Home विषयअपराध श्रद्धा हत्याकाण्ड भाग 6 : पुलिस पर सवाल उठाना बहुत आसान है।

श्रद्धा हत्याकाण्ड भाग 6 : पुलिस पर सवाल उठाना बहुत आसान है।

Isht Deo Sankrityaayan

by Isht Deo Sankrityaayan
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  • सवाल उठाने वालों को कभी यह भी सोचकर देखना चाहिए कि पुलिस किस-किस के बेडरूम में घुसे।
  • देश के किसी भी प्रांत की पुलिस स्टाफ की कमी से पहले ही जूझ रही है। चाहे वह कोई भी प्रांत हो।
  • जो स्टाफ है भी उसमें से आधे से अधिक पहले ही तथाकथित वीआईपी और उनके परिजनों की सेवा में लगी है। सुरक्षा के नाम पर उनके लॉन की घास काटने से लेकर बच्चे की नैपी बदलने तक मे व्यस्त है। ऐसा नहीं है कि उसे यह करना अच्छा लगता है। लेकिन क्या करें! नौकरी तो करनी है।
  • जो बची है, उस पर जितनी आबादी और वसूली का दबाव है, उसे झेलना कोई मामूली काम नहीं है। जनसामान्य को सामान्य सुरक्षा ही दे ले तो यह बहुत बड़ी बात होगी। अब इस स्थिति में हर किसी को व्यक्तिगत सुरक्षा दे पाना कहीं संभव है क्या!
  • वह भी लिव-इन पार्टनर्स के मामले में। जिनसे ज्यादा गैर भरोसेमंद और अनैतिक (मैं सीधे कह रहा हूँ – दुश्चरित्र) कोई हो ही नहीं सकता! नैतिकता और चरित्र की तो बात ही छोड़िए, जिनमें शर्म और दायित्व का जरा भी बोध होगा, वे इसके लिए कभी तैयार नहीं हो सकते।
  • उन देशों की बात अलग है जिनके लिए प्रगति और विकास का कुल अर्थ केवल पाशविक अस्तित्व तक सीमित है। इस बात पर सवाल उठाने की सोचने वाले पहले ध्यान कर लें अंग्रेजी की इस कहावत का – When in Rome, do as Romans do. प्रश्न यह है कि यही बात भारत में क्यों नहीं! क्या किसी एजेंडाबाज जज का एक फैसला हमारी परंपराएं बदल देगा? क्या हमारी परंपराओं से बड़ा है कोई कोर्ट? तो फिर भारत में भारतीयों के लिए सम्मत आचरण की अपेक्षा क्यों नहीं?
  • जनाब, आपका फैसला कुछ भी हो, भारत का आम आदमी इन्हें संदेह की दृष्टि से देखता है। गैर-भरोसेमंद मानता है। वह आपके एक टुच्चे फैसले के नाते इन पर भरोसा नहीं कर सकता। पुलिस वाला आम आदमी ही होता है। वह जज नहीं होता। उसकी मानसिक बनावट वैसी ही होती है जैसी भारत के आम आदमी की होती है।
  • वह उस श्रद्धा पर विश्वास कैसे कर ले, जिसने अपने पूरे परिवार का गला घोंट दिया। क्यों? क्योंकि उसने आपके संविधान की ओर से प्रदत्त 25 वर्ष के होने के अधिकार का प्रयोग किया। माता-पिता, भाई-बहन किसी की भी समझाइश का कोई असर उस पर नहीं पड़ा। वह निकल गई एक सनकी के साथ।
  • हबस को प्रेम समझ कर, सिनेमा और विज्ञापनों जैसे दो कौड़ी के बेहूदे और टुच्चे माध्यमों पर विज्ञापित की जाने वाली तथाकथित ‘अपनी जिंदगी’ जीने।
  • फिर जब उसे यह लगा कि जिसे उसने उसने प्रेम समझा था, वह तो प्रेम के नाम पर भरपूर गंदगी से सने फटे जूते के अलावा और कुछ है ही नहीं, और वह भी प्रेम के ही मुँह पर, तब उसके पैरों के तले न तो जमीन रह गई थी और न ही सिर पर आसमान। अपनी जमीन और आसमान दोनों के सम्मान का गला तो उसने उसी दिन घोंट दिया था, जिस दिन वह अपने माँ-बाप की समझाइश को धता बताते हुए अपने घर से निकल गई थी।
  • कहा जाता है कि लिव इन वाली आर्थिक मामलों में आत्मनिर्भर होती है। रखैल से उन्हें इसी अर्थ से भिन्न बताया जाता है।
  • खैर, इस आत्मनिर्भरता की तफसील से खबर फिर कभी लूंगा। वैसे आपको बता दूँ कि मैं इसकी स्वतंत्रता की सच्चाई बहुत बुरी तरह जानता हूँ। लेकिन हाँ, उन महिला मित्रों के विश्वास को मैं चोट नहीं पहुँचा सकता, जिन्होंने बड़े भरोसे के साथ मुझे अपने निजी जीवन का सच बताया।
  • अगर लिव-इन वाली आत्मनिर्भर होती है, तो यह एहसास होने के बाद भी, कि आफताब उसकी बोटी-बोटी कर डालेगा, वह उसके साथ ही क्यों बनी रही? खासकर उस स्थिति में जबकि मामला यहाँ तक पहुँच गया कि उसे पुलिस में शिकायत करनी पड़ी? वह इस एहसास की बाद भी आफताब के साथ क्यों रहती रह गई? सबसे पहले उसने अपनी सुरक्षा के लिए खुद अलग होने का कदम कदम क्यों नहीं उठाया?
  • आखिर बड़े बड़े फुद्धिजीवियों ने लिव इन की वकालत के तहत अपने बड़े बड़े फौद्धिक लेखों में सबसे पहले यही विज्ञापनी दावा ही तो किया था कि जब तक निभे साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। हालाँकि इस दावे के लिहाज से देखें तो सुप्रीम कोर्ट का लिव इन वालों को कोई अधिकार देने का फैसला ही पूरी तरह गलत हो जाएगा। और वह है भी।
  • बहरहाल प्रश्न यह है कि अपने जीवन पर खतरा मंडराते देख श्रद्धा ने उसी समय आफताब से अलग होने का फैसला क्यों नहीं कर लिया? उसने अपनी सुरक्षा के लिए पहले खुद कदम उठाने के बजाय पुलिस से शिकायत ही क्यों की? क्या खुद मौत के कुएँ में रहते हुए किसी और से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह हमारी रक्षा करे? ऐसे समझदार व्यक्ति की रक्षा तो स्वयं परमपिता परमेश्वर भी नहीं कर सकता। क्या श्रद्धा यह उम्मीद कर रही थी पुलिस उसके बेडरूम में पहरा दे?

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