एक राजा ने एक चलती सड़क पर सड़क कटवा कर बीच में एक पुल बनवा दिया। पुल के नीचे से न कोई नाला, न नहर, न नदी, लेकिन राजा का आदेश था सो पुल बन गया।
राजा ने पुल के पास एक शिकायत – पेटिका भी लगवा दी कि यदि किसी को कोई आपत्ति हो तो लिख कर डाल दे।
लोगों में असंतोष था किन्तु किसी ने कोई विरोध नहीं किया और राजा को प्रजा की मानसिकता जाननी थी, सो उसने जान लिया।
अब उसने उस पुल पर से हो कर जाने वालों पर कर लगा दिया।
पैदल, घुड़सवार, बैलगाड़ी वाले, रथ वाले, सबको यथायोग्य कर देना होता था।
लोग देते थे। असंतुष्ट थे, किन्तु देते थे। कोई विरोध नहीं हुआ। लोगों ने सोचा – चलने दो जैसा चल रहा है।
राजा एक कदम और बढ़ा और उसने पुल पर दो अतिरिक्त कर्मचारी इस लिए नियुक्त कर दिये कि कर देने वाले प्रत्येक व्यक्ति को वह जितने रुपये कर देता है उतने जूते भी मारे जाँय।
लोग कर देते रहे, जूते खाते रहे, किन्तु विरोध फिर भी नहीं हुआ क्योंकि चल रहा था जैसे चल रहा था।
चार – पांच वर्ष व्यतीत हो गये।
एक दिन शिकायत-पेटिका में एक बन्द लिफाफा मिला। कर्मचारियों ने लिफाफा राजा के पास पहुँचा दिया।
राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। पांच वर्ष बाद इस विरोध का कारण?
और यह साहस किसने किया?
राजा ने लिफाफा खोला।
लिफाफे में एक प्रार्थनापत्र था –
महाराज के चरण-कमलों में सादर प्रणाम सहित यह निवेदन करना है कि कृपया पुल पर जूते मारने वाले कर्मचारियों की संख्या में यथोचित वृद्धि करने की कृपा करें क्योंकि मात्र दो कर्मचारियों द्वारा जूते मारने की प्रक्रिया में इतना विलम्ब होता है कि हमारे आवश्यक कार्यों में अनावश्यक व्यवधान उत्पन्न हो जाता है।
सादर,
आपकी प्रजा का एक सामान्य नागरिक –
रिपोस्ट…

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