Home मधुलिका यादव शची हे! #नारी_कैसे_तुम्हें_सम्मान_दूँ | प्रारब्ध

हे! #नारी_कैसे_तुम्हें_सम्मान_दूँ | प्रारब्ध

लेखिका - मधुलिका शची

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यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।५६।।
[यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) ।]
अर्थात-:जहां स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं ।
उक्त वचन मनुस्मृति के हैं जो एक विवादास्पद ग्रंथ माना जाता है, फिर भी जिस पर हिंदू समाज के नियम-कानून कुछ हद तक आधारित हैं ।
ये सब बताने या लिखने का मात्र एक उद्देश्य है।मैं स्वयं इस भारतीय संस्कृति में महिला होते हुए आप महिलाओं के कृत्यों पर शर्मिंदा हूँ।घृणा होती है,आज की कुछ विकृत महिला मानसिकता से परिचित होने पर।फेसबुक हो या इंस्टाग्राम,जिस तरह कुछ महिलाओं ने अपने अंग विशेष मात्र का प्रदर्शन कर अपने ही स्त्रीत्व का मज़ाक बनाया है वो पूरी महिला समूह के लिए शर्मिंदगी का विषय है।
ऊपर लिखे हुए श्लोकों के आधार पर मैं एक महिला हो कर भी इन महिलाओं को सम्मान देने में असमर्थ हूँ।कैसे सम्मानित नज़रों से देखूँ इन विकृत महिलाओं को जो अपने ही शरीर का घृणित प्रदर्शन कर रही हैं।जरा विचार कीजिए यदि पुरुष कुछ ऐसा कभी करें तो कितना बड़ा हंगामा मच जाएगा।
पुरुषों को गाली देना सरल है, कठिन है अपने स्त्रीत्व को बचा कर पूरी स्त्री जाति का सम्मान बचाना।
रिल्स बन रहे और चेहरे या अभिनय के स्थान पर अपने निज़ी अंगों का प्रदर्शन कर जाने ये स्त्रियां क्या पा लेना चाहती हैं।कई बार सोचती हूं कि क्या इनके परिवार में कोई नहीं होता?या होते हैं तो अपनी ही बहन बेटियों के इन हरकतों को कैसे बर्दाश्त करते होंगे।
फेमिनिस्म शब्द का जितना दुरुपयोग किया गया है इस समय में शायद ही कभी किया गया हो।फेमिनिज्म का अर्थ महिलाओं को सशक्त करना है ना कि नंगेपन को बढ़ावा देना,और नंगे होने की प्रवृति के हक़ में क़सीदे पढ़ना।
स्त्रियाँ क्या विरोध करेंगी??माँ -बहन से जुड़ी गालियों से अब स्वयं ही अपने वचनों को सुशोभित करने लगी हैं।सच में देख कर सुन कर आश्चर्य होता है कि पढ़ी लिखी स्त्रियाँ यदि ये हैं तो बेहतर थी अनपढ़ स्त्रियाँ।
आदिवासी स्त्रियाँ कुछ दशकों पहले तक ऊपर में कोई कपड़ा नहीं पहनती थीं किंतु कभी अपने उन अंगों की प्रदर्शनी नहीं लगाया करती थीं।
इसे सभ्यता का विकास कहते हैं तो धिक्कार है।क्योंकि हम तो फिर उसी नंगेपन की तरफ बढ़ रहे हैं,जहाँ से यहाँ तक आए(आदि मानवों की तरह)
पढ़ों लिखो ,जो पहनने का मन हो पहनों पर कम से कम प्रदर्शनी तो ना लगाओ।अपनी ही इज़्ज़त की धज्जियां उड़वा कर कौन सी इज़्ज़त कमानी है तुम्हें।
एक माँ खुलेआम सड़क पर भी यदि खुले तौर पर संतान को स्तनपान कराएगी उसे देख कर सम्मान और श्रद्धा ही उमड़ेगी।किंतु आज इस अंग विशेष का जिस तरह उपयोग कर रही हैं स्त्रियाँ घृणित है सचमुच घृणित।
जब तुम्हें समाज के द्वारा दबाया गया कुचला गया और दरकिनार किया गया तब भी तुमने समय समय पर वो कर दिखाया जो कई पुरुषों तक से संभव नहीं था।और आज जब तुम्हें मोके मिले हैं, सुविधाएं मिली हैं तो उसका उपयोग कर स्वयं को आगे बढ़ाने की जगह गर्त में गिरती जा रही हो।
मिलों कभी उन महिलाओं से जो आज भी जमीनी स्तर पर स्त्री हो कर स्त्रीत्व की लड़ाई में लगी हैं।जो जूझ रही हैं जीवन में कुछ कर गुजर जाने के लिए।अपने साथ साथ अपनी समूची जाति को गर्वान्वित कर रही हैं।
मत बनो दुर्गा मत बनो सावित्री हे ! स्त्री बस स्त्रीत्व बचा लो।
लिखने का मन और है,क्रोध भरा पड़ा है अंदर किंतु फिर कभी और …..

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