Home विषयइतिहास स्वराज – 5
सरदार पटेल और वीपी मेनन ने मिलकर सैकड़ों रियासतों को भारत में मिलाने का चमत्कार कर दिखाया था। लेकिन कुछ ऐसी रियासतें भी थीं, जिन्हें मिलाने में बहुत परेशानी भी हुई।
इनमें सबसे पहली दक्षिण भारत की त्रावणकोर रियासत थी। इसकी राजधानी थिरुवनंतपुरम अब केरल की राजधानी है। त्रावणकोर रियासत के पास लंबा समुद्र तट था और समुद्री व्यापार से इसकी अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बढ़ रही थी। देश में सबसे ज्यादा साक्षरता भी यहीं थी।
इस रियासत में नाम के लिए महाराजा और महारानी तो थे, लेकिन वास्तविक शासन वहाँ के दीवान सर सी.पी. रामस्वामी अय्यर के हाथों में था। फरवरी 1946 में अय्यर ने घोषणा कर दी थी कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने पर त्रावणकोर एक स्वतंत्र राज्य बन जाएगा। यह भारत में शामिल नहीं होगा। 1947 में भी उन्होंने यही बात दोहराई और प्रजा से भी इसमें साथ देने की अपील की।
जून 1947 में जिन्ना ने भी त्रावणकोर के दीवान को सन्देश भेजकर रियासत की आजादी का समर्थन किया। इंग्लैण्ड की सरकार से मान्यता पाने में सहायता के लिए 21 जुलाई को दीवान अय्यर ने दिल्ली जाकर वायसरॉय से मुलाकात की। वे यह भी चाहते थे कि अगर भारत की अगली सरकार त्रावणकोर राज्य के लिए आवश्यक सूती कपड़े की आपूर्ति बंद कर दे, तो इंग्लैण्ड उनकी मदद करे।
उस समय दुनिया में मोनाजाइट खनिज का सबसे बड़ा ज्ञात भंडार कुछ ही समय पहले त्रावणकोर में ही मिला था। मोनाजाइट से थोरियम निकाला जाता है, जो परमाणु ऊर्जा और परमाणु बम बनाने के लिए जरूरी है। इसलिए इंग्लैण्ड की सरकार भी इस प्रयास में थी कि त्रावणकोर स्वतंत्र रहे। उसने मोनाजाइट की आपूर्ति के लिए त्रावणकोर से समझौता भी कर लिया था। वायसरॉय से मिलने के बाद दीवान अय्यर की मेनन से भी मुलाकात हुई। लेकिन उन्होंने विलय पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए और वापस त्रावणकोर लौट गए।
लेकिन एक सप्ताह बाद ही एक बड़ी घटना हुई।
उस समय त्रावणकोर में कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दोनों ही अपनी जड़ें जमा चुकी थीं। 27 जुलाई को केरल की सोशलिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्ता ने दीवान रामस्वामी अय्यर पर चाकू से हमला कर दिया और घायल अवस्था में उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। स्टेट पीपल कान्फ्रेंस ने भी भारत में विलय की माँग को लेकर आन्दोलन छेड़ दिया था। अब त्रावणकोर ने हार मान ली और वहाँ के महाराजा ने 30 जुलाई को भारत के विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।
विलय में समस्या खड़ी करने वाली दूसरी रियासत मध्य भारत की भोपाल रियासत थी। यहाँ का नवाब हमीदुल्ला खान काँग्रेस का कड़ा विरोधी और जिन्ना का कट्टर समर्थक था। 1944 से ही वह भारतीय रियासतों के नरेन्द्र मंडल (चेंबर ऑफ प्रिंसेज) का अध्यक्ष भी था। लॉर्ड माउंटबेटन से भी उसकी बहुत पुरानी दोस्ती थी।
द्वितीय विश्व युद्ध तो 1945 में समाप्त हो गया था, लेकिन अमरीका और रूस के बीच शीत युद्ध पूरी दुनिया में चल रहा था। यह वास्तव में पूँजीवाद और वामपंथ के बीच का संघर्ष था, जिसमें एक तरफ अमरीका, ब्रिटेन और उनके साथी देश थे और दूसरी तरफ विश्व भर के वामपंथी देश खड़े थे।
जब भारत का आजादी का समय आया और रियासतों से भारत में विलय की अपील की गई, तो भोपाल के नवाब ने अपने पुराने दोस्त माउंटबेटन को पत्र लिखकर गुहार लगाई कि अंग्रेज इस तरह रियासतों को कांग्रेस के हवाले करके न जाएँ क्योंकि कांग्रेस जमींदारों की दुश्मन है और वह रियासतों को समाप्त कर देगी। लेकिन उससे भी ज्यादा खतरा कम्युनिस्टों से है, जिनका ट्रांसपोर्ट यूनियनों पर पूरा कब्जा है और ये लोग पूरी व्यवस्था को ठप करके भारत पर भी कब्जा कर लेंगे। दुनिया के 45 करोड़ लोगों का एक और देश यदि वामपंथियों के कब्जे में चला गया, तो ब्रिटेन की सरकार ही इसकी जिम्मेदार होगी। लेकिन जवाब में वायसरॉय ने भी लिख दिया कि वामपंथ के खतरे से निपटने के लिए यह और भी ज्यादा जरूरी है कि रियासतें और कांग्रेस साथ मिलकर काम करें, इसलिए नवाब को भारत में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए।
25 जुलाई को नरेन्द्र मंडल की बैठक में वायसरॉय का भाषण सुनने के बाद अधिकांश रियासतों के शासक समझ चुके थे कि ब्रिटेन आगे उनकी कोई सहायता नहीं करने वाला है। इसके बाद उनमें से अधिकांश ने भारत के विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। भोपाल के नवाब ने भी अब हार मान ली थी, लेकिन फिर भी वह टालमटोल करता रहा।
भारत की आजादी के एक साल बाद तक भी भोपाल रियासत भारत में शामिल नहीं हुई थी। अंततः दिसंबर 1948 में नवाब के खिलाफ आन्दोलन छिड़ गया। बड़ी संख्या में आन्दोलनकारियों को बंदी बना लिया गया। रियासती पुलिस की गोलीबारी में कई लोग मारे गए।
अब सरदार पटेल ने अपना तरीका अपनाया और नवाब को ‘समझाने’ के लिए वीपी मेनन को जनवरी 1949 में भोपाल भेजा गया। अंततः अप्रैल 1949 में भोपाल के नवाब ने भारत में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दिए। जून 1949 में यह भारत का हिस्सा बना। नवाब की बड़ी बेटी 1950 में हमेशा के लिए पाकिस्तान में बस गई। उसकी दूसरी बेटी साजिदा सुल्तान का निकाह पटौदी रियासत के नवाब इफ्तिखार अली से हुआ था। वही सैफ अली खान के पिता मंसूर अली की माँ थीं।
काठियावाड़ की जूनागढ़ भी एक ऐसी ही रियासत थी, जिसके नवाब महाबत खान और दीवान शाहनवाज भुट्टो ने पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर दी थी। हिन्दुओं का पवित्र सोमनाथ मंदिर और जैनों का गिरनार तीर्थ स्थल भी वहीं था। ऐसे कई कारणों से जूनागढ़ को छोड़ना भारत को स्वीकार नहीं था।
जूनागढ़ रियासत के कुछ हिन्दू सरदारों ने पाकिस्तान में शामिल होने से इनकार कर दिया और भारत सरकार से मदद माँगी। सितंबर 1947 में भारत ने एक सैन्य टुकड़ी भेजकर जूनागढ़ को मुक्त करवा लिया। नवाब तुरंत ही कराची भाग गया और अक्टूबर तक दीवान भुट्टो ने भी हार स्वीकार कर ली। 9 नवंबर को भारत में जूनागढ़ रियासत का औपचारिक विलय हो गया। इसके बाद शाहनवाज भुट्टो ने भी पाकिस्तान की राह पकड़ी। उसका बेटा जुल्फिकार अली भुट्टो और फिर जुल्फिकार अली की बेटी बेनज़ीर भुट्टो दोनों ही आगे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने।
लेकिन माउंट बैटन को इस तरह जूनागढ़ का विलय करना स्वीकार नहीं था, इसलिए फरवरी 1948 में जूनागढ़ में जनमत संग्रह भी करवाया गया। इसमें भी 91% लोगों ने भारत के पक्ष में मतदान किया।
दक्षिण में हैदराबाद और उत्तर में काश्मीर भी दो बड़ी रियासतें थीं, जिन्हें भारत में मिलना मंजूर नहीं था।
उनके बारे में अगले भाग में…

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