Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 42
गुह को आता देख सुमन्त्र ने भरत को समझाया, “तात! यह बूढ़ा निषादराज गुह अपने सहस्त्रों भाई-बंधुओं के साथ यहाँ रहता है। यह तुम्हारे भाई श्रीराम का सखा है और इसे निश्चित पता होगा कि राम-लक्ष्मण दोनों भाई कहाँ हैं। इसे दण्डकारण्य के मार्ग की विशेष जानकारी भी है। अतः तुम इससे अवश्य मिलो।”
यह सुनते ही भरत ने मिलने की अनुमति दे दी।
वहाँ आने पर निषादराज ने भरत से कहा, “हमारा यह राज्य आपका ही है। आप यदि आगमन की सूचना पहले भिजवा देते, तो हमें भी आपके स्वागत की तैयारी का समय मिल जाता। हमारे पास जो कुछ है, सब आपका ही है। उसे आप स्वीकार करें।”
भरत ने उस सत्कार के लिए गुह को धन्यवाद दिया और फिर मार्ग की ओर संकेत करके पूछा, “निषादराज! गंगा किनारे का यह क्षेत्र तो बड़ा गहन है। भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचने के लिए मुझे किस मार्ग से जाना होगा?”
तब गुह ने कहा, “राजकुमार! आपके साथ मेरे कई मल्लाह जाएँगे, जो इस मार्ग से भली-भाँति परिचित हैं और मैं स्वयं भी आपके साथ चलूँगा। लेकिन आप यह बताइये कि कहीं आपके मन में श्रीराम के प्रति कोई दुर्भावना तो नहीं है?”
यह सुनकर भरत ने निर्मल वाणी में कहा, “निषादराज! ऐसा समय कभी न आये। तुम्हें मुझ पर संदेह नहीं करना चाहिए। श्रीराम मेरे पिता समान बड़े भाई हैं। मैं उन्हें वन से लौटा लाने के लिए जा रहा हूँ।”
भरत की बात सुनकर गुह की आशंका दूर हो गई और वह बहुत प्रसन्न हुआ। तब तक दिन बीत गया था और रात का अंधकार फैलने लगा था। सेना को विश्राम की आज्ञा देकर भरत और शत्रुघ्न भी सोने चले गए।
प्रातःकाल जागने पर भरत ने पुनः गुह को बुलवाया और सब लोगों को गंगा के पार उतरवाने के लिए नावों की व्यवस्था करने को कहा। यह आदेश मिलते ही गुह नगर में गया और सब मल्लाहों से कहकर उनकी नौकाएँ घाट पर लगवा दीं।
कुछ ही समय में वहाँ पाँच सौ नौकाएँ तैयार हो गईं। उनमें से एक नाव गुह स्वयं लेकर आया, जिसमें श्वेत कालीन बिछे हुए थे। उस पर सबसे पहले पुरोहित, गुरु व ब्राह्मण बैठे। फिर भरत, शत्रुघ्न, तथा दशरथ जी की सभी रानियाँ एवं राज-परिवार की अन्य स्त्रियाँ बैठीं। बैलगाड़ियाँ व अन्य वस्तुएँ दूसरी नावों पर लादी गईं।
सब सैनिक अपने खेमों को समेटने लगे और अपना-अपना सामान नावों पर लाकर लादने लगे। कुछ नावों पर केवल स्त्रियाँ थीं, कुछ नौकाओं पर बहुमूल्य रत्न और अन्य सब सामान था, कुछ नौकाओं पर घोड़े, खच्चर, बैल आदि लादे गए। कई लोग छोटी-छोटी नावों और कुछ लोग तो बाँस के बेड़ों पर सवार होकर नदी पार करने लगे। कुछ लोग बड़े-बड़े कलशों और घड़ों में, तो कुछ लोग तैरकर ही नदी पार करने लगे। हाथी भी उसी प्रकार स्वयं ही तैरकर नदी के पार चले गए।
उस पार उतर जाने पर भरत ने अपनी सेना को वहीं वन में ठहरने का आदेश दिया और अपने ऋत्विजों एवं सभासदों के साथ वे महर्षि भरद्वाज का दर्शन करने उनके आश्रम में गए।
महर्षि भरद्वाज ने उन सबका स्वागत किया और फिर भरत से पूछा कि “तुम्हें तो अब राज्य भी मिल गया है, फिर तुम किस प्रयोजन से यहाँ आए हो? मेरा मन तुम्हारे प्रति आशंकित है। कहीं तुम उस निरपराध राम और उसके भाई लक्ष्मण का कोई अनिष्ट तो नहीं करना चाहते हो?”
यह आरोप सुनकर भरत की आँखे डबडबा गईं। लड़खड़ाती हुई वाणी में उन्होंने कहा, “महर्षि! मेरा ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है। मेरी माता ने जो किया है, मैं उससे भी सहमत नहीं हूँ। मैं तो श्रीराम को वन से लौटाकर अयोध्या का राज्य उन्हें सौंपने के लिए उनके पास जा रहा हूँ। अतः आप कृपा करके मुझे बताइये कि महाराज श्रीराम कहाँ हैं?”
इसके बाद महर्षि वसिष्ठ आदि ने भी भरद्वाज मुनि को विश्वास दिलाया कि भरत के मन में कोई कपट नहीं है।
तब संतुष्ट होकर मुनि भरद्वाज ने कहा, “भरत! श्रीराम, सीता और लक्ष्मण इस समय चित्रकूट पर्वत पर निवास करते हैं। तुम कल प्रातःकाल वहाँ जाना। आज की रात तुम अपने मंत्रियों के साथ मेरे आश्रम में ही रहो और मेरा आतिथ्य स्वीकार करो।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

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