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गुरु नानकदेव जी का जीवन-संदेश

Pranay Kumar

by Pranjay Kumar
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पंजाब में धड़ल्ले से जारी मतांतरण का सुनियोजित धंधा और गुरु नानकदेव जी का जीवन-संदेश
धर्म भारतीय संस्कृति के प्राण-तत्त्व हैं। ‘धारयति इति धर्मः’ – जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। व्यक्ति या वस्तु के मूल गुण या प्रकृति को ही सनातन संस्कृति में धर्म कहा जाता रहा है। भारतवर्ष में धर्म कर्त्तव्यबोध का द्योतक रहा है। धर्म में रूढ़ियों या अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं होता। उसमें गत्यात्मकता होती है, जड़ता नहीं। इसीलिए भारतीय मनीषा द्वारा गति को ही जीवन तथा जड़ता को ही मृत्यु माना गया है। हाँ, यदि काल-प्रवाह में उसमें कुछ रूढ़ियाँ, अंधविश्वास या कुरीतियाँ प्रवेश भी कर जायँ तो उसके अंतःप्रक्षालन की वहाँ पर्याप्त गुंजाईश होती है। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों या प्रतिकूलताओं के कारण भारत की प्राचीन, किंतु अखंड-अविरल सांस्कृतिक धारा में भी समय-समय पर कुछ कीच-करकट आ मिले, परंतु हर सौ-दो-सौ वर्षों पर यहाँ कुछ ऐसे संत-महापुरुष हुए, जिन्होंने उन्हें दूर करने के लिए अनथक प्रयत्न किए और उसमें उन्हें अपार सफलता भी मिली तथा व्यापक जनसमर्थन भी प्राप्त हुआ। सिखों के प्रथम गुरु एवं संस्थापक – श्री गुरुनानक देव जी ऐसे ही युग-प्रवर्त्तक संत थे। उनका जीवन सेवा एवं परोपकार का पर्याय था। अधिकांश भारतीय संतों के सदृश उन्होंने भी शास्त्रोक्त सत्य की तुलना में अनुभूत सत्य को स्वर दिया। उन्होंने मध्यकालीन बर्बरता एवं इस्लामिक आक्रांताओं की क्रूरता को अपनी आँखों से देखा था। छल-बल, आतंक व प्रलोभन से मतांतरित किए जा रहे हिंदुओं की दीन दशा उनके मन को कचोटती थी। उस समय पूरा पंजाब व सिंध कुफ़्र-काफ़िर की अवधारणा से ग्रसित इस्लाम की चपेट में था। हिंदुओं-बौद्धों-जैनों के पूजा-स्थल उनकी आँखों के सामने ही तोड़े जा रहे थे, उनकी बहन-बेटियों की आबरू सरेआम नीलाम की जाती थीं। समाधान का कोई उपाय नहीं दिख रहा था। गुरु महाराज ने तब व्यथित एवं क्षुब्ध होकर कहा था :-
”खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइया।।
आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।।
एती मार पई करलाणे त्है की दरदु न आइया।।”
एकेश्वरवाद की आड़ में इस्लाम के प्रचार-प्रसार की सूफ़ियों-औलियों की मंशा भी उन जैसे दूरदर्शी मनीषियों से छुपी नहीं रही होगी! उनके प्रभाव में आकर कुछ हिंदुओं को स्वेच्छा से मुसलमान बनते देखकर भी वे दुःखी एवं निराश थे। स्वाभाविक है कि उन्होंने उपनिषदों में निहित ”ईश्वर एक है, वह सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापक है तथा उसी ने नानाविध रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त किया है” के संदेश को अपने शब्दों में व्यक्त किया। उन्होंने मूर्त्ति-पूजा एवं बाह्य कर्मकांडों का विरोध करते हुए गुरु-कृपा, नाम-स्मरण एवं शुद्ध आचरण की महत्ता का प्रतिपादन किया। इस्लाम की आँधी से तत्कालीन हिंदू समाज को बचाए रखने में उनके जीवन एवं संदेशों का उल्लेखनीय योगदान था। अपने जीवनकाल में उन्होंने लगभग 45 हजार किलोमीटर की यात्रा की। वे हिमालय से श्रीलंका तक तथा मक्का-मदीना, ताशकंद, ईरान, ईराक, तिब्बत, अरुणाचल प्रदेश, बांग्लादेश आदि तमाम क्षेत्रों में गए और अपनी ‘उदासियों’ के माध्यम से तत्कालीन धार्मिक-सामाजिक नेतृत्व के साथ प्रत्यक्ष संवाद स्थापित किया। उन्होंने समाज को कमज़ोर करने वाले कारकों को दूर कर भारत की आध्यात्मिक परंपरा को आगे बढ़ाया। उन्होंने पुरुषार्थ और परमार्थ की प्रेरणा देते हुए, किरत कर, नाम जपु, वंड छको (मिल-बाँटकर खाओ) का मार्गदर्शन दिया। उन्होंने समाज को आत्मसम्मान के साथ जीने व अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी थी।
पंजाब-सिंध, काबुल-कंधार जैसे जिन सीमावर्त्ती प्रदेशों को गुरु महाराज ने ताक़त-तलवार या छल-प्रलोभन के बल पर मतांतरित होने से अपने जीवन-काल में तो बचाया ही, भविष्य में भी बचे रहने का व्यावहारिक मंत्र व तंत्र दिया, दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज वही पंजाब भयावह मतांतरण की चपेट में है। पंजाब में आज मतांतरण की हवा नहीं आँधी चल पड़ी है। वहाँ न केवल वंचित-शोषित-उपेक्षित वर्ग, अपितु शिक्षित व संपन्न वर्ग के लोग भी धड़ल्ले से मतांतरित किए जा रहे हैं। घोर आश्चर्य है कि वहाँ मतांतरण का यह धंधा – कहीं कैंसर ठीक करने, बीमारों के उपचार करने, जोड़ों के दर्द दूर करने, कहीं तनाव, अवसाद एवं नशे की लत से मुक्ति दिलाने, कहीं बाँझपन दूर करने, कहीं विवाह कराने, कहीं नौकरी व विदेशों का वीज़ा दिलाने तो कहीं भूत-प्रेत भगाने के नाम पर चल रहा है। उल्लेखनीय है कि नए-नए पादरी या मतांतरित होकर ईसाई बने ये सभी ‘एपोस्टल’ या ‘प्रचारक’ चमत्कारी शक्तियों या आस्था-उपचार के नाम पर चमत्कारी उपलब्धियों का बढ़-चढ़कर दावा करते हैं।
चमत्कारी शक्ति का ऐसा दावा करने वालों या उसके झाँसे में आने वालों में अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे लोग ही नहीं, अपितु डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पुलिस व सरकारी अफसर, कारोबारी, बड़े जमींदार आदि भी सम्मिलित हैं। पंजाब में पेंटेकोस्टलवाद का उदय धार्मिक क्षेत्र की एक ऐसी परिघटना है, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। इसे दुनिया भर में ईसाई धर्म की सबसे तेज गति से बढ़ती शाखा के रूप में देखा जा रहा है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 2008 में ईसाई धर्म में दीक्षित हुए अंकुर योसेफ़ नरूला की संस्था ‘चर्च ऑफ साइंस एंड वंडर्स’ का दावा है कि आज दुनिया भर में उसके 3 लाख से अधिक अनुयायी हैं और अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन आदि देशों में उसकी अनेक शाखाएँ व सेंटर्स हैं। ध्यान रहे कि नरूला पंजाब में फैल रही ईसाईयत के इकलौते सारथी नहीं हैं, वहाँ उनके जैसे दर्जनों नव-ईसाई प्रचारक या उपदेशक सक्रिय हैं, सबके पास तमाम सेंटर्स, ढ़ेर सारे अनुयायी और लाखों की संख्या में यूट्यूब फ़ॉलोअर्स हैं। एक अनुमान के मुताबिक पंजाब के 23 जिलों में लगभग 65000 पादरी सक्रिय हैं, जिनका घोषित उद्देश्य मतांतरण है। वहाँ के शोषित, वंचित, दलित एवं आदिवासी समुदाय इनके आसान शिकार हैं। उन्हें रिझाने-फाँसने में ये सर्वाधिक सफल हैं। ये अपने ईसाई-प्रचार में पंजाबी प्रतीकों मसलन पगड़ी, लंगर, गिद्दा, टिप्पा आदि का खुलकर प्रयोग करते हैं ताकि नव-दीक्षित ईसाइयों को अपनी परंपरागत सांस्कृतिक धारा से कटने का एहसास न सताए। ग़ौरतलब है कि पूर्वोत्तर भारत, जनजातीय एवं आदिवासी क्षेत्रों में जहाँ मिशनरियों ने सेवा-शिक्षा-चिकित्सा की आड़ में मतांतरण का धंधा चलाया, वहीं पंजाब के पादरी-प्रचारक अविश्वसनीय-चमत्कारी दावों की आड़ में यह अभियान चला रहे हैं।
सनद रहे कि मतांतरण केवल आस्था-विश्वास-उपासना पद्धत्ति का ही रूपांतरण नहीं, वह प्रकारांतर से राष्ट्रांतरण भी है। मतांतरित होते ही व्यक्ति की राष्ट्र, समाज और संस्कृति के प्रति धारणा और भावना बदल जाती है। वह अपने पुरखों, परंपरा और विरासत से कट जाता है। न केवल कट जाता, बल्कि कई बार उनके प्रति हीनता या घृणा की गाँठें भी पाल लेता है। विरासत बदलने के कारण उसकी कल्पना का मुक़म्मल या आदर्श समाज, भविष्य के सपने और आकांक्षाएँ भी बदल जाती हैं। भूमि, नदी, पर्वत, सागर व तीर्थ से लेकर प्रकृति-परिवेश के प्रति उसकी सोच और श्रद्धा के केंद्र बदल जाते हैं। जीवन के आदर्श, मूल्य, मान-बिंदु, गौरवबोध तथा अतीत व वर्तमान के जय-पराजय, मान-अपमान, शत्रु-मित्र के प्रति उसका संपूर्ण बोध और दृष्टिकोण बदल जाता है। देश पर आक्रमण करने वाले आक्रांता, देश को गुलाम बनाने वाली सत्ताएँ, देश का पराजय तब उनके लिए पीड़ा-टीस-कलंक के नहीं, बल्कि बहुधा गौरव या संवेदनहीन तटस्थता के विषय बन जाते हैं। यह अकारण नहीं कि भारत वर्ष के लगभग सभी संतों-गुरुओं-महापुरुषों एवं स्वतंत्रता-सेनानियों ने मतांतरण का मुखर विरोध किया था। जहाँ-जहाँ सनातन घटा, देश बंटा- यह भी केवल धारणा या कपोल कल्पना नहीं, बल्कि इतिहास के कटु यथार्थ हैं। अतः भारत की विविधवर्णी-बहुलतावादी संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन एवं राष्ट्रीय एकता-अखंडता की दृष्टि से यह सर्वथा उचित ही होगा कि छल-बल-भय-प्रलोभन आदि के आधार पर फलने-फूलने वाले मतांतरण पर अविलंब रोक लगे और मतांतरण का धंधा करने वालों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई की जाय! गुरुपर्व एवं 553वें प्रकाशोत्सव पर श्री गुरुनानक देव जी के प्रति उनके अनुयायियों समेत इस कृतज्ञ राष्ट्र की यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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