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क्या इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति और समृद्धि भारत और उपनिवेशों को लूट कर ही आई

Rajeev Mishra

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यह एक आरामदेह भ्रांति है कि इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति और समृद्धि भारत और उपनिवेशों को लूट कर ही आई.
कार्य कारण संबंध को निरपेक्ष होकर समझें. इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति वहां उपजे स्वतंत्र विचारों के उभार की क्रान्ति से आई. समाज क्रिश्चियानिटी के बौद्धिक बंधनों से लड़ा और बाहर निकला, नए विचारों को स्वीकार किया, विज्ञान और टेक्नोलॉजी चपटी धरती और घूमते सूरज से मुक्त हुए, नई आर्थिक व्यवस्था और समाज व्यवस्था ने समाज के हर वर्ग की पूरी प्रतिभा और सम्भावना का इस्तेमाल किया और वहां औद्योगिक क्रांति और मुक्त व्यापार अर्थव्यवस्था पनपी. इसने उन्हें वह आर्थिक और सैन्य शक्ति दी जिसके बल पर उन्होंने उपनिवेश बनाए, और ऑफ कोर्स, उन्हें लूटा. लूट कर वे और संपन्न बने. उन्होंने लगभग डेढ़ से दो सदी तक अपने देश में मुक्त व्यापार अर्थव्यवस्था रखी लेकिन अपने उपनिवेशों में अर्थव्यवस्था पर कड़े सरकारी नियंत्रण को बनाए रखा. नतीजा, उपनिवेशों में भयंकर गरीबी और पिछड़ापन बना रहा. आजादी के बाद भी इन उपनिवेशों में वही आर्थिक व्यवस्था बनी रही और गरीबी का वही क्रम जारी रहा. भारत कम से कम 1991 तक उसी चंगुल में फंसा रहा, गोरे साहबों और भूरे साहबों के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ा.
वहीं इंग्लैंड ने अपने कर्मों का फल भोगा और उनकी लूटी हुई संपत्ति दो विश्वयुद्धों में स्वाहा हो गई. पोस्ट वर्ल्डवॉर ब्रिटेन समाजवाद के चंगुल में फंस गया और फेबियन सोशलिज्म ने इंग्लैंड को पचास से सत्तर के दशक में यूरोप के सबसे गरीब देशों में एक बना दिया. यहां के उद्योग, कोयले की खदानें, रेलवे और उत्पादन के अधिकांश साधनों पर सरकारी नियंत्रण था और औद्योगिक क्षेत्र ट्रेड यूनियन्स और रोजाना की हड़तालों का मारा था. इससे उन्हें बाहर निकाला 80 के दशक में मार्ग्रेट थैचर ने. उनके पास मुक्त व्यापार की कल्चरल मेमोरी थी तो उन्हें इस व्यवस्था में एडजस्ट करने में जरा भी समय नहीं लगा. इंग्लैंड की आज की समृद्धि थैचर की पूंजीवादी आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं ना कि वे उपनिवेशवाद की लूट अभी तक खा रहे हैं.
लेकिन 50 के दशक में फेबियन वेलफेयर इकोनॉमिक्स का कांटा जो इंग्लैंड के गले में फंसा तो वह अभी तक फंसा हुआ है. हर सरकार चुनाव जीतने के लिए बड़ा मुंह खोलती है और इस कांटे को थोड़ा और निगल लेती है. बाहर से देखने में इंग्लैंड का वेलफेयर स्टेट बड़ा ही आकर्षक लगता है लेकिन इसकी भारी कीमत यहां के काम करने वाले चुकाते हैं जो विभिन्न तरीकों से लगभग 60-70% टैक्स भरते हैं जबकि निकम्मे लोग मजे करते हैं.
ऋषि को इसी संकट से देश को निकालने का काम मिला है जबकि चुनाव लगभग दो साल दूर हैं. उस दौरान सरकार को और मुंह खोलना होगा और कांटे को और थोड़ा निगलना होगा.
पर उससे हमें क्या? आई मीन, पर्सनली मुझे नहीं, हमें क्या? भांड़ में जाए इंग्लैंड…
तो ऐसा है की आज की तारीख में वामपंथियों की कृपा से दुनिया एक ही रस्सी से बंधी है. अगर एक देश में वामपंथी सत्ता में आते हैं तो वे अपने देश को संभालने के बजाय दूसरे देश को अस्थिर करने में ताकत लगा देते हैं. आज बाइडेन चचा की कृपा से अमेरिका भांड़ में जा रहा है, लेकिन अकेले नहीं जा रहा. अपने साथ कम से कम पूरे यूरोप को लेकर जा रहा है.

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