कुछ दिन पहले एक वीडियो देखा था उसमे एक सरदारजी बता रहे थे… वो 9 साल के थे जब उनका परिवार लाहौर से भागा था. दंगे हो रहे थे, दंगाई लोगों को मार रहे थे, और जवान लड़कियों और महिलाओं को उठा कर ले जा रहे थे.
सरदारजी बता रहे थे…उनके दादाजी ने अपने हाथ से अपने परिवार की सोलह जवान लड़कियों और बहुओं का सर काट दिया. लड़कियां एक एक कर आतीं, दादाजी अपनी किरपान से उनका सर धड़ से अलग कर देते. फिर बचे खुचे लोगों को लेकर किसी तरह अमृतसर पहुंचे…
बहुत ही मार्मिक प्रसंग था. पर एक सवाल पूछने को मजबूर कर देता है… अपने परिवार की लड़कियों का सर काट दिया…खुद किस मुंह से जिंदा रह गए? खुद उन दंगाइयों में से दस बीस को मारते हुए क्यों नहीं बलिदान हुए? जो पुरुष अपने परिवार की स्त्रियों की रक्षा नहीं कर सका वह जीवित किस अधिकार से है?
यह बहुत ही कॉमन स्टैंड है.. कुछ अनहोनी हो ली…. मान लिया कि मर गई. मान लिया, और हो गया? यह लड़की तो अपनी गलती से मरी है, अपनी मर्जी से गई है… लेकिन निर्भया का क्या? उसका हत्यारा अफरोज तो आज भी जीवित है. सरकार से सिलाई मशीन लेकर कहीं लेडीज टेलर की दुकान चला रहा होगा. अपनी कौम का हीरो बना होगा. निर्भया मर गई, तो क्या उसके परिवार के सारे पुरुष भी मर गए?
अगर एक बेटी ने गलती ही कर दी, तो क्या वह बेटी नहीं रही? जब तक जिन्दा थी, उसकी गलती थी. आज वह मर गई, और उसके टुकड़े टुकड़े काट कर फेंकने वाला आज भी जिन्दा है. उस लड़की का कोई भाई, कोई पिता नहीं है जो इसका प्रतिकार करे, इसका प्रतिशोध ले? बस हमने कह दिया कि हमारे लिए मर गई… हो लिया. यह शुद्ध कायरता है, और कुछ नहीं.
लड़की का दोष है…लड़की 25 साल की हो गई और उसने गलत निर्णय लिया. लेकिन लड़की 25 साल की एक ही दिन में नहीं हो गई. लड़की को जिन वैल्यूज के साथ बड़ा किया गया उसका क्या? आपने समझाया और लड़की नहीं समझी… इस फेल्योर को कौन स्वीकार करेगा, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? आपने समझाया? या सिर्फ संस्कारों पर भाषण दिया?
कम्युनिकेशन दो तरफा ट्रैफिक है. कम्युनिकेशन का अर्थ सिर्फ समझाना नहीं होता, समझना भी होता है. हम अपने बच्चों को समझते ही नहीं हैं, समझाएंगे क्या? वे कहां गलत जा रहे हैं, क्या वैल्यूज चुन रहे हैं, उनके जीवन पर क्या परिणाम होंगे…यह कभी सोचते ही नहीं. और एक दिन उठेंगे, संस्कारों पर भाषण दे कर बैठ जायेंगे… हो गया समझाना…
श्रद्धा जैसी लड़कियां भटक रही हैं… यह हमारी हार है. हमारी इंटलेक्चुअल फेल्योर है. और ये भटक रही लड़कियां हजारों, लाखों में हैं. अब इसे माइनॉरिटी फेनोमेना कहकर मुंह चुरा लीजिए, आपकी मर्जी. लेकिन सच यही है कि 15-25 आयु वर्ग की 99% लड़कियों से हमारा कम्युनिकेशन शून्य है. हमारी उनसे बात नहीं होती, या होती है तो एकतरफा होती है. उनकी भाषा में, उनके स्तर पर नहीं होती. और उन तक पहुंचने के लिए जो भाषा बोलनी होगी, वह आप किसी को बोलने भी नहीं देंगे. फिर उनमें से एक गलती करेगी, सूटकेस या फ्रिज में बन्द मिलेगी… आप कल को चाहे उसे कोस लीजिएगा. लेकिन सच यही है कि उन्हें उस रास्ते हम ही भेज रहे हैं.