Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड – भाग 18

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड – भाग 18

सुमंत विद्वांस

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भरत जी अपने मामा के साथ जाते समय भाई शत्रुघ्न को भी साथ ले गए थे। उनके मामा युधाजित् अश्वयूथ के अधिपति थे। उनके राज्य में दोनों भाइयों का बड़ा आदर सत्कार हुआ और वे वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनकी सभी इच्छाएँ पूरी की जाती थीं और मामा भी उन पर बहुत स्नेह करते थे, किंतु फिर भी दोनों भाइयों को सदा अपने वृद्ध पिता महाराज दशरथ की याद भी आती थी। इधर अयोध्या में महाराज दशरथ भी इन दोनों पुत्रों का स्मरण करते थे।
पिता को तो सभी पुत्र समान रूप से प्रिय थे, किंतु उनमें भी अत्यधिक गुणवान होने के कारण श्रीराम उन्हें विशेष प्रिय थे।
श्रीराम अत्यंत रूपवान एवं पराक्रमी थे। वे किसी के दोष नहीं देखते थे, सदा शांत रहते थे और सभी से मीठे वचन बोलते थे। वे अतीव बुद्धिमान एवं विद्वान थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे और न किसी का निरादर करते थे। अपने मन को सदा वश में रखने के कारण वे अत्यंत क्षमाशील भी थे। उपयुक्त समय पर अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास करने के साथ-साथ ही वे समय-समय पर उत्तम विद्वानों से चर्चा भी किया करते थे और अपना ज्ञान बढ़ाते जाते थे। बुद्धि व पराक्रम से परिपूर्ण होते हुए भी उनके मन में अहंकार का कोई चिह्न भी नहीं था। प्रजा के प्रति उनके मन में विशेष अनुराग था और वे अपने पास आने वाले मनुष्यों से सदा प्रसन्नतापूर्वक मिलते थे और स्वयं ही आगे बढ़कर उनसे बातें करते थे।
उनके मन में दीन-दुखियों के प्रति अत्यधिक करुणा थी। वे कभी अमंगलकारी अथवा निषिद्ध कृत्यों में संलग्न नहीं होते थे और न ही परनिंदा में उनकी कोई रुचि थी। वे सदा न्याय के पक्ष में खड़े रहते थे और अपने क्षत्रिय धर्म के पालन को अत्यधिक महत्व देते थे। श्रीराम सभी विद्याओं में निष्णात एवं समस्त वेदों के ज्ञाता थे। बाणविद्या में तो वे अपने पिता से भी बढ़कर थे। उनकी स्मरणशक्ति भी अद्भुत थी। वे विनयशील थे व अपने मन के अभिप्राय को गुप्त रखते थे। वे अपने गुरुजनों का सम्मान करते थे।
वस्तुओं का कब त्याग करना है और कब संग्रह करना है, इसे वे भली-भांति समझते थे। वे स्थितप्रज्ञ थे एवं अनुचित बातों को कभी ग्रहण नहीं करते थे। वे आलस्य रहित व प्रमादशून्य थे एवं अपने व पराये लोगों के दोषों को वे अच्छे से जानते थे। दूसरों के मनोभावों को जानने में वे कुशल थे तथा यथायोग्य निग्रह व अनुग्रह करने में भी पूर्ण चतुर थे। आय के उचित मार्गों और व्यय के आवश्यक कर्मों को भी वे समझते थे।
संस्कृत व प्राकृत भाषा के नाटकों, गीत-संगीत, वाद्य, चित्रकारी आदि के भी वे विशेषज्ञ थे। धनुर्वेद के वे ज्ञाता थे और सभी प्रकार के अस्त्रों को चलाने में उन्हें विशेष प्रवीणता थी। हाथी व घोड़े की सवारी करने में भी वे निपुण थे।
इतने गुणों से संपन्न होते हुए भी उनके मन में किसी के प्रति अवहेलना का भाव नहीं था, न ही अहंकार का कोई चिह्न था। ऐसे सदाचारी, सद्गुणसंपन्न, अजेय पराक्रमी श्रीराम से पूरी प्रजा अत्यधिक स्नेह करती थी और सबकी कामना थी कि एक दिन श्रीराम उनके राजा बनें।
अपने पुत्र के इन्हीं गुणों को देखकर महाराज दशरथ के मन में भी अब वही विचार आने लगा था। एक दिन उन्हें यह चिन्ता की हुई कि ‘अब मैं वृद्ध हो गया हूँ, अतः आवश्यक है कि मेरे जीते-जी ही राम राजा बन जाए और मैं उसके राज्याभिषेक को देखूँ। अपनी आँखों से मैं अपने प्रिय पुत्र को इस सारी पृथ्वी का राज्य चलाते हुए देख लूँ, तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा और मैं यथासमय सुखपूर्वक इस संसार से विदा ले सकूँगा।”
इस प्रकार सोचकर एवं श्रीराम के सभी गुणों का यथायोग्य विचार करके उन्होंने अपने मंत्रियों को परामर्श के लिए बुलवाया। महाराज दशरथ ने उन्हें स्वर्ग, अन्तरिक्ष व भूतल में दिखाई देने वाले अनेक घोर उत्पातों का अपना भय बताया एवं अपने शरीर की वृद्धावस्था की बात भी कही। उसके बाद उन्होंने श्रीराम के गुणों का वर्णन किया एवं उनके राज्याभिषेक के बारे में मंत्रियों के विचार जाने। तत्पश्चात उपयुक्त समय आने पर उन्होंने मंत्रियों को शीघ्र ही श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ करने को कहा।
अपने मंत्रियों को भेजकर उन्होंने विभिन्न राज्यों, जनपदों एवं नगरों में निवास करने वाले सभी प्रमुख जनों को भी अयोध्या में बुलवा लिया। उन सबके ठहरने की उचित व्यवस्था की गई और अनेक प्रकार के आभूषणों आदि के द्वारा उनका यथोचित सत्कार किया गया।
सभी राजाओं को बुलवाया गया था, किंतु केकयनरेश को तथा मिथिलापति जनक को आमंत्रित नहीं किया गया।
सब लोगों के आ जाने पर महाराज दशरथ भी दरबार में पधारे। उस राजसभा में उपस्थित सभी नरेशों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “सज्जनों! आप सब लोगों को यह विदित ही है कि मेरे पूर्वजों ने इस श्रेष्ठ राज्य की प्रजा का पालन सदा अपनी संतान की भांति ही किया है। मैंने भी अपने पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण करते हुए सदा ही अपनी प्रजा की रक्षा की है। इतने दीर्घकाल तक इस दायित्व को वहन करते हुए अब मैं थक गया हूँ। मेरा यह शरीर अब बूढ़ा हो गया है। राजकाज के भार को संभालना अब मेरे लिए कठिन हो गया है। अतः सभी श्रेष्ठजनों की अनुमति लेकर प्रजा-हित के कार्य में अपने पुत्र श्रीराम को नियुक्त करके अब मैं राजकाज से निवृत्त होना चाहता हूँ। यदि मेरा यह प्रस्ताव आप सबको उचित लगे, तो कृपया इसके लिए मुझे अनुमति दें अथवा यदि यह आपको अनुचित लगता हो, तो बताएँ कि मुझे क्या करना चाहिए। श्रीराम के राज्याभिषेक का विचार तो मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नतादायी है, किंतु यदि इसके अतिरिक्त भी कोई अन्य बात सबके लिए अधिक हितकर हो, तो आप उसे भी सोचें क्योंकि एकपक्षीय मनुष्य की अपेक्षा तटस्थ जनों का विचार अधिक उपयुक्त होता है।”
राजा दशरथ का यह प्रस्ताव सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग अत्यंत प्रसन्न हुए। उन सबने हर्षित होकर इस प्रस्ताव का समर्थन किया, किंतु राजा दशरथ यह जानना चाहते थे कि वे लोग सचमुच श्रीराम को राजा देखना चाहते हैं अथवा केवल दशरथ को संतुष्ट करने के लिए सहमति दे रहे हैं। अतः उन्होंने सभा से पुनः पूछा, “मेरी बात सुनकर आप लोगों ने श्रीराम को राजा बनाने की इच्छा प्रकट की है, किंतु इससे मुझे यह संशय हो रहा है कि जब मैं धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का निरंतर पालन कर रहा हूँ, तो फिर मेरे रहते हुए ही आप लोग श्रीराम को युवराज क्यों देखना चाहते हैं? कृपया आप लोग मुझे इसका यथार्थ उत्तर दें।”
यह सुनकर सभा के सदस्यों ने श्रीराम के उन सभी गुणों का वर्णन किया, जिनका ऊपर उल्लेख हो चुका है। अंत में सभासदों ने कहा कि ‘इन्हीं सद्गुणों के कारण हम आपके पुत्र श्रीराम को यथाशीघ्र युवराजपद पर विराजमान देखना चाहते हैं। अतः आप हमारे हित के लिए शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक उनका राज्याभिषेक कीजिए’।
ऐसे अनुकूल वचन सुनकर महाराज दशरथ ने सभी को धन्यवाद दिया और फिर वे वामदेव, वसिष्ठ आदि ब्राह्मणों से बोले, “यह चैत्रमास बड़ा सुन्दर एवं पवित्र है। सारे वन-उपवन खिल उठे हैं। अतः युवराजपद पर श्रीराम का अभिषेक करने के लिए आप लोग सामग्री एकत्र करवाइये। श्रीराम के अभिषेक के लिए जो भी कर्म आवश्यक हो, उसे विस्तार से बताइये और आज ही सब तैयारी करने के लिए सेवकों को आज्ञा दीजिये।”
राजा की ये बातें सुनकर मुनिवर वसिष्ठ ने सेवकों से कहा, “तुम लोग स्वर्ण आदि रत्न, देवपूजन की सामग्री, सब प्रकार की औषधियाँ, सफेद फूलों की मालाएँ, खील, शहद, घी, नये वस्त्र, रथ, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, चतुरंगिणी सेना, उत्तम लक्षणों से युक्त हाथी, चमरी गाय (याक) की पूँछ से बने दो व्यजन (पंखे), ध्वज, श्वेत छत्र, सोने के सौ कलश, सोने से मढ़े हुए सींगों वाला एक सांड, समूचा व्याघ्रचर्म (बाघ की खाल) और अन्य जो भी वांछनीय वस्तुएँ हैं, उन सब को एकत्र करो और प्रातःकाल महाराज की अग्निशाला में पहुँचा दो।”
“अन्तःपुर तथा समस्त नगर के सभी दरवाजों को चन्दन और मालाओं से सजा दो तथा लोगों को आकर्षित करने वाली सुगन्धित धूप वहाँ सुलगा दो। दही, दूध और घी आदि से युक्त अत्यंत उत्तम व गुणकारी अन्न तैयार करवाओ, जो एक लाख ब्राह्मणों के भोजन के लिए पर्याप्त हो। कल प्रातःकाल श्रेष्ठ ब्राह्मणों का सत्कार करो व उन्हें वह अन्न प्रदान करो। साथ ही, घी, दही, खील और पर्याप्त दक्षिणा भी दो। कल सूर्योदय होते ही स्वस्तिवाचन होगा। इसके लिए ब्राह्मणों को निमंत्रित करो व उनके आसनों का प्रबन्ध कर लो।”
“नगर में सब ओर पताकाएँ फहराई जाएँ तथा राजमार्गों पर छिड़काव किया जाए। संगीत में निपुण सभी पुरुष तथा सुन्दर वेशभूषा से विभूषित वारांगनाएँ (नर्तकियाँ) राजमहल की दूसरी ड्योढ़ी में पहुँचकर खाड़ी रहें। देवमन्दिरों में एवं चौराहों पर जो पूजनीय देवता हैं, उन्हें भोज्य पदार्थ व दक्षिणा प्रस्तुत की जाए। लंबी तलवार लिए एवं गोधाचर्म (गोह की खाल) से बने दस्ताने पहने और कमर कसकर तैयार रहने वाले शूरवीर योद्धा स्वच्छ वस्त्र धारण करके महाराज के आँगन में प्रवेश करें।”
इस प्रकार अपने सेवकों को सभी निर्देश देने के बाद मुनि वसिष्ठ और वामदेव ने उन सब क्रियाओं को पूर्ण किया, जो उन दोनों पुरोहितों द्वारा की जानी थीं। तदुपरान्त महाराज के पास जाकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा, “राजन्! आपने जैसा कहा था, उसके अनुसार सब कार्य संपन्न हो गये हैं।”
यह सुनकर तेजस्वी राजा दशरथ ने सुमन्त्र से कहा, “मित्र! तुम शीघ्र जाकर मेरे प्रिय राम को यहाँ बुला लाओ।”

आगे जारी रहेगा …..

 

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