Home चलचित्र एक कन्फेशन… :Ramayana Vs Aadipurush
    • मैंने आजतक रामानंद सागर की रामायण का एक भी एपिसोड पूरा नहीं देखा है. बी आर चोपड़ा की महाभारत भी नहीं देखी. देखी ही नहीं गई.
      मुझे रामायण और महाभारत का फिल्मांकन इतना नाटकीय और उबाऊ लगा कि एक भी एपिसोड झेल नहीं पाया. रामायण की खींच खींच कर की गई डायलॉग डिलीवरी, बिना बात के ठूंसा गया बेसुरा म्यूजिक, बचकाने युद्ध के दृश्य, तीन तीन मिनट तक हवा में चलते दिव्यास्त्र जो अगले पैंतालीस सेकंड तक एक दूसरे से टकराते रहते थे, मुझसे बर्दाश्त नहीं हुए. महाभारत की टाइप्ड डायलॉग डिलीवरी और अनावश्यक लाउड कैरेक्टर्स मुझसे झेले नहीं गए. इन दोनों सीरियल्स के प्रसारण के समय को मैं ट्रेन के टिकट कटाने या अशोक राजपथ या डाकबंगला पर कोई भी काम निबटाने के लिए सबसे उपयुक्त गिनता था क्योंकि भीड़ नहीं होती थी. कुछ नहीं तो सीढ़ियों पर झाड़ू देने या छत धोने में लग जाता था, पर एक भी एपिसोड देखा नहीं गया.
      रामायण के समय बहुत से घरों में कलर टीवी नहीं था तो हमारे घर में टेलीविजन हॉल में लगा दिया जाता था जहां पूरा मोहल्ला देखता था.

पर रामायण और महाभारत की वह प्रस्तुतियां बेहद बेहद सफल हुईं और सराही गईं. मेरी अपनी पसंद या नापसंद मायने नहीं रखती.

आदिपुरूष को लेकर भी मेरा यही रवैया है. अगर फिल्म का फिल्मांकन लोगों को पसंद नहीं आएगा तो लोग उसे नकार देंगे. अगर पसंद आएगा तो स्वीकार करेंगे. अगर फिल्म के कथ्य में चरित्रों के मूल स्वभाव से छेड़छाड़ की जाएगी, रावण को सकारात्मक और राम को नकारात्मक ढंग से पेश किया जाएगा तो अवश्य विरोध करूंगा. पर ड्रेस कैसी है, कॉस्ट्यूम और इफेक्ट्स कैसे हैं ये सब पसंद और नापसंद का विषय तो हो सकता है, भावनाएं आहत होने का नहीं. वैसे मेरी नजर में पूरा बॉलिवुड घटिया है और इसका घटिया होना इसके पूर्ण बहिष्कार के लिए काफी है. अगर उसमें तैमूर का अब्बू हो तो यह दोगुनी वजह है. फिल्म का बहिष्कार कीजिए, चाहे तो हर फिल्म का बहिष्कार कीजिए. पर यह रावण की दाढ़ी से भावनाओं का आहत होना एक बचकानी और मूर्खतापूर्ण ही नहीं, एक खतरनाक बात है. यह अपनी पसंद दूसरों पर थोपना सांस्कृतिक जीवन के लिए घातक हो सकता है.

वैसे मेरे मन में प्रभु श्रीराम या योगेश्वर श्रीकृष्ण की जो विराट, पराक्रमी और पौरुषपूर्ण छवि है वह उनकी 99.99% प्रतिमाओं में नहीं दिखाई देती. अक्सर कृष्ण को राधा के साथ बंसी बजाते जिस रूप में दिखाया जाता है वह बिल्कुल मेल नहीं खाता. मेकअप किए चॉकलेटी शक्ल में उनके अधिकतर चित्र जय मुखर्जी आशा पारिख की फिल्म के पोस्टर सरीखे लगते हैं. कृष्ण का शक्तिशाली पराक्रमी सुदर्शन धारी रूप कहीं मंदिरों में नहीं मिलता. प्रभु श्रीराम की अधिकतर प्रतिमाओं से भी वह धनुर्धर योद्धा वाला रूप लक्षित नहीं होता. पर खराब चित्रकारी या शिल्पकारी मेरी श्रद्धा को प्रभावित नहीं करती और मैं आंखें बंद करके उनके विराट रूप का स्मरण कर लेता हूं. पर अगर खराब शिल्प को श्रद्धा पर चोट या आस्था आहत करने का कारण घोषित किया जाने लगे तो हिन्दू समाज का क्या हश्र होगा? और अच्छा शिल्प, भगवान का सटीक स्वरूप क्या होगा इसका निर्णय कौन करेगा? मैं या आप? या कोई एक सेंट्रल अथॉरिटी जो देश में बनने वाले भगवान के हर चित्र और हर मूर्ति को अप्रूव करेगी? यह तो हिंदू धर्म के मूल स्वभाव के विपरीत है और हिन्दू समाज को इस्लामी एंबीशंस देना है.

Related Articles

Leave a Comment