जम्मू-काश्मीर की रियासत एक और बड़ी रियासत थी, जो भारत में शामिल नहीं होना चाहती थी। पहले यह इलाका महाराजा रणजीत सिंह के सिक्ख साम्राज्य का हिस्सा था। जम्मू के गुलाब सिंह जमवाल सन 1809 में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हुए। सन 1822 में उन्हें जम्मू का प्रशासक नियुक्त किया गया।
सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों में आपसी लड़ाई शुरू हो गई और इसका सबसे ज्यादा फायदा अंग्रेजों को ही मिला। सन 1845 में अंग्रेजों और सिक्खों के बीच पहला युद्ध हुआ। इसमें सिक्खों की हार हुई और इसके बाद 1846 में अंग्रेजों और सिक्खों के बीच ‘अमृतसर की संधि’ हुई। अंग्रेजों ने 75 लाख रुपये के बदले राजा गुलाब सिंह को जम्मू के शासक के रूप में मान्यता दे दी। लद्दाख और काश्मीर के इलाके भी उसमें शामिल कर दिए गए और इस तरह वर्तमान जम्मू-काश्मीर राज्य की सीमाएं बनीं। सन 1856 में महाराजा गुलाब सिंह की बीमारी के कारण उनके पुत्र रणबीर सिंह को महाराजा बनाया गया। उनके बाद 1885 में उनके बेटे प्रताप सिंह को यह अधिकार मिला।
काश्मीर के लोगों का शुरू से ही यह आरोप था कि डोगरा राजाओं को केवल जम्मू से लगाव है और मुसलमान होने के कारण काश्मीरियों के साथ भेदभाव किया जाता है। अंग्रेजों ने इस विवाद का पूरा लाभ उठाया। महाराजा की सहायता के नाम पर पहले उन्होंने राज्य में अपना एक रेसिडेंट अधिकारी नियुक्त करवाया। फिर एक पूरी काउंसिल ही नियुक्त कर दी और महाराजा का शासन केवल नाम का रह गया।
अंग्रेज चाहते थे कि रियासत के दरबार में और सरकार के उच्च पदों पर ऐसे लोगों की नियुक्ति करवाई जाए, जो डोगरा राजाओं से ज्यादा अंग्रेज़ों के प्रति निष्ठावान हों। इसके लिए एक सरल तरकीब अपनाई गई। 1889 में अंग्रेज़ों ने काश्मीर के लिए एक नया संविधान बनवाया। इसके द्वारा फारसी को हटाकर उर्दू को रियासत की आधिकारिक भाषा बना दिया। राज्य के डोगरा और काश्मीरी पंडितों में यह भाषा जानने वाले लोग बहुत कम थे। दूसरा नियम यह बनाया गया कि उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए ग्रेजुएट होना आवश्यक होगा। काश्मीर में उस समय स्नातकों की संख्या न के बराबर थी। इसके बहाने अंग्रेजों ने पंजाब से अपने विश्वसनीय लोगों को लाकर सरकार में हर जगह नियुक्त करवा दिया।
अब राज्य की नौकरियों में बाहरी लोगों की तेजी से बढ़ती संख्या को देखते हुए राज्य में असंतोष भड़कने लगा था। इसे शांत करने के लिए सरकार ने यह नियम बनाया कि राज्य की नौकरियां केवल “मुल्की” अर्थात “राज्य के निवासियों” को ही मिलेंगी। लेकिन जो भी व्यक्ति रियासत में भूमि खरीद ले, वह निवासी होने का दावा कर सकता था। इसलिए एक और कानून यह बनाया गया कि बाहर के लोग जम्मू-काश्मीर रियासत में ज़मीन नहीं खरीद सकेंगे।
हिन्दुओं को सरकारी नौकरियों में फिर से हिस्सा पाने की चिंता थी और मुसलमानों को डोगरा शासकों से मुक्ति चाहिए थी। दोनों अपने-अपने स्तर पर इसके लिए प्रयास कर रहे थे।
रियासत की मुस्लिम प्रजा का असंतोष लगातार बढ़ता जा रहा था। अलीगढ़ विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा लेकर लौटे मुस्लिम युवा रोज इन मुद्दों पर चर्चा के लिए इकट्ठा होने लगे। इन चर्चाओं से श्रीनगर में ‘मुस्लिम रीडिंग रूम’ की शुरुआत हुई और आगे चलकर यह ‘रीडिंग रूम पार्टी’ बन गई। समानता और न्याय की माँग के साथ शुरू हुआ यह आन्दोलन धीरे-धीरे एक धार्मिक आन्दोलन बनने लगा।
इसी दौरान सन 1925 में महाराजा प्रताप सिंह की मृत्यु हो गई और उनके भतीजे महाराजा हरीसिंह रियासत के शासक नियुक्त हुए। वही इस रियासत के अंतिम शासक साबित हुए।
सन 1931 में दो बड़ी घटनाएं हुईं। भारतीयों की स्वराज की माँग पर चर्चा करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में एक गोलमेज परिषद का आयोजन किया था। जम्मू-काश्मीर रियासत के शासक होने के नाते महाराजा हरीसिंह भी वहाँ गए। वहाँ उन्होंने कह दिया कि स्वतंत्रता हमारा अधिकार है। अंग्रेज़ सरकार इस बात से नाराज़ हो गई और अब उसने काश्मीर में महाराजा के विरोधियों को उकसाना और समर्थन देना प्रारंभ कर दिया ताकि महाराजा को पद से हटाया जा सके।
उन्हीं दिनों काश्मीर में एक दिन अचानक यह खबर फैली कि किसी पुलिसकर्मी ने कुरान का अपमान किया है। इसके विरोध में 21 जून 1931 को एक सभा का आयोजन हुआ। श्रीनगर के एक यूरोपीय अधिकारी का पंजाबी खानसामा अब्दुल कादिर भाषणबाजी में भी माहिर था। उस सभा में अब्दुल कादिर ने भी भाषण दिया। उसने लोगों को उकसाया कि महाराजा के महल पर हमला करके उसे मिट्टी में मिला दिया जाए।
अब्दुल कादिर को रियासत की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। लेकिन लोगों के आक्रोश को देखते हुए उसके मुकदमे की सुनवाई श्रीनगर की सेंट्रल जेल में करने का फैसला हुआ। 13 जुलाई 1931 को सुनवाई वाले दिन हजारों की भीड़ जेल के दरवाजे पर पहुँच गई। लोगों ने गेट तोड़ने का प्रयास किया, तो पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की। इसके जवाब में भीड़ ने पुलिस पर पथराव कर दिया। पुलिस ने गोलीबारी की। इक्कीस लोग मारे गए, कई लोग घायल हुए। इसका बदला लेने के लिए भीड़ ने श्रीनगर के बाज़ार में भारी उत्पात मचाया। दुकानों में तोड़-फोड़ और लूटपाट की गई, हिंदुओं पर हमले किए गए क्योंकि काश्मीर का राजा एक हिन्दू था।
13 जुलाई की इस घटना में पुलिस की गोलीबारी में मारे गए लोगों की याद में काश्मीरी मुसलमान इसे “काश्मीरी शहादत दिवस” के मनाने लगे। दूसरी ओर दंगों का शिकार हुए हिन्दुओं की याद में काश्मीरी हिन्दू इसे “काला दिन” कहने लगे। अंततः दिसंबर 2019 में इस पर रोक लगी।
शेख अब्दुल्ला की राजनीति भी इसी घटना के बाद से शुरू हुई थी।
यह विडंबना ही है कि जिस अब्दुल्ला परिवार के शासन में 1989 में लाखों काश्मीरी पण्डितों को काश्मीर छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा, स्वयं उनके पूर्वज भी सन 1766 तक कश्मीरी पण्डित ही थे।
शेख अब्दुल्ला का जन्म दिसंबर 1905 में हुआ था। 1928 में पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने अपनी बैचलर डिग्री पूरी करने के बाद पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय चले गए और 1930 में काश्मीर लौटे। उन्हें साठ रुपये मासिक वेतन पर मुजफ्फराबाद में शिक्षक की नौकरी मिल गई। लेकिन उन्हें लगता था कि यह नौकरी उनके स्तर से बहुत छोटी है। उन्हें कोई बड़ा पद मिलना चाहिए।
उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा दी। उसमें उनका चयन नहीं हुआ। उन्होंने आरोप लगाया कि सिर्फ़ मुसलमान होने के कारण ही उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। इसके विरोध में उन्होंने अपनी शिक्षक की नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
उसी दौरान काश्मीर में जन-आन्दोलन भी तेजी से बढ़ रहा था। नौकरी छोड़ने के बाद अब्दुल्ला अब पूरी तरह इस आंदोलन में शामिल हो गए। जामा मस्जिद से उनके उत्तेजक भाषण सुनाई देने लगे। महाराजा के विरुद्ध स्थानीय लोगों को उकसाने में अंग्रेजों ने भी शेख अब्दुल्ला को प्रोत्साहन दिया। इस समर्थन की मदद से शेख अब्दुल्ला ने मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग और जी एम सादिक के साथ मिलकर मुस्लिम कान्फ्रेंस की स्थापना की।
लेकिन जल्दी ही उन्हें लगने लगा कि हिन्दुओं को साथ लिए बिना आंदोलन सफल नहीं हो सकेगा। इसलिए अक्टूबर 1932 में मुस्लिम कान्फ्रेंस के सम्मेलन में अब्दुल्ला ने प्रस्ताव रखा कि इसमें काश्मीरी हिन्दुओं को भी शामिल किया जाए। इस प्रस्ताव का इतना कड़ा विरोध हुआ कि मुस्लिम कान्फ्रेंस में फूट पड़ गई और एक गुट उससे अलग हो गया।
अंग्रेजों के दबाव में महाराजा को 1931 के दंगे की जाँच के लिए एक आयोग का गठन करना पड़ा था। एक अंग्रेज अधिकारी बी. जे. ग्लानसी उस आयोग के अध्यक्ष थे। मार्च 1932 में आयोग ने अपनी सिफारिशें महाराजा को सौंप दीं। उसमें कहा गया था कि रियासत में फिर से मुसलमानों के लिए खुतबा और अज़ान पर लगी रोक हटाई जाए, किसी भी धर्म का अपमान करने पर कड़ी सजा का प्रावधान किया जाए और शिक्षा व रोजगार में मुसलमानों को विशेष प्राथमिकता दी जाए। अप्रैल 1932 में महाराजा ने लगभग सभी मांगें मान लीं।
इसके अलावा आयोग ने यह भी अनुशंसा की थी कि राज्य में एक विधानसभा का गठन किया जाए। इसका स्वरूप कैसा होगा और यह किस तरह काम करेगी, इस बारे में विचार करने के लिए एक और आयोग बनाया गया।
शेख अब्दुल्ला ने आरोप लगाया कि यह आयोग बहुत सुस्ती से काम कर रहा है। इसके विरोध में मार्च 1933 में उन्होंने आंदोलन छेड़ दिया। उनकी माँग थी कि तुरंत ही रियासत में एक संवैधानिक सरकार का गठन किया जाए।
अंततः 1934 में आयोग ने महाराजा को सुझाव दिया कि मॉरले-मिंटो प्रस्ताव की तर्ज पर रियासत में भी एक सभा का गठन किया जाए। उसी के अनुसार अप्रैल 1934 में काश्मीर रियासत में प्रजा सभा का गठन हुआ। इसमें कुल 75 सदस्य होने थे, जिनमें से केवल 33 को चुनाव के द्वारा निर्वाचित किया जाना था।
इन 33 में से 21 सीटें मुसलमानों के लिए, 10 हिन्दुओं के लिए और 2 सिक्खों के लिए आरक्षित थी। इस प्रकार 75 सदस्यीय प्रजा सभा में भी बहुमत महाराजा का ही रहने वाला था क्योंकि निर्वाचित सदस्यों की संख्या केवल 33 ही थी। मतदान का अधिकार भी सभी के लिए नहीं था। जिस व्यक्ति की वार्षिक आय कम से कम 400 रुपये हो, केवल वही चुनाव में मतदान कर सकता था। महिलाओं और निरक्षरों को भी मतदान का अधिकार नहीं था।
वास्तव में इस प्रजा सभा के पास भी कोई अधिकार नहीं था। इसके संविधान के द्वारा रियासत के सभी विषयों में निर्णय लेने का अंतिम अधिकार केवल महाराजा को दे दिया गया था और महाराजा के निर्णय को कहीं चुनौती नहीं दी जा सकती थी। रियासत की सुरक्षा व्यवस्था और संविधान से जुड़े सभी विषय भी प्रजा सभा के अधिकार क्षेत्र से बाहर थे।
शेख अब्दुल्ला को इस प्रजा सभा में कोई विश्वास नहीं था, लेकिन उन्हें यह भी साबित करना था कि जन-समर्थन उनके साथ है। इसलिए उनकी पार्टी ने चुनाव लड़ा और मुस्लिमों के लिए आरक्षित 21 सीटों में से 19 पर उनकी जीत हुई।
उसी दौरान एक और घटना हुई, जिसका अब्दुल्ला को लाभ मिला।
काश्मीर की सीमाएं रूस, अफगानिस्तान और चीन से मिलती थीं, इसलिए अंग्रेज हमेशा आशंकित रहते थे कि वहाँ से रूस भारत में घुसकर उनके साम्राज्य में सेंध न लगा दे। इसी कारण वे काश्मीर की आंतरिक राजनीति में भी बहुत दखल देते थे। इससे छुटकारा पाने के लिए 1935 में महाराजा ने अंग्रेजों से समझौता कर लिया और गिलगित का सीमावर्ती इलाका साठ सालों की लीज पर पूरी तरह उनके हवाले कर दिया।
सीमावर्ती क्षेत्र का नियंत्रण अपने पास आ जाने पर अंग्रेजों ने काश्मीर की आंतरिक राजनीति से खुद को थोड़ा दूर कर लिया। उन्होंने रियासत के प्रधानमंत्री पद से अपने अंग्रेज अधिकारी कर्नल कॉलविन को भी हटा लिया और गोपालस्वामी अय्यंगर नए प्रधानमंत्री बने। उनके शासन में शेख अब्दुल्ला को अपनी राजनीति आगे बढ़ाने की थोड़ी और छूट मिल गई।
प्रजा सभा का दूसरा चुनाव 1938 में होना था। उसी दौरान काश्मीर में एक नई पार्टी का भी गठन हुआ। उसका नाम हिन्दू प्रोग्रेसिव पार्टी था, लेकिन वह हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करती थी। शेख अब्दुल्ला को चिंता हुई कि रियासत में एक और पार्टी खड़ी हो गई, तो उनकी राजनीतिक शक्ति कमजोर हो जाएगी। इसलिए उन्होंने फिर एक बार यह मुद्दा उछाला कि मुस्लिम कान्फ्रेंस के दरवाजे सबके लिए खोले जाएं। उस समय तक उन्होंने पार्टी के भीतर अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को भी धीरे-धीरे बाहर कर दिया था और पूरी पार्टी उनके नियंत्रण में आ चुकी थी। इसलिए उनका विरोध करने वाला कोई नहीं बचा था।
अंततः जून 1938 में मुस्लिम कान्फ्रेंस ने यह प्रस्ताव पारित कर दिया कि यह पार्टी अब केवल मुसलमानों की नहीं है और किसी भी संप्रदाय का व्यक्ति इसकी सदस्यता ले सकता है। 1939 में मुस्लिम कान्फ्रेंस का नाम बदलकर ‘नेशनल कान्फ्रेंस’ कर दिया गया। यही आज के फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेंस है।
उसी वर्ष लाहौर में पहली बार नेहरू जी से उनकी मुलाकात हुई। उन दिनों नेहरू उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत के दौरे पर थे। शेख अब्दुल्ला भी इस पूरी यात्रा में उनके साथ रहे और यहीं से उन दोनों की दोस्ती की शुरुआत हुई।
1938-39 तक काश्मीर के विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक संगठनों के बीच यह आपसी सहमति भी बनने लगी थी कि जम्मू-काश्मीर का स्वतंत्रता आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से अलग नहीं है और भारत की स्वतंत्रता के बाद जम्मू-काश्मीर रियासत को भी पूरी तरह भारत में मिल जाना चाहिए। मुस्लिम कान्फ्रेंस, काश्मीरी पण्डित युवक सभा, काँग्रेस और हिन्दू प्रोग्रेसिव पार्टी आदि सभी इस बात पर सहमत थे। उन्होंने यह प्रस्ताव भी पारित किया कि पूरा भारत एक है और जम्मू-काश्मीर रियासत इसका अभिन्न अंग है।
1939 में जब द्वितीय विश्व-युद्ध छिड़ गया और ब्रिटिश सरकार ने भारत में भी आपातकाल लगाकर हमारे संसाधनों व सैनिकों को ब्रिटेन की ओर से लड़ने के लिए लगा दिया, तो इसके विरोध में काँग्रेस ने प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया। काँग्रेस के हटने से इन प्रांतों की राजनीति में जो जगह खाली हुई थी, उससे मुस्लिम लीग को अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिला और उसने युद्ध में ब्रिटिश सरकार को पूरी सहायता देने की घोषणा कर दी।
काँग्रेस के विरोध को देखकर ब्रिटिश सरकार को भी यह चिंता हुई कि भारत की स्वतंत्रता के बाद यदि पूरे ब्रिटिश भारत (आज का भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) पर काँग्रेस का शासन हो गया, तो इस पूरे क्षेत्र से ब्रिटेन का प्रभाव पूरी तरह समाप्त हो जाएगा और भविष्य में भारत से कभी सैन्य सहायता भी नहीं मिल सकेगी।
यह ब्रिटेन के लिए चिंताजनक था क्योंकि मध्य पूर्व में तेल के बड़े भंडार थे और उन पर नियंत्रण बनाए रखने व रूस को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भारत की पश्चिमी सीमा पर ब्रिटिश सेना की मौजूदगी आवश्यक थी। इसके लिए ज़रूरी था कि भारत के पश्चिमी इलाके में ऐसी सरकार हो, जो स्वतंत्रता के बाद भी ब्रिटेन की सहायता जारी रखे और विरोध न करे। इसलिए मुस्लिम लीग को आगे बढ़ाने में अंग्रेजों को भी अपना फायदा दिखाई दिया।
जिन्ना को भी यह बात अच्छी तरह समझ आ गई थी कि अंग्रेज सरकार को भी मुस्लिम लीग की ज़रूरत है। उन्होंने भी अब पाकिस्तान की माँग और तेज कर दी। मार्च 1940 में ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग का अधिवेशन लाहौर में हुआ। वहीं मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश बनाने की माँग करने वाला अपना प्रस्ताव पारित किया। इसी माँग के आधार पर आगे चलकर पाकिस्तान का जन्म हुआ था।
अंग्रेजों को इसमें कई फायदे दिखाई दिए। एक तो यह कि काँग्रेस के विरोध में मुस्लिम लीग को खड़ा करने से काँग्रेस कमजोर हो रही थी और आजादी का आन्दोलन धीमा पड़ रहा था, दूसरा यह कि ब्रिटिश भारत अगर कई टुकड़ों में बिखर जाए, तो उसके अलग-अलग हिस्से आपस में लड़ते रहेंगे और उनकी मदद के बहाने ब्रिटेन का दखल आगे भी यहाँ बना रहेगा, और तीसरा फायदा यह कि यदि इस्लाम के नाम पर एक नया देश बन जाए, तो भविष्य में मध्य पूर्व के इलाके में रूसी सेना के खिलाफ लड़ने में ब्रिटेन की मदद के लिए पाकिस्तान को राजी करना हमेशा आसान रहेगा। पाकिस्तान बनने का मतलब यह भी था कि पश्चिम में कराची का बंदरगाह और पूर्व में चट्टग्राम का बंदरगाह भी ब्रिटिश नौसेना के लिए उपलब्ध रहेगा।
इसलिए ब्रिटिश सरकार भी बार-बार गाँधी-नेहरू को यह कहकर चेतावनी देती रही कि यदि पाकिस्तान को बनाने की सहमति नहीं दी गई, तो भारत में गृह-युद्ध छिड़ जाएगा और स्वतंत्रता के बाद सरकार चलाना काँग्रेस के लिए असंभव हो जाएगा। अंततः काँग्रेस इस दबाव के आगे झुक गई और उसने भी भारत-विभाजन की माँग को स्वीकार कर लिया।
मई-जून 1940 में नेहरू जी गर्मी की छुट्टियाँ बिताने काश्मीर गए और शेख अब्दुल्ला के मेहमान बने। वहाँ अब्दुल्ला के प्रति लोगों का अपार समर्थन देखकर उन्हें विश्वास हो गया था कि शेख अब्दुल्ला ही जम्मू-काश्मीर रियासत के सर्वमान्य नेता हैं। शेख अब्दुल्ला ने भी और अधिक मजबूती के साथ अपनी पार्टी को काँग्रेस की तरफ मोड़ लिया। 1942 में शेख अब्दुल्ला ने भी काँग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन किया।
इन सारी बातों से नाराज जिन्ना की मुस्लिम लीग ने नेशनल कान्फ्रेंस में फूट डालकर गुलाम अब्बास के नेतृत्व वाले गुट को शेख अब्दुल्ला से अलग किया और पुरानी मुस्लिम कान्फ्रेंस को फिर खड़ा करने की कोशिश की, ताकि काश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करवाने के उनके प्रयासों में सफलता मिल सके। लेकिन इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ।
1944 में शेख अब्दुल्ला ने न्यू काश्मीर प्लान के नाम से जम्मू-काश्मीर के लिए एक नया संविधान प्रस्तावित किया। उसी वर्ष गर्मी की छुट्टी बिताने के बहाने जिन्ना भी काश्मीर आए और मुस्लिम कान्फ्रेंस के कार्यक्रमों में उन्होंने मुसलमानों से इस्लाम के नाम पर एकजुट होकर पाकिस्तान की माँग का समर्थन करने की अपील की। जवाब में शेख अब्दुल्ला ने भी पूरे काश्मीर में सभाओं की झड़ी लगा दी और भारत में शामिल होने की वकालत की।
ऐसे माहौल में नेहरू और अब्दुल्ला भी यह दिखाने को उत्सुक थे कि उन दोनों की पार्टियों में बहुत गहरी दोस्ती है और दोनों पूरी तरह एक-दूसरे का सहयोग करेंगे। अगस्त में नेशनल कान्फ्रेंस ने अपना वार्षिक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें काँग्रेस के कई बड़े नेता भी सम्मिलित हुए। यहीं अपने भाषण में नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को शेर-ए-काश्मीर कहा और लोगों से अपील की कि उन्हें बड़ी संख्या में नेशनल कान्फ्रेंस में शामिल होना चाहिए।
इन सब बातों से उत्साहित शेख अब्दुल्ला ने भी महाराजा हरीसिंह के खिलाफ अपना आंदोलन और तेज कर दिया। 1942 के महात्मा गाँधी के भारत छोड़ो आंदोलन की तर्ज पर अब्दुल्ला ने 1946 में महाराजा के विरुद्ध काश्मीर छोड़ो आन्दोलन का नारा दिया। शेख अब्दुल्ला ने अब यहाँ तक कहना शुरू कर दिया कि काश्मीर रियासत पर डोगरा शासकों का कोई नैतिक अधिकार ही नहीं है, बल्कि महाराजा गुलाब सिंह ने 1846 में अंग्रेजों से 75 लाख में सौदा करके काश्मीर रियासत पर कब्जा कर लिया था। सारे काश्मीरियों को चन्दा इकट्ठा करके वे 75 लाख रुपये महाराजा हरि सिंह को लौटा देने चाहिए और उन्हें काश्मीर से बाहर खदेड़ देना चाहिए।
इससे ज्यादा बर्दाश्त करना महाराजा के लिए संभव नहीं था। शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय अब्दुल्ला नेहरू से मिलने दिल्ली की ओर जा रहे थे। इस गिरफ़्तारी के विरोध में नेहरू जी ने कई बयान जारी किए और लगातार महाराजा हरि सिंह की आलोचना की। नेहरू जी स्वयं वकील भी थे, इसलिए वे शेख अब्दुल्ला का केस लड़ने के इरादे से काश्मीर आए। लेकिन उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में श्रीनगर ले जाकर छोड़ दिया गया। इसका बदला नेहरू जी बाद में लिया।
भारत की आजादी के पहले से ही यह बात स्पष्ट थी कि ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि काश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाए, भारत में नहीं। जून 1947 में भारत विभाजन की अपनी योजना घोषित करने के बाद खुद माउंटबैटन ने श्रीनगर जाकर महाराजा हरि सिंह को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश की थी कि वे अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिला दें। लेकिन हरि सिंह ने यह बात नहीं मानी।
दूसरी तरफ सरदार पटेल भी जून 1947 से ही लगातार पत्र लिखकर महाराजा को मनाने का प्रयास कर रहे थे कि वे भारत में शामिल हो जाएं। लेकिन महाराजा इसके लिए भी राजी नहीं थे। वे मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान या लोकतांत्रिक भारत दोनों में ही शामिल नहीं होना चाहते थे, बल्कि उनकी आकांक्षा थी कि जम्मू-काश्मीर स्वतंत्र देश बन जाए और वे उसके एकमात्र शासक बने रहें। रियासत के प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक भी महाराजा को इसी बात के लिए उकसा रहे थे कि वे रियासत को भारत में शामिल न करें। उनकी पत्नी ब्रिटिश थी और ऐसा माना जाता है कि वे काश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की अंग्रेजों की योजना में शामिल थे।
महाराजा हरि सिंह ने 12 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान की सरकारों को यह संदेश भिजवाया कि वे जम्मू-काश्मीर रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते हैं और भारत या पाकिस्तान में विलय करने के बजाय इन दोनों देशों के साथ बराबरी का समझौता करना चाहते हैं।
पाकिस्तान ने 15 अगस्त को यह प्रस्ताव स्वीकार तो कर लिया, लेकिन 24 अगस्त से ही यह धमकी भेजनी भी शुरू कर दी कि महाराजा हरि सिंह को पाकिस्तान में शामिल हो जाना चाहिए अन्यथा रियासत में युद्ध छिड़ जाएगा और उसके परिणाम की कोई जिम्मेदारी पाकिस्तान की नहीं होगी। जिन्ना ने स्वयं अपने निजी सचिव को महाराजा से बात करने के लिए भेजा था और जिन्ना स्वयं भी बीमारी के बहाने श्रीनगर में कुछ दिन आराम करने के लिए आना चाहते थे, ताकि महाराजा पर दबाव बढ़ाने का प्रयास किया जा सके।
अब महाराजा हरि सिंह को आशंका हुई कि पाकिस्तान काश्मीर पर आक्रमण करने वाला है। इसलिए सितंबर में ही महाराजा ने भारत सरकार को यह संकेत देना शुरू कर दिया था कि वे भारत में शामिल होना चाहते हैं। उन्होंने अपने पाकिस्तान समर्थक प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक को पद से हटा दिया और उनकी जगह जनक सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। लेकिन दो माह बाद ही उन्हें भी हटा दिया गया और अक्टूबर में मेहर चंद महाजन जम्मू-काश्मीर रियासत के प्रधानमंत्री बनाए गए। काश्मीर को भारत में मिलाने में उनकी भी बड़ी भूमिका थी।
यह बड़ी अजीब बात है कि भारत के गवर्नर जनरल होते हुए भी माउंटबैटन यही प्रयास करते रहे कि काश्मीर भारत की बजाय पाकिस्तान में ही शामिल हो जाए।
लेकिन उससे भी ज्यादा विचित्र यह है कि नेहरू जी भी काश्मीर के भारत में विलय के प्रस्ताव को मानने को राजी नहीं थे। उन्हें शेख अब्दुल्ला से अपनी दोस्ती निभानी थी और महाराजा से अपने पुराने अपमान का बदला भी लेना था। इस कारण नेहरू जी इस जिद पर अड़े रहे कि महाराजा हरि सिंह शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा करके रियासत के सभी अधिकार अब्दुल्ला को सौंप दें और खुद रियासत को छोड़कर हमेशा के लिए वहाँ से चले जाएँ। महाराजा हरि सिंह यह शर्त मानने को तैयार नहीं थे। उन दोनों के बीच यह खींचतान चलती रही और काश्मीर का भारत में विलय टलता रहा। भारत की इस देरी का सीधा फायदा पाकिस्तान को मिला और अक्टूबर 1947 में उसने जम्मू-काश्मीर रियासत पर हमला कर दिया।
अंततः महाराजा को 30 अक्टूबर 1947 को शेख अब्दुल्ला को रियासत का आपातकालीन प्रशासक घोषित करना पड़ा। मार्च 1948 तक सत्ता पूरी तरह अब्दुल्ला के हाथों में आ गई और 1952 में महाराजा हमेशा के लिए काश्मीर छोड़कर चले गए। उसके बाद वे कभी अपनी रियासत में वापस नहीं लौट सके और 1961 में मुंबई में ही उनकी मौत हो गई।

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