कुछ लाख मुस्लिमों ने, एक लाख दस हजार अंग्रेजों ने अगर भारत पर सैकड़ों साल राज्य किया तो वह अपने गुणों के कारण नहीं बल्कि हमारे दुर्गुणों के कारण।
मु स्लिमों को पिछले हजार साल में जब भी, जहां भी मौका मिला उन्होंने हिंदुओं की आस्था, स्वाभिमान, स्त्रियों और यहां तक की प्राण लेने में संकोच न किया।
अंग्रेजों को ज्यों ही पहला मौका मिला उन्होंने एक झटके से मुगल बादशाह से बादशाहत छीनकर ताज अपनी रानी के सिर पर रख दिया पर हमारे पेशवे बहादुर लालकिले पर कब्जा करने के बाद भी विश्वासराव का या फिर स्व. बाजीराव की पूर्वसंधि के अनुसार उदयपुर के राणा को भारत सम्राट घोषित करने की हिम्मत न जुटा सके।
अंग्रेजों को भला क्या लेना देना था सोमनाथ से लेकिन गजनी पर जब ब्रिटिशों ने हमला किया तो अफगानों को सबक सिखाने के लिए हिंदुओं के प्रतिशोध को माध्यम बनाया और गजनी को मैदान बना दिया और कहते हैं वे दरवाजे ले आये जिन्हें महमूद गजनवी सोमनाथ से उखड़वाकर ले गया था जबकि हमारे महान योद्धा और विलक्षण कूटनीतिज्ञ महाराज सूरजमल ने पॉलिटिकल करेक्टनैस में मथुरा की मस्जिद न तो नष्ट की और न मराठों को करने दी।
लेकिन-
-जयपुर नरेश जिन्होंने भरतपुर के जाटों से मंडवा मांडौली का युद्ध सिर्फ इसलिए लड़ा कि जोधपुर के राजा ने जवाहरसिंह को एक कालीन पर बिठाया तो जवाहरसिंह ने बैठने की धृष्टता क्यों की लेकिन भरतपुर के जाटों को अधीनस्थता का अधिकार जताते हुए ये कभी आदेश नहीं दिया कि मथुरा और आगरा के कलंकों को उखाड़ फेंको और इस काम में जयपुर की सैन्यशक्ति तुम्हारे साथ है।
-महाराज सूरजमल निजी अपमान पर तो इतने क्रुद्ध हो गए कि हंसा रानी को लेकर दिल्ली के लालकिले को मटियामेट करने चढ़ाई कर दिये लेकिन मथुरा की कृष्णजन्मभूमि व आगरा की मस्जिद की सीढ़ियों में जड़ी कृष्ण की मूर्ति से उनका अपमानबोध कभी नहीं जागा।
-महादजी सिंधिया शाहआलम का प्रतिशोध लेने कहाँ कहाँ दौड़ते फिरे लेकिन आगरा जिसकी सूबेदारी उनके पास थी और मथुरा जिसके ताबे में थी वहाँ उन्हें कोई अपमान नजर नहीं आया।
क्या आगरा पर कब्जा जमाए महाराज सूरजमल, महादजी सिंधिया आदि को आगरा की इस मस्जिद का पता नहीं होगा कि इसकी सीढ़ियों में केशवराय भगवान कृष्ण की मूर्ति जड़ी है ताकि नमाजी उसपर जूते पोंछकर हिंदुओं को हर रोज जलील करें।
बचपन से जब से यह पढ़ा था तब से आज तक यही सोचता रहा कि हम हिंदू इतने जलील क्यों हैं।
जब नजदीक से इन नेताओं की, अधिकारियों की, जज साहबों की जीवनशैली देखी तब समझ आ गया कि जिस विलास और सुख ने इन्हें राष्ट्रीय मान सम्मान से बेपरवाह बना दिया और यह बीमारी तब भी थी।
भौतिकता से त्याग का गजब पाखंड बतियाने वाले हिंदू संसार के सबसे ज्यादा निर्लज्ज भौतिकतावादी हैं और विरोधाभास देखिये अरबों रुपयों को ठोकर मारकर सैकड़ों संन्यासी हो चुके सम्प्रदाय, जैन सम्प्रदाय के दो जैन पिता-पुत्र हिंदुओं के आत्मसम्मान की लड़ाई दो पीढ़ियों से लड़ रहे हैं।
कभी कभी सोचता हूँ कि नेता तो खैर कहने ही क्या लेकिन न्यायधीशों की कुर्सियों पर बैठे तों तोंदियल मी लोडों को हिन्दुत्वबोध छोड़िये न्यायबोध भी जागता है क्या जो तारीख पर तारीख देते रहते हैं?
अगर पुनर्जन्म होता है तो और ईश्वर का अस्तित्व कहीं है तो अगले जन्म में मुझे हिंदू नहीं बल्कि इजरायली या जापानी बनाकर पैदा करना क्योंकि इस आत्महीन हिंदू समाज की बेशर्मी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती।