नब्बे के दसक में भारत एक अजीब दोराहे पर खड़ा था.
एक ओर असल भारत था – गरीब भारत, जहां आज की तारीख़ की हर कामन वस्तु भी लक्शरी थी. आज महिलाओं के सनिटरी पैड गरीब से गरीब घरों में भी इश्तेमाल होते हैं, तब अच्छे घरों में पुराने कपड़े का इश्तेमाल होता था. बच्चों के डायपर तो खैर बहुत अमीर घरों में भी इश्तेमाल न हो पाते थे. बाहर रेस्टोरेंट में खाना अपर मिडिल क्लास वाले भी तभी खाते थे जब शो ऑफ़ करना होता था. वैकेशन में तो बड़े बड़े धन्ना सेठ न जा पाते थे. कपड़े बेसिक होते थे. एक अच्छी जींस लेवी आदि ब्रांड तो खैर सोंचे न जा सकते थे न्यू पोर्ट की जींस 499 से आरम्भ होती थी जो उस वक्त के हिसाब से बहुत ज़्यादा थे.
सत्तर अस्सी के दसक के लोगों को संतोष था. उन्होंने कुछ देखा ही न था. दूर दर्शन पर देख और सोवियत मैगज़ीन में पढ़ उनका जीवन कट गया यही सच मानते कि पूरी दुनिया में ऐसा ही लाइफ़ स्टाइल है. ज्ञान के अभाव में आज भी काफ़ी सारे लोग ऐसा ही मानते हैं. पर नब्बे के दसक में भारतीय इकॉनमी ओपन हुई, सैटेलाइट चैनल आरम्भ हुवे तो आम भारतीयों की आँखे चौंधिया गईं. भारतीय असपीरेशनल लोग हैं तो उनकी आकांक्षाएँ जाग गईं. सपने देखे जाने लगे.
इन सपनों का सबसे ज़्यादा फ़ायदा बॉलीवुड ने उठाया. वह सपने बेंचने लगा. विदेशी लोकेशन पर शूटिंग. खुले आम रोमांस, डेटिंग दिखाया जाने लगा – उस भारत में जहां उस दौर में कहा जाता था एक लड़का और एक लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते. हीरो कूल टी शर्ट पहन गिटार लेकर स्वप्निल विदेशी लोकेशन पर गाना गाते थे. उनके चारों ओर हंसते खिलखिलाते खूबसूरत चेहरे होते. सब लोग कितना खुश कितना सम्पन्न नज़र आते. कितनी सफ़ाई, कितनी चौड़ी सड़कें हो सकती हैं. कारों की इतनी वराइयटी – भारत में उस दौर तक केवल दो कारें होती थीं, मारुति और अंबेसडर.
बॉलीवुड सपने बेंचता था. मुझे याद है इंडिया टुडे की फ़्रंट पेज न्यूज़ थी, कुछ कुछ होता है में शाहरुख़ खान ने US पोलो की टी शर्ट पहनी थी. यही खबर थी कि अब भारत भी इतना अमीर हो गया है कि फ़िल्मों में हीरो पोलो टी शर्ट पहनने लगे हैं (आज US पोलो एक सामान्य टेम्पो वाला भी पहन सकता है). बॉलीवुड की सारी फ़िल्में एक सपना दिखाती थीं कि जीवन ऐसा भी हो सकता है.
तीस वर्षों में देश में इतनी सम्पन्नता आ गई कि ये सब चीजें सपना न रहीं. आज के दौर में बाहर खाना, वैकेशन पर जाना, branded कपड़े पहनना लक्शरी न रह गया.
बॉलीवुड के पास कांटेंट न तब था न अब है. टैलेंट न तब था न अब है. जब तक सपने बेंच पाए दुकान चली, जब जनता के वो सपने साकार हो गए तो बॉलीवुड पूरी तरह आप्रसंगिक हो गया.
बॉलीवुड को घनघोर इंट्रो इन्स्पेक्शन की ज़रूरत है. जनता ने नब्बे के सपने साकार कर लिए और बॉलीवुड अभी भी उन्ही सब पर अटका है.