जनक जी की बात सुनकर महर्षि विश्वामित्र बोले, “राजन्! आप श्रीराम को अपना वह धनुष दिखाइए।”
तब राजा जनक ने अपने मंत्रियों को आज्ञा दी, “चन्दन व मालाओं से सुशोभित वह दिव्य धनुष यहाँ ले आओ।” आज्ञा सुनकर वे मंत्री तुरंत ही नगर में गए।
वह धनुष आठ पहियों वाले लोहे के एक बहुत बड़े सन्दूक में रखा हुआ था। पाँच हजार सैनिक उसे खींचते हुए वहाँ तक लाए।
अब महाराज जनक ने कहा, “ब्रह्मन! यही वह श्रेष्ठ धनुष है जिसका जनकवंशी नरेशों से सदा पूजन किया है तथा समस्त देवता, असुर, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर व महानाग भी जिसे चढ़ा नहीं सके हैं। फिर मनुष्यों में तो इतनी शक्ति ही कहाँ है?”
तब महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा, “वत्स राम! इस धनुष को देखो।”
श्रीराम ने उस सन्दूक को खोलकर वह धनुष देखा और फिर वे बोले, “अब मैं इस दिव्य धनुष का स्पर्श करता हूँ और फिर मैं इसे उठाने व इस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करूँगा।”
महर्षि की आज्ञा पाकर श्रीराम ने उस धनुष को हाथ लगाया व बीच से उसे पकड़कर बड़ी सहजता से उठा लिया। इस समय हजारों मनुष्यों की दृष्टि उन्हीं पर टिकी हुई थी। अब श्रीराम ने इतनी सहजता से उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी, मानो वह कोई खिलौना हो। प्रत्यंचा चढ़ाकर उन्होंने उस धनुष को कान तक खींचा ही था कि अचानक ही वह धनुष बीच में ही टूट गया।
धनुष के टूटने पर बड़ी भारी आवाज हुई, जैसे कोई पर्वत फट पड़ा हो या कोई भूकंप आ गया हो। उस भयंकर आवाज को सुनकर बहुत सारे लोग अचेत हो गए।
थोड़ी देर में जब सब-कुछ शांत हो गया, तब राजा जनक ने हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्र से कहा, “भगवन्! आज मैंने दशरथनन्दन श्रीराम का पराक्रम अपनी आँखों से देख लिया। महादेव जी के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना अत्यंत अद्भुत, अचिन्त्य व अतार्किक घटना है। मैंने सीता के विवाह के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, वह आज सत्य व सफल हो गई। अब मैं प्राणों से भी प्रिय अपनी पुत्री सीता का विवाह दशरथ नन्दन श्रीराम से करूँगा। सीता भी श्रीराम को पति के रूप में पाकर मेरे वंश की कीर्ति का और विस्तार करेगी। अब आप कृपया आज्ञा दें, ताकि मेरे मंत्री शीघ्रता से अयोध्या जाकर महाराज दशरथ को यह समाचार दे सकें कि श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ सकुशल मिथिला पहुँच गए हैं तथा श्रीराम का विवाह जनक नंदिनी सीता से होने जा रहा है, अतः महाराज दशरथ भी शीघ्रता से यहाँ आ जाएँ।”
विश्वामित्र जी ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी बात का समर्थन किया। तब जनक जी ने अपनी मंत्रियों को उचित निर्देश दिए और तुरंत अयोध्या जाकर दशरथ जी को मिथिला ले आने के लिए भेज दिया।
आगे जारी है….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस)

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