Home विषयइतिहास स्वराज – 3
भारत के विभाजन और दंगों की बात किए बिना भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास कभी भी पूरा नहीं हो सकता। वैसे तो भारत में सांप्रदायिक संघर्ष का इतिहास सदियों पुराना है, किन्तु 16 अगस्त 1946 का मुस्लिम लीग का ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ भारत-विभाजन से ठीक पहले की सबसे हिंसक घटना थी।
29 जुलाई 1946 को बम्बई में मुस्लिम लीग की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित हुई थी। उसमें जिन्ना ने दो घोषणाएँ कीं: पहली घोषणा में लीग ने केबिनेट मिशन को दी गई अपनी सहमति वापस ले ली और दूसरी में उसने अपनी माँगों को मनवाने के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन’ (सीधी कार्रवाई) की बात कही। इसके लिए शुक्रवार, 16 अगस्त का दिन चुना गया।
लीग ने घोषणा की कि अब उसे तुरंत ही पाकिस्तान दे दिया जाना चाहिए और अगर ऐसा नहीं हुआ, तो उसके समर्थकों को अब सीधी कार्रवाई शुरू कर देनी चाहिए। जिन्ना ने अपने भाषण में कहा कि ‘हमने संवैधानिक तरीकों से अपनी माँगें मनवाने के लिए आज तक कई प्रयास किए, लेकिन वे सब विफल हुए हैं। जिन दो पक्षों (ब्रिटिश सरकार और काँग्रेस) के साथ हम बातचीत कर रहे थे, वे हमेशा हमारे सामने पिस्तौल ताने रहे। उनमें से एक के पास राज्य और मशीनगन की ताकत है और दूसरे पक्ष के पास असहयोग और सविनय अवज्ञा की शक्ति। अब हमें भी इसका जवाब देना ही होगा। हम भी दिखा देंगे कि हमारी जेब में भी पिस्तौल है।’
पत्रकारों ने जिन्ना से पूछा कि क्या इसका अर्थ यह है कि लीग अब हिंसक गतिविधियों पर उतर आई है, तो उन्होंने जवाब दिया कि ‘मैं हिंसा और अहिंसा के सूक्ष्म भेदों में उलझना नहीं चाहता’। अब यह स्पष्ट हो गया था कि जिन्ना और लीग अपने समर्थकों को खुली हिंसा के लिए उकसा रही है।
अब लीग के नेताओं ने इस अभियान को सफल बनाने की तैयारी भी जोर-शोर से आरंभ कर दी। शुक्रवार की नमाज के बाद कई जगह मस्जिदों में या उनके ठीक बाहर लीग की जनसभाएँ आयोजित होने लगीं। बंगाल में लीग की सरकार के मुख्यमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने कई जनसभाओं को संबोधित किया और उन भड़काऊ भाषणों से उन्माद और बढ़ा।
16 अगस्त से ठीक एक दिन पहले सरकारी कार्यालयों में अगले तीन दिनों की छुट्टी घोषित कर दी गई। आधी रात से ही बड़ी संख्या में हावड़ा की जूट मिलों से मुस्लिम लीग के समर्थन में मजदूर कलकत्ता पहुँचने लगे। कलकत्ता में लीग के स्थानीय गुण्डे भी उनके साथ शामिल हो गए। उन्हें घातक हथियार और आगजनी के लिए पेट्रोल खरीदने के लिए मुफ्त सरकारी कूपन दिए गए। खुद कलकत्ता के मेयर शरीफ खां ने इसकी बागडोर संभाली।
कलकत्ता के 24 में से 22 पुलिस थानों में हिन्दू थानेदारों को हटाकर लीग ने वहाँ मुस्लिम अधिकारियों की नियुक्त की और अन्य दो थानों में एंग्लो-इण्डियन पुलिस अधिकारी नियुक्त किए गए।
16 अगस्त को सुबह लीग ने कई जगह विशाल जुलूस निकाले। फिर मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक जनसभा हुई। उसमें फिर भड़काऊ भाषण दिए गए और फिर रैली से लौटती हुई भीड़ का कहर पूरे शहर पर टूट पड़ा। इसकी शुरुआत मानिक टोला इलाके से हुई थी, लेकिन यह आग फैलती गई और अगले दो दिनों तक हिंसा, लूटपाट, आगजनी, हज़ारों हत्याओं और सैकड़ों महिलाओं से बर्बरता का दुष्कृत्य जारी रहा। जब स्वयं मुख्यमंत्री के आदेश पर ही यह सब हो रहा था, तो पुलिस क्यों कोई कार्रवाई करती? उल्टे पुलिस नियंत्रण कक्ष से ही कई जगह इन दंगों का संचालन हो रहा था! अंग्रेज गवर्नर भी मूकदर्शक बनकर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा।
अब तक दूसरे समुदाय के लोगों को भी यह समझ आ गया था कि अब भी अगर उन्होंने स्वयं अपनी रक्षा के लिए हथियार नहीं उठाए, तो उनका अस्तित्व ही हमेशा के लिए मिट जाएगा। इसके बाद पासा पलट गया और लोगों ने भी संगठित होकर हिंसा का जवाब हिंसा से देना शुरू कर दिया। पिछले दो दिनों की हिंसा का जवाब अगले दो दिनों तक जारी रहा। यह बदलाव देखते ही गवर्नर को अपना कर्तव्य याद आ गया और उसने दंगों को रोकने के लिए तुरंत ही सेना बुला ली। 16 से 20 अगस्त के उन चार दिनों में कलकत्ता में 5000 से ज्यादा लोग मारे गए और 15 हजार से अधिक घायल हुए।
लेकिन बात यहीं ख़तम नहीं हुई। अब लीग ने पूर्वी बंगाल के तिप्परा और नोआखाली में दंगे शुरू कर दिए। वहाँ उसके समर्थकों की संख्या अन्य समुदायों के मुकाबले बहुत ज्यादा थी। इन दंगाइयों के पास बड़ी संख्या में बन्दूकें और कई अन्य घातक हथियार थे। संचार के साधनों को उन्होंने पहले ही नष्ट कर दिया था ताकि दंगों की ज्यादा जानकारी बाहर न जा सके। सड़कों में जगह-जगह गड्ढे खोद दिए गए थे, ताकि सेना या पुलिस की गाड़ियाँ आसानी से वहाँ तक पहुँच न सकें।
अगले कई हफ़्तों तक नोआखाली में हिंसा, लूटपाट और हत्याओं का सिलसिला चलता रहा। सैकड़ों महिलाओं के पति उनकी आँखों के सामने ही मार डाले गए और उनके हत्यारों से ही जबरन उन महिलाओं का निकाह करवा दिया गया। कई जगह लोगों की जान बख्शने के बदले लीग ने उनसे ‘चंदा’ वसूल किया। सबसे ज्यादा बर्बरता नोआखाली के फेनी सब-डिवीजन और रामगंज थाना-क्षेत्र में हुई। यहाँ दंगों का नेतृत्व लीग के पूर्व-विधायक गुलाम सरवर ने किया था।
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी दंगा-पीड़ित क्षेत्रों में पहुँचकर लोगों को सांत्वना देने वाले पहले नेता थे। इसके बाद गाँधीजी भी वहाँ पहुँचे। काँग्रेस के नेताओं ने गवर्नर से मिलकर नोआखाली में लीग के ‘मुस्लिम नेशनल गार्ड्स’ को रोकने और लोगों की रक्षा के लिए कदम उठाने की अपील की। मुख्यमंत्री सुहरावर्दी भी वहाँ मौजूद थे। गवर्नर ने काँग्रेस नेताओं से कह दिया कि मुख्यमंत्री ने मुझे बताया है कि स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है, इसलिए किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
अब दंगों की यह आग बिहार तक भी जा पहुँची। कलकत्ता में काम करने वाले कई बिहारी मजदूर अगस्त में हुए दंगों का शिकार बने थे। उनमें से जीवित बचे लोग जब वापस बिहार में अपने घरों को पहुँचे, तो दंगों की भयावहता का आँखों देखा हाल भी उनके साथ बिहार पहुँच गया।
सितंबर में यह खबर आई कि कलकत्ता के दंगों की शिकार एक युवती को लीग के गुण्डे अपहरण करके मुजफ्फरपुर ले आए हैं और वहाँ मुस्लिम लीग के एक स्थानीय नेता के घर उसे कैद करके रखा गया है। यह खबर फैलते ही भीड़ उस लड़की को कैद से छुड़ाने के लिए वहाँ जा पहुँची, लेकिन युवती को लेकर वह व्यक्ति पहले ही अपने घर से फरार हो चुका था। इससे आक्रोशित होकर भीड़ ने आसपास के घरों में भी आग लगा दी और कुछ लोगों की हत्या भी कर दी।
बंगाल के पीड़ितों से सहानुभूति जताने के लिए 24 अक्टूबर 1946 को बिहार के हिन्दुओं ने शोक के रूप में ‘काली दिवाली’ मनाने की घोषणा की। बदले में लीग ने भी अपने अनुयायियों से अपील की कि वे उस दिन अपने घरों में खूब रौशनी करें और खुशी का दिन मनाएँ। इसके बाद 27 अक्टूबर से भीषण दंगों की शुरुआत हो गई और यह सिलसिला 6 नवंबर तक जारी रहा। ऐसा अनुमान है कि इन दंगों में लगभग 7 से 10 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।
बंगाल में तो खुलेआम मुस्लिम लीग की सरकार खुद ही दंगों का नेतृत्व कर रही थी, लेकिन बिहार में स्थिति अलग थी। यहाँ लोग स्वयं ही आगे बढ़कर हिंसा का जवाब हिंसा से दे रहे थे। बिहार में काँग्रेस की सरकार थी और इन भीषण दंगों के कारण अब वह अपनी आलोचना से घबराई हुई थी। मुस्लिम लीग ने एक रिपोर्ट जारी करके यह आरोप लगाया था कि काँग्रेस के राज में मुसलमानों पर भीषण अत्याचार हो रहे हैं।
इससे घबराकर तुरंत ही काँग्रेस के बड़े-बड़े नेता बिहार पहुँच गए। जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान, आचार्य कृपलानी आदि नेताओं ने बिहार पहुँचकर लोगों को हिंसा को बन्द करवाने का प्रयास किया। अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री नेहरू जी ने चेतावनी दी कि अगर हिंसा बन्द नहीं हुई, तो सरकार दंगाइयों पर हवाई हमला करने से भी नहीं हिचकेगी। राजधानी पटना से बड़ी संख्या में प्रदेश भर में सेना की भी तैनाती का आदेश जारी किया गया। मुस्लिम लीग ने अपने समर्थकों से 5 नवंबर को बकरीद के दिन शोक मनाने की अपील की।
जब बिहार के दंगों की खबर आई, तो गाँधीजी उस समय बंगाल में थे। उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर दंगे नहीं रुके, तो वे आमरण अनशन करेंगे और अपने प्राण त्याग देंगे। उन्होंने हिन्दुओं से अपील की कि वे लोग स्वयं शरणार्थी शिविरों में जाकर अपने-अपने गाँवों के पीड़ित मुसलमानों को वहाँ से सुरक्षित वापस अपने-अपने गाँवों तक लेकर आएँ और उनके पुनर्वास की व्यवस्था करें। गाँधीजी की अपील पर बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने इसके लिए चन्दा दिया। कई महिलाओं ने अपने गहने तक दान में दे दिए और दंगा-पीड़ित मुसलमानों की सहायता की।
लेकिन पुनर्वास के काम में एक बड़ी रुकावट आई। बिहार की काँग्रेस सरकार ने सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के इरादे से बिहार के दंगा पीड़ित मुस्लिमों के पुनर्वास का पूरा अधिकार मुस्लिम लीग को सौंप दिया था। लेकिन लीग के लोग यह नहीं चाहते थे कि आस-पास के गाँवों के मुसलमान वापस अपने घरों को लौट जाएँ, बल्कि उनकी इच्छा उन्हें हिन्दुओं के बहुमत वाले अन्य सीमावर्ती जिलों में बसाने की थी, ताकि वहाँ मुस्लिम जनसंख्या बढ़ने से उन जिलों को भी पाकिस्तान में शामिल करवाया जा सके। ये सारी बातें स्वयं काँग्रेस के ही आचार्य कृपलानी ने अपनी पुस्तक ‘गांधी: हिज लाइफ एंड थॉट’ (गांधी: जीवन और विचार) में लिखी हैं।
बंगाल और बिहार के बाद दंगों की यह आग पंजाब पहुँची। रावलपिंडी, मुल्तान, हजारा जैसे शहरों में दिसंबर-जनवरी में भीषण हिंसा और दंगे हुए, जिनकी आग ने बड़ी संख्या में सिक्खों को भी झुलसाया। बिहार और बंगाल में तो दंगे केवल हिन्दू-मुसलमानों के बीच थे, सिक्खों की उसमें कोई भूमिका ही नहीं थी। फिर भी जब पंजाब में मुस्लिम लीग ने सिक्खों को खासतौर पर निशाना बनाया, तब जाकर सिक्खों के नेता इस बात को समझ पाए कि लीग उन्हें पंजाब से मिटाना चाहती है, ताकि उसके नए पाकिस्तान में सिक्खों के लिए कोई जगह न देनी पड़े।
पंजाब में उस समय यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार थी। वास्तव में यह हिन्दू, मुस्लिम और सिक्ख जमींदारों का एक गठबंधन था। 24 जनवरी को इस यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार ने पंजाब में मुस्लिम लीग के नेशनल गार्ड और हिन्दुओं के संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे लीग और भी भड़क गई और उसने सरकार के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया। लीग के हज़ारों लोगों को जेल में डाल दिया गया, पर सरकार आन्दोलन को कुचल नहीं पाई और अंततः यूनियनिस्ट मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया। लेकिन लीग भी अपनी सरकार नहीं बना पाई और अंग्रेज गवर्नर ने राज्य का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया।
पंजाब में दंगे अभी भी लगातार जारी रहे। अब सिक्खों की उग्रवादी पार्टी अकाली दल भी इन दंगों में शामिल हो गई थी। जैसे-जैसे यह स्पष्ट होता गया कि भारत का विभाजन होकर रहेगा, वैसे-वैसे ही दंगों की भीषणता भी बढ़ती गई।
सिक्खों को अब ऐसा लगने लगा था कि काँग्रेस और लीग के झगड़े में वे दोनों के बीच पिस रहे हैं। मुस्लिम लीग अपने पाकिस्तान में उन्हें शामिल नहीं करना चाहती थी और काँग्रेस मजबूरी में उन्हें झेल रही थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सिक्खों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने भी अपनी सेना में बड़ी संख्या में सिक्खों की भर्ती की और उन्हें कई अन्य सुविधाएँ भी दीं। सदी की शुरुआत में जब अंग्रेज पश्चिमी पंजाब के इलाके को विकसित करने का प्रयास कर रहे थे, तो बड़ी संख्या में उन्होंने सिक्खों को उन इलाकों में बसने और वहाँ काम करने के लिए प्रोत्साहित किया था। अब जब पंजाब का बँटवारा स्पष्ट दिखाई देने लगा, तो वही अंग्रेज सरकार चाहती थी कि सिक्ख उन इलाकों को मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के लिए छोड़ दें और नए बनने वाले भारत में जाकर बस जाएँ।
सिक्खों को महसूस हुआ कि उनके साथ अंग्रेज़ों ने धोखा किया है। उनका एक पवित्र शहर अमृतसर था, तो दूसरा ननकाना साहिब। जब महाराजा रणजीत सिंह ने सिक्ख साम्राज्य की स्थापना की, तो उसकी राजधानी लाहौर थी। सिक्खों के पवित्र स्थल पूरे पंजाब में फैले हुए थे और बँटवारे का मतलब था कि वे भी भारत और पाकिस्तान के बीच टुकड़ों में बंट जाएँगे। उन्होंने अंग्रेज़ों से माँग की कि पाकिस्तान बनाने के साथ-साथ ही सिक्खों को भी एक अलग देश ‘खालिस्तान’ दिया जाए। लेकिन ब्रिटिश सरकार, काँग्रेस या मुस्लिम लीग किसी ने भी उनकी माँग पर ध्यान नहीं दिया। सिक्खों का यह आक्रोश भी दंगों के रूप में बाहर निकला और मार्च से अगस्त तक पंजाब में सांप्रदायिक दंगों की तीव्रता लगातार बढ़ती ही गई।
जून 1947 में माउंटबेटन योजना की घोषणा के साथ ही भारत का विभाजन भी निश्चित हो गया। भारत और पाकिस्तान की सीमा-रेखा तय करने के लिए जुलाई में रेडक्लिफ भारत आए और उन्होंने अपना काम शुरू किया।
पिछले कुछ महीनों से लगातार जारी दंगों को देखते हुए यह भी तय था कि बँटवारा चाहे कितनी भी अच्छी तरह से किया जाए, लेकिन कोई न कोई समुदाय उससे अवश्य नाराज रहेगा और भीषण हिंसा की संभावना बनी रहेगी। इस पर काबू पाने के लिए 1 अगस्त को मेजर जनरल रीज के नेतृत्व में पंजाब सीमा बल का गठन किया गया।
नई सीमा की घोषणा में हो रही देरी के कारण भी लोगों की नाराजगी बढ़ती जा रही थी। अंततः 16 अगस्त को जब लोगों को बँटवारे के बारे में ठीक से पता चला, तो उनका आक्रोश भड़क गया। मुसलमान इस बात से नाराज थे कि गुरदासपुर जिला पाकिस्तान की बजाय भारत को दे दिया गया था और सिक्खों में इस बात का आक्रोश था कि ननकाना साहिब पाकिस्तान में चला गया।
बँटवारे के साथ ही इस नई सीमा के दोनों ओर से लाखों की संख्या में शरणार्थियों का पलायन भी आरंभ हो गया और उसके साथ ही सांप्रदायिक दंगों और नरसंहार की अगली लहर भी शुरू हो गई। भारत-विभाजन के कारण करोड़ों लोग अपने ही देश में विस्थापित होकर शरणार्थी बन गए और लाखों लोग दंगों में मारे गए। कई वर्षों बाद नेहरू जी ने भी यह माना था कि विभाजन को स्वीकार करना काँग्रेस की बहुत बड़ी भूल थी। उन लोगों ने सोचा था कि दंगों और हिंसा को रोकने के लिए विभाजन को मान लेना ही एकमात्र विकल्प है, लेकिन विभाजन के बाद तो और भी ज्यादा हिंसा हुई थी।
2 सितंबर 1947 को पंजाब सीमा बल को भंग कर दिया गया क्योंकि यह दंगों को रोकने में पूरी तरह विफल हुआ था। अब पंजाब के अपने-अपने इलाकों में सुरक्षा-व्यवस्था कायम करने की जिम्मेदारी भारत और पाकिस्तान की नई सरकारों के कन्धों पर आ गई। लेकिन दंगा नहीं रुका। पश्चिमी पंजाब का अंग्रेज गवर्नर फ्रांसिस मूडी भी दंगों को भड़काने में शामिल था। वह काँग्रेस से नफरत करता था और उसने पाकिस्तान से भारत आने वाले शरणार्थियों को हमलों से बचाने के लिए जानबूझकर कोई मदद नहीं की।
आजादी के बाद उधर बंगाल में भी हिंसा का नया दौर शुरू हो गया। उन्हीं दंगों को रोकने के प्रयास में गांधीजी 15 अगस्त को दिल्ली की बजाय कलकत्ता में थे। वे बेलियाघाट के एक घर में ठहरे हुए थे, लेकिन 31 अगस्त को वहाँ भी एक हिन्दू युवक पर हमले की खबर आई। उसके बाद हिंसा फिर से भड़क उठी और अगले दिन तक लगभग पचास लोगों की मौत हो चुकी थी।
इससे व्यथित होकर गांधीजी ने फिर 2 सितंबर से आमरण अनशन की घोषणा कर दी। इसके बाद दबाव बना और दंगाइयों ने अपने-अपने हथियार लाकर गांधीजी के सामने रख दिए। सांप्रदायिक सद्भाव की अपील के साथ हिन्दुओं और मुसलमानों की सामूहिक रैलियाँ निकाली गईं। काँग्रेस, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के बड़े नेताओं ने एक साथ गांधीजी से मिलकर उन्हें आश्वासन दिया कि अब वहाँ कोई हिंसा नहीं होगी।
अंततः 7 सितंबर को गांधीजी कलकत्ता से दिल्ली की ओर रवाना हुए। उनका इरादा अब हिंसा को रोकने के लिए पंजाब जाने का था। लेकिन राजधानी दिल्ली में जारी लूटपाट और हिंसा को देखकर वे वहीं रुक गए। वहाँ गांधीजी को पता चला कि दिल्ली के मुसलमान डरे हुए हैं क्योंकि पिछले कुछ ही हफ़्तों में कम से कम 137 मस्जिदों को तोड़ दिया गया था और पाकिस्तान से आए हिन्दू व सिक्ख शरणार्थियों ने उनके घरों पर कब्जा कर लिया था। मुसलमानों ने अपनी जान बचाने के लिए हजारों की संख्या में दिल्ली के पुराने किले और हुमायूं के मकबरे में शरण ले ली थी।
अगले दो महीनों तक गांधीजी दिल्ली के अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों का दौरा करते रहे। उन्होंने बार-बार लोगों से कहा कि वे हिंसा को रोकने के लिए पंजाब जाना चाहते हैं, पर जब तक दिल्ली में मुसलमानों की सुरक्षा की गारंटी न मिल जाए, तब तक वे उन्हें अकेला छोड़कर नहीं जा सकते।
लेकिन ऐसा लगता था कि उनकी बात सुनने को कोई तैयार नहीं था।
लाखों की संख्या में विस्थापित होकर पाकिस्तान से दिल्ली आए हिन्दू और सिक्ख शरणार्थियों में यह आक्रोश था कि गाँधीजी केवल मुसलमानों की सुरक्षा की चिंता कर रहे हैं, जबकि पाकिस्तान से अपना सब-कुछ लुटाकर आए उन जैसे लाखों लोगों की उन्हें कोई चिंता नहीं है। भारत के अल्पसंख्यकों के लिए तो गांधीजी का दर्द छलक रहा है, लेकिन पाकिस्तान में जो अल्पसंख्यक हिन्दू और सिक्ख अभी भी प्रताड़ित हो रहे हैं, उनके लिए गांधीजी ने कभी कुछ नहीं कहा है। गांधीजी की रोज होने वाली प्रार्थना सभाओं में कुरआन की पंक्तियों को पढ़े जाने का भी शरणार्थियों ने कड़ा विरोध किया।
इन सब कारणों से गांधीजी के प्रयासों के बावजूद भी हिंसा में कोई कमी नहीं आ रही थी। अंततः फिर एक बार गांधीजी ने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। 13 जनवरी से उनका यह उपवास शुरू हुआ।
गांधीजी की पहली माँग थी कि दिल्ली के हिन्दू और सिक्ख समुदायों के लोग हिंसा और दंगे बंद करें। उनकी दूसरी माँग थी कि पाकिस्तान की सरकार भी अपने यहाँ हो रहे दंगों को नियंत्रित करे और वहाँ के अल्पसंख्यकों को भारत आने से रोके।
उनकी तीसरी माँग भारत सरकार से थी कि वह पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये की राशि का भुगतान करे। यह उन दिनों में एक बहुत बड़ी रकम थी। द्वितीय विश्व युद्ध में भारत के सहयोग के बदले ब्रिटेन ने यह राशि दोनों देशों के लिए अदा की थी। लेकिन अक्टूबर 1947 में जब पाकिस्तान ने काश्मीर पर हमला कर दिया, तो भारत सरकार ने 55 करोड़ की यह रकम पाकिस्तान को देने से इनकार कर दिया।
गाँधीजी चाहते थे कि भारत सरकार तुरंत यह पैसा पाकिस्तान को दे। अंततः उनके दबाव में 15 जनवरी को सरकार ने यह राशि जारी करने की घोषणा कर दी। 16 जनवरी को एक हजार से ज्यादा शरणार्थियों ने एक घोषणापत्र पर लिखकर दिया कि वे दिल्ली के विस्थापित मुसलमानों की घर वापसी का स्वागत करेंगे। लेकिन गांधीजी इस जिद पर अड़े रहे कि भारत सरकार इस बारे में बड़े स्तर पर कोई घोषणा करे।
अंततः 17 जनवरी को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक समिति बनी और 18 जनवरी को समिति ने अपने घोषणापत्र में गांधीजी को वचन दिया कि मुसलमानों की आस्था, संपत्ति और जीवन की रक्षा की जाएगी। इसके बाद गांधीजी ने अपना अनशन खत्म कर दिया।
लेकिन पाकिस्तान से विस्थापित होकर दिल्ली की बरसात और ठण्ड में फुटपाथों और शरणार्थी शिविरों में दिन काट रहे हज़ारों हिन्दू और सिक्ख शरणार्थी गांधीजी से नाराज हो गए। इन दिनों गांधीजी अपने करोड़पति शिष्य बिड़ला जी के निवास में रह रहे थे। 20 जनवरी को उनकी प्रार्थना सभा में पंजाब के एक शरणार्थी मदनलाल पाहवा ने बम विस्फोट किया। सौभाग्य से उस हमले में कोई हानि नहीं हुई, लेकिन अफ़सोस और अचरज की बात है कि भारत सरकार ने इसके बाद भी गांधीजी की सुरक्षा के लिए कोई कदम नहीं उठाया।
दस दिन बाद 30 जनवरी को गांधीजी की प्रार्थना सभा में फिर एक बार उन पर हमला हुआ। इस हमले में नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
इसके आगे का घटनाक्रम मैं अगले भाग में..

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