Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 32
श्रीराम के पीछे-पीछे जो अयोध्यावासी तमसा नदी के तट तक आ गए थे, वे अगली सुबह जागने पर श्रीराम को वहाँ न पाकर अत्यंत व्याकुल हो गए। उन्होंने आस-पास बहुत खोजा, किन्तु उन्हें श्रीराम, लक्ष्मण, सीता या सुमन्त्र का कोई चिह्न तक दिखाई नहीं दिया। तब वे लोग निराश होकर अपनी निद्रा को धिक्कारने लगे, जिसके कारण श्रीराम के जाने का उन्हें पता नहीं चला था।
वे लोग आपस में सोचने लगे कि अब आगे क्या किया जाए। क्या जंगल की सूखी लकड़ियाँ एकत्र करके वहीं एक सामूहिक चिता जला लें व उसी में जलकर भस्म हो जाएँ या श्रीराम की खोज में और आगे बढ़ें? अब श्रीराम के बिना घर लौटकर अयोध्या की स्त्रियों, बालकों, वृद्धों को क्या मुँह दिखाएँगे?
ऐसी बातें सोचते हुए अंततः उन्होंने आगे बढ़ने का निश्चय किया। मार्ग पर रथ के चिह्नों को देखते हुए वे लोग कुछ दूरी तक आगे बढ़े, किन्तु उसके आगे अचानक ही उन्हें रथ की लीक दिखना बन्द हो गई और वे मार्ग का ठीक निश्चय नहीं कर पाए। अंततः हार मानकर वे सब क्लांत मन से अयोध्या को लौट गए।
श्रीराम से सूनी हो चुकी उस उदास अयोध्या नगरी को देखकर उनका हृदय व्याकुल हो उठा और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। जब वे लोग अपने-अपने घरों में पहुँचे, तो श्रीराम के बिना ही उनके लौट आने की बात सुनकर उन सबके परिवारजन भी शोक से कातर हो गए और दुःख से अश्रु बहाने लगे।
श्रीराम के जाने से अयोध्या में सबका मन शोकाकुल हो गया था। किसी के मन में कोई उत्साह नहीं बचा था। उस दिन अयोध्या के घरों में चूल्हे नहीं जले, बाजारों में दुकानें नहीं खुलीं, कहीं भी अग्निहोत्र, स्वाध्याय, कथा-वार्ता आदि कुछ भी नहीं हुआ। सब लोग इस प्रकार दुःखी हो गए थे, मानो उनके ही सगे बेटे या भाई को वन में भेज दिया गया हो।
उधर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण सूर्योदय से पूर्व ही विभिन्न जनपदों को पार करते हुए बहुत दूर निकल गए थे। मार्ग में पड़ने वाले छोटे-बड़े गाँवों से होते हुए उनका रथ तेज गति से आगे बढ़ता रहा। उन्हें देखकर उन ग्रामों के निवासी भी आपस में कहने लगे कि ‘हाय! कामासक्त राजा दशरथ को धिक्कार है। उस निष्ठुर कैकेयी को धिक्कार है जिसने ऐसे गुणवान पुत्र को घर से निकलवा दिया। जो सीता सदा सुख में ही पली-बढ़ी थी, अब वह वनवास के दुःखों का सामना कैसे करेंगी?’
इस प्रकार की बातें सुनते हुए वीर श्रीराम ने वेदश्रुति (वर्तमान नाम ‘बिसुही’) नामक नदी को पार किया। बहुत समय तक आगे बढ़ते रहने पर वे लोग गोमती नदी के तट पर पहुँचे, जिसके कछार में अनेक गौएँ विचरण करती थीं। गोमती को पार करने के बाद उन्होंने स्यन्दिका (वर्तमान नाम ‘सई’) नदी को पार किया, जिसके किनारों पर मोर एवं हंस कलरव कर रहे थे। यही नदी कोसल राज्य की सीमा-रेखा भी थी।
कोसल की सीमा को पार करने पर श्रीराम ने रुककर अयोध्या की ओर मुँह किया और हाथ जोड़कर से कहा, “हे महान अयोध्या नगरी! अब तुम मुझे वन जाने की आज्ञा दो। वनवास की अवधि पूरी करने पर मैं महाराज के ऋण से मुक्त हो जाऊँगा और तब पुनः लौटकर तुम्हारा व अपने माता-पिता का दर्शन करूँगा।”
अनेक ग्रामवासी उनके दर्शनों के लिए वहाँ उपस्थित थे। अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाकर नेत्रों से आँसू बहाते हुए दुःखी श्रीराम ने उन लोगों से कहा, “आप सबने मेरे लिए बहुत देर तक कष्ट सहा। आपका इस प्रकार दुःख में पड़े रहना अच्छा नहीं है, अतः अब आप लोग अपने-अपने घर लौट जाइये।”
ऐसा कहकर श्रीराम अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए। उन्होंने रथ में सुमन्त्र से कहा, “सूत! मैं पुनः कब लौटकर माता-पिता से मिलूँगा और सरयू के निकटवर्ती वन में कब शिकार के लिए भ्रमण करूँगा?”
इस प्रकार सुमन्त्र से विभिन्न विषयों पर बातें करते-करते वे लोग त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गंगा के पास आ पहुँचे। वह शीतल जल से भरी हुई अत्यंत रमणीय नदी थी। उस देवनदी के किनारों पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर अनेक सुन्दर आश्रम बने हुए थे, जिनमें बहुत-से महर्षि प्रसन्नतापूर्वक रहते थे। गंगा नदी का जल कहीं-कहीं बहुत शांत व गहरा है, तो कहीं वह अत्यंत तीव्र गति से बहता है। कहीं उसके जल से फेन उत्पन्न होता है और चट्टानों पर जल टकराने से कहीं मृदंग के समान गंभीर और कहीं वज्रपात के समान भीषण स्वर सुनाई देता है, मानो क्रोधित होकर गंगा उग्र अट्टहास कर रही हो।
गंगा नदी से किनारों पर देवताओं के अनेक उद्यान हैं। कहीं गंगा का जल नील कमलों से छिप जाता है, तो कहीं उसमें बालू के विशाल ढेर दिखाई पड़ते हैं। इस नदी के किनारों पर कहीं-कहीं हंसों और सारसों का कलरव गूँजता है, तो कहीं चकवे एवं भँवरे उसकी शोभा बढ़ाते हैं। रंग-बिरंगे फूलों, फलों, लताओं, पक्षियों से सजी वह नदी अत्यंत सुन्दर दिखाई पड़ती है। उसका स्वच्छ जल मणियों के समान निर्मल है। उसके तटवर्ती वनों में अनेक जंगली हाथियों का कोलाहल गूँजता रहता है। गंगा नहीं के जल में सूँस, घड़ियाल व सर्प निवास करते हैं और उसके किनारों पर क्रौञ्च पक्षी कलरव करते हैं। यही गंगा आकाश में देवपद्मिनी कहलाती है।
इस गंगा नदी को देखते हुए इसके किनारे-किनारे चलकर श्रीराम का रथ श्रृंगवेरपुर के निकट पहुँच गया। तब महारथी श्रीराम ने अपने सारथी सुमन्त्र से कहा, “सूत! आज हम लोग यहीं रहेंगे। गंगाजी के समीप ही अनेक पुष्पों से सुशोभित यह महान इंगुदी का जो वृक्ष है, आज की रात हम इसी के नीचे निवास करेंगे। यहाँ से मुझे कल्याणस्वरूपा गंगा जी का दर्शन भी होता रहेगा।”
तब श्रीराम की आज्ञा के अनुसार रथ को सुमन्त्र उस वृक्ष के निकट ले गए। वहाँ पहुँचकर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण रथ से उतरे। सुमन्त्र ने भी घोड़ों को रथ से खोल दिया और वे वृक्ष के नीचे बैठे श्रीराम के पास जाकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
श्रृंगवेरपुर में गुह नाम का राजा राज्य करता था। उसका जन्म निषादकुल में हुआ था। वह शारीरिक शक्ति और सैन्य शक्ति में अत्यंत बलवान था एवं वह श्रीराम का प्राणों के समान प्रिय मित्र था।
निषादराज गुह ने जैसे ही सुना कि श्रीराम मेरे राज्य में पधारे हैं, तो वह तुरंत ही अपने वरिष्ठ मंत्रियों व बंधु-बांधवों के साथ वहाँ आ पहुँचा। श्रीराम को वल्कल वस्त्रों में देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने उन्हें गले से लगाकर कहा, “श्रीराम! आपके लिए जैसा अयोध्या का राज्य है, वैसे ही यह राज्य भी है। आपका हार्दिक स्वागत है। मेरे अधिकार की यह सारी भूमि आपकी ही है। हम आपके सेवक हैं और आप हमारे स्वामी हैं। आज से आप ही हमारे इस राज्य पर शासन करें। आपकी सेवा में यह अन्न, खीर, चटनी, पेय आदि भोजन उपस्थित है। आप इसे स्वीकार करें। आपके विश्राम के लिए ये उत्तम शैय्याएँ हैं तथा आपके अश्वों के लिए भी हम लोग चने व घास आदि लाए हैं। आप यह सब सामग्री ग्रहण करें।”
राजा गुह के ऐसे वचन सुनकर श्रीराम ने उसका आलिंगन करते हुए कहा, “मित्र! तुम इतनी दूर तक पैदल चलकर आए और इस प्रकार स्नेहपूर्वक हमसे बात की, उसी में हमारा सब स्वागत-सत्कार हो गया है। तुमसे मिलकर व तुम्हें इस प्रकार अपने बंधु-बान्धवों के साथ देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुआ। इन दिनों मैं वल्कल एवं मृगचर्म धारण करके तापस वेश में विचरता हूँ और केवल फल-मूल का ही आहार करता हूँ। अभी इस नियम के अधीन होने के कारण मैं दूसरों की दी हुई सामग्री ग्रहण नहीं कर सकता। अतः तुमने प्रेमपूर्वक जो यह सब सामग्री प्रस्तुत की है, मैं इसे स्वीकार करके भी तुम्हें यह आज्ञा दे रहा हूँ कि तुम इसे वापस ले जाओ। इसमें घोड़ों के खाने-पीने की जो सामग्री है, मुझे इस समय केवल उतने की ही आवश्यकता है। ये घोड़े मेरे पिता अत्यंत प्रिय हैं। इनके खाने-पीने का अच्छा प्रबंध हो जाने मात्र से ही मेरा भी पूर्ण सत्कार हो जाएगा।”
तब गुह ने अपने सेवकों को उन अश्वों के खाने-पीने की सभी आवश्यक वस्तुएँ तुरंत लाने को कहा।
तत्पश्चात श्रीराम ने संध्योपासना करने के उपरान्त केवल लक्ष्मण का लाया हुआ जल ही भोजन के रूप में ग्रहण किया। फिर वे अपनी पत्नी सीता के साथ घास की शैय्या बिछाकर लेट गए। भाई लक्ष्मण, सारथी सुमन्त्र व निषादराज गुह उनसे कुछ दूर हटकर एक वृक्ष का सहारा लेकर बैठ गए और रात-भर जागकर बातचीत करते रहे।
उस रात जल्दी नींद न आने के कारण श्रीराम भी बहुत देर तक जागते रहे।
आगे जारी रहेगा…..
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

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