Home विषयकहानिया वाल्मीकि रामायण (भाग 9)
उन तीनों ने वह रात्रि ताटका वन में व्यतीत की।
अगले दिन प्रातःकाल महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा, “महायशस्वी राजकुमार! ताटका वध के कारण मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। आज मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र देने वाला हूँ। इनके प्रभाव से तुम सदा ही अपने शत्रुओं पर विजय पाओगे, चाहे वे देवता, असुर, गन्धर्व या नाग ही क्यों न हों।”
“आज मैं तुमको दिव्य एवं महान दण्डचक्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र तथा अति भयंकर ऐन्द्रचक्र दूंगा। मैं तुम्हें इन्द्र का वज्रास्त्र, शिव का श्रेष्ठ त्रिशूल व ब्रह्माजी का ब्रह्मशिर नाम अस्त्र भी दूंगा। साथ ही तुम्हें ऐषीकास्त्र व ब्रह्मास्त्र भी प्रदान करूंगा। इसके अलावा मोदकी व शिखरी नामक दो उज्ज्वल गदाएं तथा धर्मपाश, कलपाश व वरुणपाश नामक उत्तम अस्त्र भी मैं दूंगा।”
“अग्नि के प्रिय आग्नेयास्त्र का नाम शिखरास्त्र है। वह भी मैं तुम्हें देने वाला हूं। इसके साथ ही अस्त्रों में प्रधान वायव्यास्त्र भी मैं तुम्हें दे रहा हूं। सूखी व गीली अशनी तथा पिनाक एवं नारायणास्त्र, हयशिरा अस्त्र, क्रौञ्च अस्त्र एवं दो शक्तियां भी तुम्हें मैं देता हूं। विद्याधारों का महान नन्दन अस्त्र तथा उत्तम खड्ग भी मैं तुम्हें अर्पित करता हूं। गन्धर्वों के प्रिय मानवास्त्र व सम्मोहनास्त्र, कामदेव का प्रिय मादन अस्त्र, पिशाचों का प्रिय मोहनास्त्र, तथा प्रस्वापन, प्रशमन तथा सौम्य अस्त्र भी मैं तुम्हें दे रहा हूं।”
“राक्षसों के वध में उपयोगी होने वाले कंकाल, घोर मूसल, कपाल तथा किंकिणी आदि सब अस्त्र भी मुझसे ग्रहण करो। तापस, महाबली सौमन, संवर्त, दुर्जय, मौसल, सत्य व मायामय उत्तम अस्त्र भी मैं तुम्हें देता हूं। सूर्यदेव का तेजोप्रभास्त्र भी मुझसे लो। यह शत्रु के तेज को नष्ट कर देता है। सोमदेव का शिशिरास्त्र, विश्वकर्मा का दारूणास्त्र, भगदेवता का भयंकर अस्त्र व मनु का शीतेषु अस्त्र भी ग्रहण करो।”
ऐसा कहकर मुनि विश्वामित्र पूर्वाभिमुख होकर बैठ गए और प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने श्रीरामचन्द्र जी को उन सब अस्त्रों का उपदेश दिया। इसके बाद श्रीराम ने प्रसन्नाचित्त होकर विश्वामित्र जी को प्रणाम किया व मुनि ने उन्हें प्रत्येक अस्त्र को चलाने की विधि बताई।
फिर विश्वामित्र जी बोले, “रघुकुलनन्दन श्रीराम! अब तुम इन अस्त्रों को भी ग्रहण करो – सत्यवान, सत्यकीर्ति, धृष्ट, रभस, प्रतिहारतर, प्रांगमुख, अवांगमुख, लक्ष्य, अलक्ष्य, दृढ़नाभ, सुनाभ, दशाक्ष, शतवक्त्र, दशशीर्ष, शतोदर, पद्मनाभ, महानाभ, दुन्दुनाभ, स्वनाभ, ज्योतिष, शकुन, नैरास्य, विमल, यौगन्धर, विनिद्र, शुचिबाहु, महाबाहु, निष्किल, विरुच, सर्चिमाली, धृतिमाली, वृत्तिमान्, रुचिर, पित्र्य, सौमनस, विधूत, मकर, परवीर, रति, धन, धान्य, कामरूप, कामरुचि, मोह, आवरण, जृम्भक, सर्पनाथ, पन्थान और वरुण।”
श्रीराम ने विनम्रतापूर्वक उन सब अस्त्रों को भी ग्रहण किया।
अब वे तीनों आगे की यात्रा पर बढ़े। चलते-चलते ही श्रीराम ने विश्वामित्र जी से पूछा, “प्रभु! सामने वाले पर्वत के पास जो घने वृक्षों से भरा स्थान दिखाई देता है, वह क्या है? मृगों के झुण्ड के कारण वह स्थान अत्यंत मनोहर प्रतीत हो रहा है। अतः उसके बारे में जानने की मेरी इच्छा है।”
यह सुनकर विश्वामित्र जी ने कहा, “भगवान विष्णु ने वहां बहुत बड़ी तपस्या की थी। वामन अवतार धारण करने से पहले यही उनका आश्रम था। महातपस्वी विष्णु को यहां सिद्धि प्राप्त हुई थी, इसलिए यह सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।”
“यहां अपनी तपस्या पूर्ण करने के उपरांत महर्षि कश्यप व उनकी पत्नी अदिति की विनती स्वीकार करके उन्होंने उनके पुत्र वामन के रूप में अवतार लिया व यज्ञ में विरोचनकुमार राजा बलि से तीन पग में तीन लोकों की भूमि वापस लेकर देवताओं की सहायता की।”
“उन्हीं भगवान वामन में भक्ति होने के कारण मैं इसी सिद्धाश्रम में निवास करता हूं और यहीं वे राक्षस आकर मेरे यज्ञ में विघ्न डालते हैं। अब हम वहां पहुंचने वाले हैं। यह आश्रम जैसा मेरा है, वैसा ही तुम्हारा भी है। यहीं रहकर तुम्हें उन दुराचारी राक्षसों का वध करना है।”
ऐसा कहकर बहुत प्रेम से मुनि ने उन दोनों भाइयों के हाथ पकड़ लिए और उन्हें अपने साथ लेकर आश्रम में प्रवेश किया।

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