भारत भूमि सनातन धर्म की भूमि है. सनातन संस्कृति और पश्चिम संस्कृति का जो सबसे बड़ा अंतर है वह यह कि सनातन सह अस्तित्व को मानता है. जंगल, पेंड, पौधे, प्रकृति सब पूजनीय हैं. आवश्यकता पड़ने पर समयनुसार इनका उपयोग तो किया जायेगा, पर उपभोग नहीं. गंगा नदी है, पानी देती है, दैनिक जीवन में इस जल का उपयोग किया जाएगा पर अमृत समझ. गाय दूध देती है. उसका दूध पिया जायेगा, पर उसे गौमाता समझ सम्मान भी दिया जाएगा. पवन, सूर्य, चंद्रमा सबसे आवश्यकतानुसार ऊर्जा ली जायेगी पर विनाश नहीं किया जाएगा – देवता हैं. समुद्र में स्नान भी किया जाएगा, रमणीय स्थल भी बनाए जाएँगे, पुल भी बनाया जाएगा लेकिन सबसे पहले समुद्र के जल को सर पर डाला जाएगा, समुद्र देवता हैं.
यह सह अस्तित्व ही भारतीय सनातन संस्कृति को सबसे अलग बनाता है. यहाँ विपरीत विचारों का सम्मान होता है. उन्हें परास्त नहीं किया जाता, आत्म सात किया जाता है. यहाँ जीवन भोग नहीं दायित्व मानते हैं.
लेकिन समय के साथ इस सह अस्तित्व की नीति का विकृत रूप सिक्यूलरिज्म हो गया. जो सदियों से चली आ रही सनातनी संस्कृति थी वह गंगा जमुनी संस्कृति हो गई. ख़ैर वह तो राजनेताओं ने किया.
बीते कुछ वर्षों में तो इस प्रवृत्ति का एक्सट्रीम हो गया है. हम बाबा रामदेव के प्रोडक्ट नहीं यूज करना चाहते से नफ़रत है उनके लिये गालियाँ निकालेंगे. हम भागवत नहीं सुनते तो भागवत कथा वाचकों को गालियाँ सुनायेंगे. होम्यो पेथी मानते हैं तो आयुर्वेद में चार दुर्गुण बतायेंगे. आयुर्वेद मानते हैं तो एल्योपेथी को सुनायेंगे. राजीव दीक्षित जी को मानते हैं तब तो हर चीज में कमियाँ और विकार निकालेंगे. पश्चिम से उनकी टेक्नोलॉजी लेंगे, पर उन्हें इसी बात के लिये गालियाँ सुनायेंगे.
आप इसे स्वीकारें या न स्वीकारें यह जो सह अस्तित्व की नीति लोग भूलते जा रहे हैं, इसके जाने के पश्चात भारतीय संस्कृति जैसा कोई शब्द नहीं बचता. और जब संस्कृति ही न बची, रहना उसी उपभोग वादी संस्कृति में ही है तो फिर काहे का ढोंग, पूरी तरह पाश्चात्य ही हो जाइए.
Everyone needs to be more humble, accepting and adapting. यही सनातन ने सिखाया है.