Home विषयसाहित्य लेख हाथी और 6 अन्धो की कहानी

हाथी और 6 अन्धो की कहानी

छह अंधों को एक बार एक हाथी मिल गया। वे देख तो नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने उसे छूकर टटोला और जिसको जैसा समझ आया, उसने हाथी का वैसा वर्णन किया।
जिसने सूंड पकड़ी थी, उसने कहा कि हाथी सांप जैसा होता है। जिसने पूंछ पकड़ी थी, उसने हाथी को रस्सी जैसा बताया। जिसके हाथ कानों तक पहुंचे, उसने दावा किया कि हाथी सूपे जैसा होता है और जिसने पैरों को टटोला, उसको हाथी खंभे जैसा लगा। जिसने हाथी के दांतों को पकड़ा था, उसने कहा कि हाथी किसी भाले जैसा नुकीला है और जिसने उसके पेट को टटोला, उसे हाथी किसी दीवार जैसा मालूम हुआ।
स्पष्ट है कि हाथी इनमें से किसी के जैसा नहीं था और न वे अंधे कभी ठीक से समझ पाए कि हाथी कैसा होता है। लेकिन वे अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहे और किसी के समझाने पर भी यह मानने को तैयार नहीं हुए कि हाथी किसी और का तरह का हो सकता है।
वे बेचारे तो आंखों से अंधे थे, लेकिन आजकल बहुत-से अकल के अंधे भी यहां दिखाई देते हैं। उनमें से किसी ने धर्म को या शास्त्रों को पढ़ने, समझने अथवा आचरण करने का कोई प्रयास नहीं किया है। उनमें कुछ सीखने-समझने का धैर्य भी नहीं है और न विनम्रता है। लेकिन सर्वज्ञ होने का भ्रम और अहंकार उनमें कूट-कूटकर भरा हुआ है। इस कारण वे प्रतिदिन किसी न किसी विषय में कोई निर्णय सुनाते रहते हैं।
ऐसे ही लोग हर दो चार दिन में यह सार्वजनिक आदेश देते रहते हैं कि शाकाहार ही हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी शर्त है। हर हिन्दू को शाकाहारी ही होना पड़ेगा। जो मांसाहारी है, वह उनके अनुसार निंदनीय है। उन्हें लगता है कि मांसाहार से धर्म का विनाश हो जाएगा।
किसी को उपवास अनिवार्य लगता है। किसी को मदिरापान से आपत्ति है। किसी को यह प्रश्न सताता है कि सालभर अमर्यादित आचरण करने वाले लोग केवल नवरात्रि में या हर मंगलवार को ही संयम का पालन क्यों करते हैं? कोई इस बात पर बहस करता है कि हिन्दुओं का नया साल चैत्र से माना जाए या दीपावली से। किसी को यह चिंता है कि रामनवमी के जुलूस में जय श्री राम का नारा लगाना धर्म सम्मत नहीं है। ऐसे लोग न जाने कितने आदेश, कितनी घोषणाएं और कितनी चिंताएं रोज सुबह शाम व्यक्त करते रहते हैं। लेकिन अपने स्वयं के आचरण पर लगभग किसी का ध्यान नहीं है और अपने धर्म की बारे में इन सबकी समझ भी लगभग शून्य है। अगर न होती, तो वे रोज रोज ऐसी मूर्खता न कर रहे होते।
हिन्दू धर्म को इन संकीर्ण परिभाषाओं में बांधने का प्रयास करने वालों की स्थिति हाथी का वर्णन करने वाले उन अंधों जैसी ही है। इन्हें भी लगता है कि जितना इनकी दृष्टि में उचित है, हिन्दू धर्म केवल उतना ही है और उतना ही रहना चाहिए। इसलिए जो उनके संकीर्ण वैचारिक दायरे को स्वीकार न करे, वह धर्म का विरोधी है और वही समाज की सारी समस्याओं का जिम्मेदार है।
ऐसे लोगों को मेरा सुझाव है कि हिन्दू धर्म को परिभाषित करने या उसकी सीमाओं का दायरा तय करने के झंझट में न उलझें। इसकी बजाय इंटरनेट से मुफ्त डाउनलोड करके अपने धर्मग्रंथों और शास्त्रों को ठीक से पढ़ें, समझें और उनके अनुसार अपने जीवन में आचरण करें। यदि कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ेंगे, तभी पता चलेगा कि हिन्दू धर्म का दायरा अत्यंत व्यापक और लचीला है। इसमें हर व्यक्ति को अपनी अपनी क्षमता, योग्यता और प्रवृत्ति के अनुसार सत्य की खोज का प्रयास करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। द्वैत और अद्वैत को मानने वाले, ज्ञान-भक्ति-कर्म में से किसी भी मार्ग को अपनाने वाले, संयम का गुणगान करने वाले या ऋण लेकर घी पीने वाले, पशुओं की बलि देने वाले या कबूतर को बचाने के लिए उसके वजन के बराबर अपना मांस तौलने वाले तक सब इस धर्म में स्वीकार्य हैं। ईश्वर को सर्वव्यापी बताने वाले या उसे ढकोसला कहकर उपहास उड़ाने वालों तक सबको इस धर्म में बराबर का दर्जा प्राप्त है। आस्तिक हो, नास्तिक हो, शैव हो, वैष्णव हो, शाकाहारी हो या मांसाहारी, हर कोई हिन्दू हो सकता है। परम सत्य को जानने के लिए हर जीव को अपना मार्ग स्वयं चुनने का आदेश और स्वतंत्रता इस धर्म ने दी हुई है।
यदि आपको यह बात समझ आती हो, तो बहुत अच्छी बात है। यदि न आती हो, तो भी ठीक है। आपको हिन्दू धर्म को जैसे भी परिभाषित करना हो करें। लेकिन केवल स्वयं के लिए करें और स्वयं ही उस पर आचरण करें। स्वयं असंयत और अमर्यादित व्यवहार करके दूसरों को धर्म और शास्त्र का उपदेश न दें। हिन्दू धर्म की आपकी परिभाषा केवल आप पर लागू होती है और आपका अधिकार क्षेत्र केवल उतना ही है। कृपया आप अपने संकीर्ण दायरे तक ही सीमित रहें।
जिस किसी को यह भ्रम है कि हिन्दू धर्म को किसी एक आहार, एक ईश्वर, एक उपासना पद्धति, एक भाषा, एक ग्रंथ, एक पंचांग, एक विचार या एक विशेष रंग के अनुसार ही परिभाषित किया जाए, उस व्यक्ति की हालत वास्तव में हाथी का वर्णन करने वाले अंधों जैसी ही है। उसकी विकलांगता से मुझे पूरी सहानुभूति है लेकिन उस सहानुभूति को व्यक्त करने के लिए अपनी आंखें फोड़कर अंधा हो जाना मुझे स्वीकार नहीं है। जो अकल के अंधे अपने सीमित दायरे में ही धर्म की व्याख्या करना चाहते हैं, वे अवश्य ऐसा ही करें। लेकिन दूसरों से अपनी बुद्धि को ताला लगाकर मूर्ख बनने को न कहें। आप अपने कुएं को ही संसार समझने को अभिशप्त हैं, लेकिन असीम महासागर को छोड़कर आपके कुएं में गिरने का मेरा कोई इरादा नहीं है। सादर!

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