हम भारतीय कमाल के हैं। मतलब, सीधी-सादी, अच्छी बात का तिया-पांचा कर देने में हमारा कोई सानी नहीं।
दक्षिण की कुछ अच्छी फिल्में रिलीज हुईं। संयोग या दुर्योग, बॉलीवुड वालों के गटर का ढक्कन भी उसी समय खुला, कुछ फिल्में जो उनकी इज्जत बचा लेती थीं, वह भी नहीं बनीं। दक्षिण की फिल्में खूब चलीं, झमाझम चलीं।
फैक्ट बस इतना सा है। भाई, अंग्रेजी फिल्में भी जिस तरह अच्छी और बुरी होती हैं, साउथ की भी एक से एक बकवास फिल्में आती हैं, मिठुन दा की ग्रैविटी को मात देने वाली फिल्मों से भी खतरनाक फिल्में हमारे तेलुगु, तमिल, कन्नड़ या मलयालम में बन सकती हैं, बन जाती हैं।
पर, वो भारतीय क्या जो राबड़ी को गोबर में लपेट कर न खाए…। अर्द्धशिक्षित अजय देवगण और संदीप किच्चा ने जो रायता शुरू किया, उसमें चिरंजीव आकर बताने लगे कि दिल्ली में दक्षिण की फिल्मों को अपमानित किया गया। कुछ ही दिनों में यह पूरी बात दक्षिण बनाम उत्तर की न हो जाए, तो बात ही क्या…। मुझे अपने देश और देशवासियों पर पूरा भरोसा है।