Home विषयजाति धर्म वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 34
वत्सदेश (प्रयाग) के वन में प्रवेश करने पर उन दोनों भाइयों ने अपने मनोरंजन के लिए वराह (जंगली सूअर), ऋश्य (संभवतः साम्भर?), पृषत् (चीतल) एवं महारुरु (बारहसिंगा) का शिकार किया। तत्पश्चात भूख लगने पर वे लोग कन्द-मूल आदि लेकर एक वृक्ष के नीचे ठहरने के लिए चले गए।
वहाँ बैठने पर श्रीराम ने अपने भाई से कहा, “लक्ष्मण! आज नगर से बाहर अपनी पहली रात है, जिसमें सुमन्त्र हमारे साथ नहीं हैं। आज से हम दोनों भाइयों को आलस्य त्यागकर रात में जागना होगा क्योंकि सीता की सुरक्षा हमारे ही अधीन है। यह रात हम लोग किसी प्रकार काटेंगे और स्वयं बटोरकर लाए गए तिनकों व पत्तों से शैय्या बना उसे भूमि पर बिछाकर किसी प्रकार उस पर सो लेंगे।”
“सुमित्राकुमार! आज महाराज दशरथ अवश्य ही बड़े दुःख में होंगे, किन्तु अपने मनोरथ सफल हो जाने के कारण अब कैकेयी बहुत संतुष्ट होगी। भरत के आते ही महाराज का राज्य छीनकर भरत को देने के लिए कैकेयी कहीं महाराज के प्राण ही न ले ले। इस समय अयोध्या में महाराज का कोई रक्षक नहीं है। वे बूढ़े हैं और मेरे वियोग का सामना कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में वे बेचारे अपनी रक्षा के लिए क्या करेंगे? मुझ पर आए हुए इस संकट को तथा पिताजी के भ्रमित मन को देखकर मुझे तो ऐसा ही लगता है कि काम का ही महत्व धर्म या अर्थ से अधिक है।”
“लक्ष्मण! अत्यंत अज्ञानी होने पर भी ऐसा कौन पुरुष होगा, जो एक स्त्री के लिए अपने आज्ञाकारी पुत्र का इस प्रकार परित्याग कर दे, जिस प्रकार पिताजी ने मुझे त्याग दिया? वास्तव में कैकेयी के पुत्र भरत ही सुखी हैं। अब पिताजी अत्यंत वृद्ध हो गए हैं और मैं वन को चला आया हूँ, अतः अब अकेले भरत ही समस्त राज्य के श्रेष्ठ सुख का उपभोग करेंगे। जो कोई अर्थ और धर्म का परित्याग करके केवल काम का ही अनुसरण करता है, वह उसी प्रकार शीघ्र ही विपत्ति में पड़ जाता है, जिस प्रकार इस समय महाराज दशरथ पड़े हैं।”
“अब मुझे लगता है कि महाराज दशरथ के प्राण लेने, मुझे देशनिकाला देने और भरत को राज्य दिलाने के लिए ही कैकेयी इस राजकुल में आई थी। अपने सौभाग्य के अहंकार से कैकेयी अब मेरे कारण माता कौसल्या व सुमित्रा को भी कष्ट पहुँचा सकती है। हम लोगों के कारण तुम्हारी माता सुमित्रादेवी को भी बड़े दुःख से वहाँ रहना पड़ेगा। अतः लक्ष्मण, तुम कल प्रातः ही यहाँ से अयोध्या को लौट जाओ। मैं अकेला ही सीता के साथ दण्डक वन में जाऊँगा और तुम वहाँ अयोध्या जाकर मेरी असहाय माता कौसल्या के भी सहायक बन जाओगे।”
“लक्ष्मण! कैकेयी के कर्म बड़े खोटे हैं। वह द्वेष के कारण अन्याय कर सकती है, तुम्हारी व मेरी माताओं को विष भी दे सकती है। मुझ जैसे पुत्र पर धिक्कार है कि मेरे जीवित होते हुए भी मेरी माता आज इस प्रकार शोक से पीड़ित है और राजमहल में होकर भी दुःख पा रही है।”
“यदि मैं कुपित हो जाऊँ तो अपने बाणों से अकेला ही अयोध्या को तथा समस्त भूमंडल को निष्कण्टक बनाकर अपने अधिकार में कर सकता हूँ, किंतु मैं अधर्म और परलोक से डरता हूँ, इसीलिए अयोध्या के राज्य पर मैंने अपना अभिषेक नहीं करवाया।”
ऐसी बहुत-सी बातें कहकर श्रीराम उस निर्जन वन में करुणाजनक विलाप करने लगे। उनके मुख पर उस समय आँसुओं की धारा बह रही थी और उदासी छा रही थी।
कुछ समय बाद उनके शांत होने पर लक्ष्मण ने कहा, “श्रीराम! आप अस्त्रधारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। आपके चले आने से अब अयोध्या नगरी का तेज भी छिन गया होगा। माँ सीता और मैं आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते, किन्तु इस प्रकार शोक करके आप हम दोनों को ही दुःख में डाल रहे हैं। आप व्याकुल न हों। इस प्रकार शोक करना आपके लिए उचित नहीं है।”
इस प्रकार बहुत देर तक बातें करने के बाद श्रीराम व सीता थोड़ी ही दूर पर एक वटवृक्ष के नीचे लक्ष्मण द्वारा बनाई गई एक सुन्दर शैय्या पर सोने चले गए।
प्रातःकाल सूर्योदय होने पर उन लोगों ने आगे की यात्रा आरंभ की।
भागीरथी गंगा जहाँ यमुना से मिलती है, उस संगम-स्थल पर जाने के लिए वे लोग उस गहन वन से होकर यात्रा करने लगे। मार्ग में उन्हें फूलों से सुशोभित अनेक प्रकार के वृक्ष तथा ऐसे विभिन्न भूभाग व मनोरम क्षेत्र दिखाई दिए, जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखे थे।
इस प्रकार बीच-बीच में रुककर आराम से चलते-चलते वे तीनों आगे बढ़ते रहे। जब दिन लगभग समाप्त होने को था, तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! वह देखो, प्रयाग के पास वह अग्नि की लपटें दिखाई दे रही हैं। इससे लगता है कि हम मुनिवर भरद्वाज के आश्रम के निकट आ पहुँचे हैं। दो नदियों का जल आपस में टकराने से जो नाद सुनाई देता है, वह भी सुनाई दे रहा है। वन में उत्पन्न होने वाले फल-मूल, लकड़ी आदि से अपना जीवनयापन करने वालों ने जो लकड़ियाँ काटी हैं, और जिन वृक्षों से काटी हैं, वे अनेक प्रकार के वृक्ष भी आश्रम के समीप दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
इस प्रकार की बातें करते हुए वे दोनों भाई गंगा-यमुना के संगम के समीप मुनिवर भरद्वाज के आश्रम में आ पहुँचे।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

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