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यूरोप और रूस युद्ध के बाद यूरोप भारी संकट में

सुमंत विद्वांस

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रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तो अमरीका और यूरोप ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए। उन्होंने रूस के उत्पादों को प्रतिबंधित कर दिया या उन पर भारी कर लगा दिया। बैंकिंग के स्विफ्ट नेटवर्क से रूसी बैंकों को बाहर कर दिया। अन्य देशों में रूसियों का जो धन या निवेश था, उसे निकालने पर रोक लगा दी। अमरीका और यूरोप को विश्वास था कि इससे रूस की अर्थव्यवस्था ढह जाएगी और युद्ध बंद हो जाएगा।
लेकिन परिणाम इसका उल्टा हुआ और अब यूरोप स्वयं भारी संकट में फंस गया है। वहाँ प्राकृतिक गैस लगभग 42% महंगी हो गई है, खान-पान की वस्तुओं का मूल्य 10% बढ़ गया है और 27 देशों की जीडीपी प्रभावित हुई है। यह युद्ध वास्तव में रूस और यूक्रेन के बीच नहीं, बल्कि अमरीका और रूस के बीच चल रहा है। यूरोप और यूक्रेन इसमें मोहरा बन गए हैं।
आजकल युद्ध मुख्यतः तीन साधनों से लड़ा जाता है: वित्त, ऊर्जा और खाद्यान्न। अमरीका और यूरोप ने आर्थिक प्रतिबंध लगाकर रूस को वित्तीय साधनों से हराने का प्रयास किया। लेकिन रूस ने ऊर्जा और खाद्यान्न को हथियार बनाकर यूरोप को पस्त कर दिया।
विश्व में उपयोग होने वाले गेहूं की 30%, मक्के की 20% और सूरजमुखी तेल की 80% आपूर्ति रूस और यूक्रेन से होती है। इन तीनों की आपूर्ति बंद होते ही यूरोप में इनकी कीमत आसमान छूने लगी। यूरोप के घरों, कार्यालयों और कारखानों में बिजली और ऊर्जा की आपूर्ति प्राकृतिक गैस के भरोसे चलती है, जिसमें से लगभग 40% गैस रूस की नॉर्ड स्ट्रीम 1 पाइप लाइन से जर्मनी आती है और वहाँ से कई सारी पाइपलाइनों से यूरोप के अन्य देशों तक भेजी जाती है। यूरोप के कई देशों में 90 से 100% तक गैस की आपूर्ति रूस के भरोसे चलती है। फिनलैंड, स्लोवाकिया, बुल्गारिया जैसे देशों की 70% और जर्मनी की 49% गैस की आपूर्ति रूस से होती है।
जब यूरोप ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, तो रूस ने इनकी गैस की आपूर्ति आधी कर दी। आपूर्ति कम हो गई, पर मांग बनी रही, इसलिए पूरे विश्व में तेल और गैस की कीमत बढ़ गई। यहाँ तक कि अमरीका में भी गैस की कीमत लगभग 40% बढ़ गई है, ब्रिटेन में 142 प्रतिशत और यूरोपीय यूनियन में 144 प्रतिशत बढ़ी। तेल और गैस की कीमत बढ़ने से यूरोप में हर चीज के उत्पादन की लागत बढ़ गई है और सब-कुछ महंगा हो रहा है। औद्योगिक उत्पादन की लागत लगभग 36% बढ़ गई है और महंगाई दर लगभग 10% हो गई है।
अमरीका और यूरोप ने रूस को अपने बैंकिंग सिस्टम से बाहर किया, तो रूस ने भी यूरोप की कंपनियों पर यह शर्त थोप दी कि अब उन्हें रूस से तेल या गैस खरीदने के लिए रूबल में भुगतान करना पड़ेगा। इसके कारण अचानक रूबल की मांग में भी भारी उछाल आया है और रूस की मुद्रा रूबल अब विश्व की सबसे मजबूत मुद्राओं में से एक बन गई है। रूस पर ये सारे प्रतिबंध यह सोचकर लगाए गए थे कि इनसे रूसी अर्थव्यवस्था पूरी तरह बिखर जाएगी, लेकिन वास्तव में रूस की अर्थव्यवस्था और भी मजबूत हो रही है और रूस का मुद्रा भण्डार भी और अधिक बढ़ गया है।
अमरीका और रूस की इस लड़ाई में सबसे बड़ा नुकसान यूरोप को हुआ है। अभी वहाँ ठण्ड का मौसम आने वाला है, जब घरों को गर्म रखने के लिए प्राकृतिक गैस की और भी अधिक आवश्यकता पड़ती है। अगर रूस ने गैस की आपूर्ति बंद कर दी, तो यूरोप का प्राकृतिक गैस का स्टॉक केवल 90 दिनों में समाप्त हो जाएगा।
इससे बचने के लिए यूरोप के देश अब अमरीका से गैस की आपूर्ति का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वह आपूर्ति जहाजों से होती है, जिनकी क्षमता बहुत कम है और यूरोप के बंदरगाहों तक पहुँचने के बाद उसे पूरे यूरोप में पहुँचाने के लिए कोई अच्छा तरीका अभी तक यूरोपीय देशों के पास नहीं है। रूस की पाइपलाइन से यूरोप को हर वर्ष अरबों घन मीटर गैस की आपूर्ति होती है। उसकी भरपाई अमरीकी जहाजों से आने वाली थोड़ी-बहुत गैस से कभी नहीं हो सकती। क़तर से गैस खरीदना यूरोप के लिए दूसरा विकल्प है, लेकिन उसके लिए नई पाइपलाइन बिछानी पड़ेगी, जिसमें कई सालों का समय लगता है।
रूस से तेल और गैस की आपूर्ति कम होने पर यूरोप के देशों ने सऊदी अरब से भी गुहार लगाई थी कि वह तेल का उत्पादन बढ़ाए। लेकिन सऊदी अरब रूस का साथी है और वैसे भी दुनिया में तेल की माँग बढ़ने से उसे भी अच्छी कीमत अच्छी मिल रही है, इसलिए उसने उत्पादन बढ़ाकर अपना भण्डार जल्दी खत्म करने से मना कर दिया है। कभी सऊदी अरब और अमरीका के बीच बहुत पक्की दोस्ती थी, लेकिन अब उन दोनों के संबंध भी बिगड़े हुए हैं।
इन सब परिस्थितियों का भारत को दोहरा लाभ मिला है। एक तो यूरोप की आपूर्ति कम करने के बाद रूस को अपना तेल बेचने के लिए नए बाजारों की तलाश थी, इसलिए भारत को रूस से कम कीमत पर तेल मिल गया। दूसरा युद्ध के कारण रूस और यूक्रेन से गेहूं का निर्यात बहुत कम हो गया, इसलिए दुनिया में भारत के गेहूं की माँग बढ़ गई और भारत के निर्यातकों को लाभ हुआ।
लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि रूस से तेल खरीदने के कारण यूरोप और अमरीका अब भारत से नाराज हैं। हालांकि अभी कुछ न कर पाना उनकी मजबूरी है, लेकिन संभव है कि युद्ध की समाप्ति के बाद वे भारत से इसका बदला लेने का अवसर ढूंढें। उस समय भारत क्या करेगा, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा।

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