मेरी बात सकारात्मक रूप से लेने की जरूरत है बाकी इस बात से खुशी हो या दुःख हो यह सार्वजनिक विमर्श का विषय होगा। मुझे तो खैर दुःख ज्यादा और खुशी कभी भी न होगी।
अपने ही राज्य से पलायन करने के जम्मू-कश्मीर राज्य वाले बहुप्रचारित इतिहास के साथ ही एक और राज्य स्तरीय पलायन वर्तमान जीवित है जिसे बिहारी पलायन कहते हैं।
हालांकि दोनों के पलायन ‘स्वाद’ अलग-अलग हैं।
एक अपने राज्य से काट-मार के भगा दिया गया मजहबी आधार पर तो दूसरे ने जातिगत मार-काट करने के हुनर के साथ अपने राज्य को अछूत बना कर खुद छोड़ दिया।
एक समाज तो खून से लतफत होकर सफर तय किया तो दूसरा समाज सवारियों में लद-लद के कहिये या एल्फी-सेल्फी लेते जहाजों से लगायत महँगी गाड़ियों में सज-धज के रास्ते नापने के इतिहास और वर्तमान जी रहा है।
हैं दोनों दरअसल पलायित पर्यटक ही। अन्तर बस एक ही होता है एक अपनी जमीन मजबूरी में छोड़ता है तो दूसरा अपनी जमीन को हमेशा के लिए मजबूर छोड़ कर सुविधा की मजदूरी के लिए भाग खड़ा होने का इतिहास रखता है।
अब सुखद बात देखिए- बिहार इस समय लोक और प्रकृति के महापर्व छठ के अवसर पर विश्व का अकेला ऐसा उदाहरण देख रहा है जहाँ उस राज्य के पलायित मूलनिवासी “पर्यटन” के लिए आते हैं। कुछ रोज रहते हैं और फिर उड़ जाते हैं।बिहार राज्य की अर्थव्यवस्था में इस ‘सालाना पलायित बिहारी पर्यटन’ योगदान के महत्व के आंकड़ों पर भी अध्ययन होने का काम होना चाहिए। देश के कल्याण के लिए कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पर बात होनी चाहिए।
अपनी भूमि से मूलनिवासियों का पलायन भी कहीँ आन बान और शान से उपलब्धि अथवा पर्यटन हो सकता है इस पर भी अध्ययन और बात हो तो इसे राष्ट्रीय विमर्श में लाना चाहिए। धरती के स्वर्ग कश्मीर से बिहार की इस अतुलनीय तुलना हेतु मुझे धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिए!