लिपि का ही आग्रह होने लगा।

अंग्रेजी के विरोध में एक बड़ा तर्क यह भी था कि जिन अंग्रेज़ों की गुलामी से देश को आजाद करवाने के लिए इतना बड़ा संघर्ष किया गया, उनके जाने के बाद भी हम अपनी भाषाओं की बजाय अंग्रेजी में ही सारा कामकाज करें, तो यह बहुत शर्म की बात होगी। अन्य देशों के लोग सारा कामकाज और संसद की कार्यवाही भी अपनी-अपनी भाषाओं में करते हैं, फिर भारत जैसे बहुभाषी देश में इतनी सारी भाषाओं के होते हुए भी अंग्रेजी को ही क्यों ढोया जाए? कुछ सदस्यों ने यह सुझाव भी दिया कि संविधान का मूल संस्करण हिन्दी में तैयार किया जाए और अंग्रेजी में उसका अनुवाद उपलब्ध करवा दिया जाए। लेकिन डॉ. आंबेडकर की ड्राफ्टिंग कमिटी ने इसे खारिज कर दिया। उनकी राय थी कि कानूनी विषयों को अंग्रेजी में ही ठीक ढंग से व्यक्त किया जा सकता है।

लेकिन बहुत सारे लोग इन दोनों ही पक्षों से असहमत थे। वे अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही भाषाओं के विरोधी थे। अंततः इस बात पर समझौता हुआ कि देश की आधिकारिक भाषा हिन्दी रहेगी और यह देवनागरी लिपि में लिखी जाएगी, लेकिन संविधान लागू होने के 15 वर्षों बाद तक अंग्रेजी का प्रयोग भी जारी रहेगा। यह भी स्वीकार किया गया कि कम से कम 1965 तक सारा सरकारी कामकाज और अदालतों की कार्यवाही केवल अंग्रेजी भाषा में ही होगी।

26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने अपना काम पूरा कर लिया और भारतीय संविधान को सभा में स्वीकार कर लिया गया। लगभग दो माह बाद 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा की अंतिम बैठक हुई, जिसमें सभी सदस्यों ने भारतीय संविधान पर हस्ताक्षर करके उसी स्वीकार किया। दो दिन बाद 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ और भारत एक संप्रभु गणराज्य बना। इस पूरे कालखंड में कुल 11 सत्रों में संविधान सभा की बैठकें आयोजित हुईं, जिनमें सब मिलाकर 165 दिनों तक विभिन्न विषयों पर चर्चा हुई। अंततः 395 धाराओं, 8 अनुच्छेदों और 22 भागों वाला भारतीय संविधान तैयार हुआ।

 

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