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महर्षि उद्दालक आरुणि के पुत्र

ज़ोया मंसूरी

by ज़ोया मंसूरी
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अद्वैत वेदांत के महावाक्य ‘तत्वमसि’ का वाचन करने वाले महर्षि उद्दालक आरुणि के एक पुत्र थे, श्वेतकेतु जो पांचाल देश मे जन्मे थे और आज के उत्तराखंड में कहीं रहते थे। महावाक्य ‘तत्वमसि’ का अर्थ है “तुम वही हो, जो तुम ढूंढ रहे हो।” श्वेतकेतु का वर्णन मुख्यतः उपनिषदों में मिलता है। श्वेतकेतु ऋषि गौतम के वंशज और ऋषि अष्टावक्र के भांजे थे।
उपनिषदों में उनका वर्णन राजा जनक की सभा मे मिलता है, तो सम्भवतः वह रामायण काल मे पैदा हुए थे। जिस दौर में श्वेतकेतु का जन्म हुआ था, तब स्त्रियां गायों की तरह स्वतंत्र थी, जो ऋतु काल को छोड़ बाकी समय मे किसी भी पुरूष के साथ समागम कर सकती थी। अर्थात उस प्राचीन काल मे भी स्त्रियों को पूर्ण रूप से मानसिक, शारीरिक और आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। स्त्रियों की पूर्ण स्वतंत्रता ही ‘धर्म’ थी।
यह एक तरह से प्राचीन काल की ‘लिव इन’ परम्परा ही थी, बस फर्क इतना था कि स्त्रियाँ समागम के पश्चात परिवार में वापस लौट आती थी। एक तरफ जहां कुछ सौ साल पहले कुछ सभ्यताओं में स्त्रियों को डायन कह कर जला दिया जाता, वही एक अन्य सभ्यता में हज़ारों साल पहले ही स्त्रियों को वह स्वतंत्रता मिली हुई थी, जिसकी कल्पना भी आज नहीं की जा सकती।
महाभारत के आदिपर्व के अनुसार एक बार श्वेतकेतु अपने माता पिता के साथ घर के बाहर बैठे हुए थे तभी एक परिव्राजक आया और उनकी माता उसके साथ चली गई। यह बात श्वेतकेतु को बड़ी बुरी लगी। श्वेतकेतु ने इसे सभ्य समाज के नियमों के विपरीत माना और विवाह का नियम बनाया। पर-पुरूष या पर-स्त्री के पास जाने वाले स्त्री-पुरूष दोनों ही भ्रूण हत्या के दोषी माने गए।
यही से वृहद संयुक्त परिवार व्यवस्था की शुरूआत होती है, जिसने एक सभ्य समाज को जन्म दिया। उनके द्वारा बनाया गया यह नियम आज भी धर्म-शास्त्र में मान्य है। सभ्य स्त्रियों के नज़रिए से देखें तो, श्वेतकेतु जैसे वैदिक ऋषियों ने हमारे समाज को सभ्य बनाया। फेमिनिस्टों के नजरिये से देखें तो वैदिक ऋषियों ने विवाह परम्परा द्वारा स्त्रियों की स्वतंत्रता छीन ली वरना आज उन्हें पुरुष टॉयलेट में घुसने के लिए संघर्ष न करना पड़ता।

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