हमारे अनेक बुद्धिजीवी एक भ्रांति के शिकार हैं, जो समझते हैं कि गौतम बुद्ध के साथ भारत में कोई नया ‘धर्म’ आरंभ हुआ। तथा यह पूर्ववर्ती हिन्दू धर्म के विरुद्ध ‘विद्रोह’ था। यह पूरी तरह कपोल-कल्पना है कि बुद्ध ने जाति-भेदों को तोड़ डाला, और किसी समता-मूलक दर्शन या समाज की स्थापना की। कुछ वामपंथी लेखकों ने तो बुद्ध को मानो कार्ल मार्क्स का पूर्व-रूप जैसा दिखाने का यत्न किया है। मानो वर्ग-विहीन समाज बनाने का विचार बुद्ध से ही शुरू हुआ देखा जा सकता है, आदि।
लेकिन यदि गौतम बुद्ध के जीवन, विचार और कार्यों पर संपूर्ण दृष्टि डालें, तो उन के जीवन में एक भी प्रसंग नहीं कि उन्होंने वंश और जाति-व्यवहार की अवहेलना करने को कहा हो। उलटे, जब उन के मित्रों या अनुयायों के बीच दुविधा के प्रसंग आए, तो बुद्ध ने स्पष्ट रूप से पहले से चली आ रही रीतियों का सम्मान करने को कहा।
एक बार जब गौतम बुद्ध के मित्र प्रसेनादी को पता चला कि उन की पत्नी पूरी शाक्य नहीं, बल्कि एक दासी से उत्पन्न शाक्य राजा की पुत्री है, तब उस ने उस का और उस से हुए अपने पुत्र का परित्याग कर दिया। किन्तु बुद्ध ने अपने मित्र को समझा कर उस का कदम वापस करवाया। तर्क यही दिया कि पंरपरा से संतान की जाति पिता से निर्धारित होती है, इसलिए शाक्य राजा की पुत्री शाक्य है। यदि बुद्ध को जाति-प्रथा से कोई विद्रोह करना होता, या नया मत चलाना होता, तो उपयुक्त होता कि वे सामाजिक, जातीय परंपराओं का तिरस्कार करने को कहते। बुद्ध ने ऐसा कुछ नहीं किया। कभी नहीं किया।