Home विषयइतिहास रावण का अपमान क्यों

बहुत्ते बड़का वेदपारंगत विदवान था रावण,,उससे थोड़ा कम बड़ा शिवभक्त और उससे थोड़ा कम बड़ा चरित्तरवान(काहेकि सीता मैया के अपहरण के बाद उनका बलात्कार न करके अशोक वाटिका में रखा था)…..अचानक से सनातनियों के हृदय में उसके लिए प्रेम सम्मान का ऐसा सुनामी उमड़ आया है कि कुछ लोग तो रामजी से एकाधे सेंटीमीटर कम पर लाकर उसको सिंहासनारूढ़ कर दिए हैं।

इस सम्मान के बाढ़ ने मुझे उन सभी विद्वानों का स्मरण करा दिया है जिन्होंने कठोर श्रमपूर्वक न केवल विश्वस्तरीय डिगरियाँ हस्तगत की हैं अपितु बोरे भर भर उपाधियों(पुरुस्कार)का भण्डार भी जुटा लिया है। लेकिन इनके करम लच्छन ऐसे कि जहाँ तक इनसे सम्भव हो सका है परअहित ही किया है,देश दुनियाँ का इनसे बुरा ही हुआ है।

तथाकथित प्रकाण्ड पण्डिजी के लिए यह तक कहा जाता है कि रामेश्वरम लिंग की स्थापना रामजी ने इसी पण्डिजी से करवायी थी क्योंकि उस जमाने का अमर्त्यसेन, मौनमोहन यही था।यही नहीं, युद्ध के उपरान्त रामजी लक्ष्मण जी को नीति की शिक्षा लेने रावण के पास भेजे थे। जय हो,, जो जीवन भर अधर्म अनीति पर चला,वह नाभि में बाण लगते ही नीतिज्ञाता हो
गया।

वामी कामी केवल आजे नहीं हैं,ऐसे गप्प उड़ाकर अपराधी के अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश करने वाले तब भी थे,जो बहुत हद तक सफल भी रहे। तब्बे न ऐसे गप्प आज भी चल रहे हैं।

तुलसीदास जी लिखते हैं:-
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
मने राक्षस लोग भोग में लिप्त महिष,मानुस, गौ आदि के रेगुलर भक्षकों की रक्षा में मुस्तैद खड़े हैं कि कहीं कोई बाधा न पड़े।

रावण ने जो भोगपरक रक्ष संस्कृति चलायी जिसमें स्त्री पुरुष अपने बल और सामर्थ्य के अनुसार अपरिमित भोग के अधिकारी थे(अपरिमित भोग माने- जो मन करे,जब मन करे खाओ,दम भर दारू पीयो, जिसकी स्त्री,जिसका पुरुष पसन्द आ जाये उसे भोग हेतु उठा लो, सनातनी संस्कृति पसन्द नहीं तो उससे मानने वालों को प्रताड़ित करो,मार डालो या फिर अपने सामान राक्षस बना लो)।

लंका से फैलते पसरते दंडकारण्य तक उसने यही तो स्थापित किया।रावण ब्राह्मण था न(जिससे गौतियउजी आज भाई लोग निकाल रहे हैं), लेकिन उसने विशेष रूप से जिन्हें मरवाया,वे कौन थे?तपस्यारत ऋषि मुनि वनवासी या अन्य निर्बल सभी जातियों के सनातनी।

श्रीराम ने वन में ऋषियों के पहाड़ीनुमा हड्डियों के ढ़ेर को देखकर ही प्रतिज्ञा ली थी कि वे धरती से राक्षसों की, इस रक्ष संस्कृति का अन्त कर के ही रहेंगे।
और हाँ, माता सीता का बलात्कर रावण इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि उसकी औकात नहीं थी।पतिव्रता इतना सामर्थ्य रखती थीं कि उसे क्षणभर में भस्म कर सकती थीं।
इस सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है कि ससुराल में चूल्हा छुआवन के रस्म के बाद जब उनकी पकाई रसोई श्री दशरथ जी को परोसी गयी तो कहीं से उड़कर एक तिनका उनके थाल में पहुँच गया और सबके बीच वह हटाने मतासीता पहुँच न पायीं तो उन्होंने अपनी दृष्टि से ही उस तिनके को भस्म कर दिया और दशरथ जी ने यह कौतुक देख बाद में मैया को निकट बुलाकर कहा कि क्रुद्ध होकर कभी भी किसी को सीधी दृष्टि से नहीं देखना।

यही कारण था कि अशोक वाटिका में जब रावण मैयासीता को मनाने पहुँचा तो तृण का ओट धरते उन्होंने उससे बात की-
“तृण धरि ओट कहत वैदेही, सुमरु अवधपति परम स्नेही।।”

लोग यह भी भूल जाते हैं कि जिस शिवधनुष को धनुषयज्ञ में रावण भी नहीं हिला पाया था मैया जानकी बाएँ हाथ से ही उसे उठाकर प्रतिदिन वह पावन भूमि लीप देती थीं।
माता सीता एकाकी ही रावण वध की क्षमता रखती थीं,लेकिन केवल उसके अन्त से ही उसके द्वारा पसारे संस्कृति और उसके द्वारा पोषित अत्याचारियों का निराकरण नहीं होता,,सो उन्होंने अपहरण भी होने दिया और श्रीराम के लंका तक की वह यात्रा और भीषण युद्ध भी।

युद्ध भी किसने किया?अपराजेय माने जाने वाले परम शक्तिशाली,जिसके सम्मुख देवता भी आँखें नीची किये और हाथ जोड़े खड़े रहते थे,उस महाशक्तिशाली से उन वन्चित साधनहीन वनवासियों जिन्हें वानर भालू समझा जाता था, जो भोज्य रूप में राक्षसों द्वारा व्यवहृत होते थे,,,उन्होंने।राम कबतक रक्षक बन खड़े रहते,सबको उपलब्ध होते,,सो उन्होंने सबसे कमजोर जनों को रामत्व धारण करना सिखाया।आदर्शमय सुखद जीवन और सुव्यवस्थित समाज हेतु कैसे जीना चाहिए और आत्मबल,नैतिक चरित्र व्यक्ति को कैसे अपराजेय बनाती है,युगों युगों के लिए श्रीराम ने अपने जीवन द्वारा यह दृष्टान्त रखा।

राम रावण में से एक ने जन जन को राम बनना सिखाया,दूसरे ने दैहिक बल पर भोगी अत्याचारी व्यभिचारी विध्वंसक।
लेकिन कुछ लोगों का आग्रह है कि उसके(रावण के) जन्म की जाति को लेकर उसे ब्राह्मण और विद्वान ठहरा ही देना है।
मुझे लगता है ऐसे लोग या तो सचमुच हृदय में रावणत्व धारण करते हैं,इसलिए उन्हें रावण के कुकर्म इग्नोरेबल लगते हैं, या फिर वे फिर उनकी नैरेटिव में फँस गए हैं जिनकी योगेन्द्र यादव स्टाइली शहदभरे सुन्दर तर्क इनकी चेतना कुंद कर देते हैं।

एक बात पर आपको आश्चर्य नहीं होता,, कि छोटी छोटी बातों पर जो सर तन से जुदा के फतवे देते हैं,जिनके पूज्य और नायक आज भी वही क्रूर वहशी लुटेरे हत्यारे विध्वंसक हैं,,वे एकबार भी चूँ नहीं कर रहे कि हिंदुओं के किसी पात्र का लुक क्यों हमारे आदमी जैसा कर दिया है?
बस सारी बैटिंग इधर से ही हो रही है।

टीवी डिबेट सजाने का तात्पर्य को एकदम सुस्पष्ट है कि इन्हें फ़िल्म का विज्ञापन करना है,इसके लिए इन्होंने मोटा माल लिया है,,,पर रावण के मानहरण पर उन्हीं के द्वारा हंगामा जिन्होंने हजारों वर्षों से रावण और रावणत्व से घृणा करना ही सीखा है,,,विचित्र नहीं लगता यह?
कहीं न कहीं हम उनकी इस प्रतिस्थापना कि “रावण उतना भी बुरा नहीं था,बस उससे एक ही तो गलती हुई कि सीताहरण कर लिया”…में फँसकर फिर से उनका टूल नहीं बन रहे हैं??

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