Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 48
महाभयंकर विराध राक्षस का वध करके श्रीराम ने सीता को सांत्वना दी और लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! यह दुर्गम वन बड़ा कष्टप्रद है। हम लोग पहले कभी ऐसे वनों में नहीं रहे हैं, अतः यही अच्छा है कि हम लोग शीघ्र ही शरभङ्ग जी के आश्रम में चलें।”
शरभङ्ग ऋषि के आश्रम के निकट पहुँचने पर श्रीराम ने एक अद्भुत दृश्य देखा। आकाश में इन्द्रदेव अपने रथ पर बैठे हुए थे। उनका रथ भूमि को स्पर्श नहीं कर रहा था और उसमें हरे रंग के घोड़े जुते हुए थे। इन्द्र के सिर पर विचित्र फूलों की मालाओं से सुशोभित एक सफेद छत्र तना हुआ था। दो सुंदरियाँ स्वर्णदंड वाले चँवर लेकर देवराज के माथे पर हवा कर रही थीं। इन्द्र के पीछे अनेक देवता भी थे, जो उनकी स्तुति कर रहे थे।
उस रथ की ओर संकेत करके श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! आकाश में उस अद्भुत रथ को देखो। हमने देवराज इन्द्र के दिव्य घोड़ों के विषय में जैसा सुन रखा है, ये वैसे ही घोड़े हैं। रथ के दोनों ओर हाथों में खड्ग लिए कुण्डलधारी सौ-सौ वीर युवक खड़े हैं। जब तक मैं ये न पता लगा लूँ कि रथ पर बैठे हुए ये तेजस्वी पुरुष कौन हैं, तब तक तुम सीता के साथ यहीं ठहरो।”
ऐसा कहकर श्रीराम शरभङ्ग मुनि के आश्रम की ओर बढ़े।
रथारूढ़ इन्द्र उस समय शरभङ्ग ऋषि से ही वार्तालाप कर रहे थे। श्रीराम को आता देखकर इन्द्र ने तुरंत उनसे विदा ली और अपने साथ खड़े देवताओं से कहा,”श्रीराम यहाँ आ रहे हैं। इस समय उनसे मेरी भेंट नहीं होनी चाहिए। अतः इससे पहले कि वे यहाँ पहुँच जाएँ और मुझसे बात करें, तुम लोग तुरंत मुझे यहाँ से ले चलो। इन्हें रावण पर विजय पाने का महान् कार्य करना है। जब वे उसे पूरा कर लेंगे, तब मैं अवश्य आकर उनसे मिलूँगा।”
यह कहकर इन्द्र शीघ्रता से स्वर्गलोक की ओर चले गए।
उनके चले जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण व सीता को भी वहाँ बुला लिया और फिर वे तीनों आश्रम के भीतर गए। ऋषि उस समय अग्नि के पास बैठकर अग्निहोत्र कर रहे थे। उन्होंने श्रीराम सहित उन सबका स्वागत किया और आश्रम में उन्हें ठहरने का स्थान दिया।
तब श्रीराम ने उनसे इन्द्र के आने का कारण पूछा। इस पर मुनि ने कहा, “श्रीराम! मैं अपनी उग्र तपस्या से ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लिया है। देवराज इन्द्र मुझे वहीं ले जाने के लिए आए थे, किन्तु जब मुझे पता चला कि आप मेरे आश्रम के निकट आ गए हैं, तो मैंने आप जैसे प्रिय अतिथि का दर्शन किए बिना ब्रह्मलोक को न जाने का निश्चय कर लिया। अब आपसे मिलकर मैं स्वर्गलोक व उससे भी ऊपर ब्रह्मलोक को जाऊँगा। मैंने स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदि को प्राप्त कर लिया है, इन्हें कृपया आप ग्रहण करें।”
तब श्रीराम उनसे बोले, “मुनिवर! मैं आपको सब लोकों की प्राप्ति कराऊँगा, किन्तु इस समय तो मैं केवल इस वन में आपके बताए हुए स्थान पर निवास करना चाहता हूँ।”
तब मुनि बोले, “श्रीराम! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर महातेजस्वी सुतीक्ष्ण मुनि निवास करते हैं। वे आपके लिए समुचित प्रबन्ध कर देंगे। आप उनके पास चले जाइये। वहाँ तक पहुँचने के लिए आप इस मन्दाकिनी नदी के उद्गम की विपरीत दिशा में इस नदी के किनारे-किनारे ही बढ़ते रहिए। लेकिन श्रीराम जब तक मैं अपने इन जराजीर्ण अङ्गों का त्याग न कर दूँ, तब तक आप मेरी ओर ही देखिये।”
ऐसा कहकर शरभङ्ग ऋषि ने अग्नि की स्थापना की और मंत्रोच्चार करके उसमें घी की आहुति दी। फिर वे स्वयं भी उस अग्नि में प्रविष्ट हो गए और उस अग्नि के उनके पूरे शरीर को जलाकर भस्म कर दिया। उस अग्नि उसे ऊपर उठकर वे एक तेजस्वी कुमार के रूप में सभी लोकों को पार करते हुए ब्रह्मलोक में पहुँच गए।
उनके चले जाने पर अनेक प्रकार के तपस्वी मुनियों के कई समुदाय श्रीराम से मिलने पधारे। उन्होंने श्रीराम से निवेदन किया, “नाथ! हम प्रार्थी बनकर आपके पास आए हैं। इस वन में रहने वाला वानप्रस्थियों का यह निपराध समुदाय राक्षसों के द्वारा अकारण मारा जा रहा है। आइये, देखिये, ये भयंकर राक्षसों द्वारा मारे गए पवित्र मुनियों के शरीरों के कंकाल दिखाई दे रहे हैं। मन्दाकिनी नदी के किनारे पर, चित्रकूट पर्वत के निकट और पम्पा सरोवर तथा तुङ्गभद्रा नदी के तट पर भी जिनका निवास है, उन सब ऋषि-मुनियों का इन राक्षसों द्वारा संहार किया जा रहा है। ऐसा भयंकर विनाशकाण्ड हम लोगों से अब सहा नहीं जाता है, इसी कारण हम इन राक्षसों से बचने के लिए आपकी शरण में आए हैं। आप हमारी रक्षा कीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम बोले. “मुनिवरों! आप लोग मुझसे इस प्रकार प्रार्थना न करें। मैं तो तपस्वी महात्माओं का आज्ञापालक हूँ। वैसे भी मुझे अपने कार्य से वन में जाना ही है, तो इसके साथ ही मुझे आपकी सेवा का सौभाग्य भी प्राप्त हो जाएगा। तपस्वी मुनियों से शत्रुता रखने वाले उन सब राक्षसों का मैं युद्ध में संहार कर दूँगा। अब आप मेरे भाई का और मेरा पराक्रम देखें।”
ऐसा कहकर लक्ष्मण और सीता के साथ श्रीराम उन सब मुनियों को भी लेकर सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम की ओर बढ़े।
बहुत दूर तक का मार्ग तय करने के बाद, अनेक नदियों को पार करके वे लोग आगे बढ़े, तो उन्हें एक अत्यंत ऊँचा पर्वत दिखाई दिया। उससे भी आगे बढ़ने पर वे लोग अनेक प्रकार के वृक्षों से भरे एक वन में पहुँचे। वहाँ एकान्त स्थान में उन्हें एक आश्रम दिखाई दिया। वहीं उन्हें पद्मासन में बैठे हुए सुतीक्ष्ण मुनि का दर्शन हुआ।
श्रीराम ने उन्हें प्रणाम करके अपना परिचय दिया।
सुतीक्ष्ण मुनि ने दोनों हाथों से श्रीराम का आलिंगन करके कहा, “हे रघुकुलभूषण श्रीराम! आपका स्वागत है। मैं आपके आगमन की ही प्रतीक्षा में यहाँ रुका हुआ था, इसीलिए अभी तक इस शरीर को त्यागकर मैं देवलोक को नहीं गया। मैंने सुना है कि अपना राज्य खोकर आप चित्रकूट पर्वत पर निवास करते हैं। देवराज इन्द्र यहाँ आए थे। उन्होंने मुझे बताया कि अपनी तपस्या के पुण्यकर्म से मैंने स्वर्गलोक आदि समस्त शुभ लोकों को प्राप्त कर लिया है। श्रीराम! मैं वे सब आपको समर्पित करता हूँ। आप सीता व लक्ष्मण के साथ प्रसन्नता से वहाँ रहें।”
यह सुनकर श्रीराम ने उनसे भी यही कहा कि “तपस्वी! मैं स्वयं आपको वे सब लोक प्राप्त कराऊँगा, किन्तु इस समय आप मुझे केवल इतना बताएँ कि मैं इस वन में अपने ठहरने के लिए कुटिया कहाँ बनाऊँ?”
तब वे मुनि उनसे बोले, “श्रीराम! यही आश्रम सब प्रकार के सुविधाजनक है। अतः आप यहीं निवास करें। यहाँ ऋषि-समुदाय सदा आते-जाते रहते हैं और फल-मूल भी सर्वदा उपलब्ध रहते हैं। इस आश्रम में केवल एक ही कष्ट है कि बड़े-बड़े मृगों के झुण्ड यहाँ आते हैं, किन्तु उनसे भी कोई भय नहीं है क्योंकि वे किसी को कष्ट नहीं देते।”
यह सुनकर श्रीराम ने हाथों में धनुष-बाण लेकर कहा, “महाभाग! उन उपद्रवी मृगों को यदि मैं तीखे बाणों से मार डालूँ तो यह आपका अपमान होगा, जो कि मेरे लिए अत्यंत कष्टप्रद बात है। अतः मैं इस आश्रम में अधिक समय तक निवास नहीं करना चाहता।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने उनसे विदा ली और संध्योपासना करने चले गए। उसके बाद उन तीनों ने उसी आश्रम में भोजन और रात्रि विश्राम किया।
प्रातःकाल स्नान करने के बाद उन तीनों ने देवताओं का पूजन किया और उगते सूर्य का दर्शन करके वे लोग सुतीक्ष्ण मुनि के पास मिलने गए। उन्होंने मुनि से कहा, “मुनिवर! हम आपके आश्रम में सुखपूर्वक रहे। अब हम जाने की आज्ञा चाहते हैं। ये सब मुनि भी जल्दी चलने के लिए हमसे आग्रह कर रहे हैं और हम लोग भी दण्डकारण्य में निवास करने वाले श्रेष्ठ रिहियों के समस्त आश्रमों को शीघ्र देखना चाहते हैं। इससे पहले की दिन चढ़ने पर सूर्यदेव का ताप बहुत बढ़ जाए, हम यहाँ से निकल जाना चाहते हैं। अतः आप हमें आज्ञा दीजिए।”
ऐसा कहकर उन्होंने मुनि को प्रणाम किया।
सुतीक्ष्ण मुनि ने जाने की आज्ञा देकर उनसे कहा, “आपकी यात्रा मङ्गलमय हो। आप लोग दण्डकारण्य के सभी रमणीय आश्रमों का अवश्य दर्शन कीजिए। इस यात्रा में आपके प्रचुर फल-फूलों से सुशोभित अनेक वन दिखेंगे, जिनमें मृगों के झुण्ड विचरते हैं और पक्षी शांत भाव से रहते हैं। आपको निर्मल जल वाले अनेक तालाब व सरोवर देखने को मिलेंगे, जिनमें कमल खिले हुए होंगे। पहाड़ी झरनों और मोरों की मीठी बोली से गूँजती हुई सुरम्य वन्यस्थली को भी आप देखेंगे। लेकिन दण्डकारण्य के उन सब आश्रमों का दर्शन करके आपको पुनः लौटकर इसी आश्रम में आना चाहिए।”
श्रीराम ने यह बात स्वीकार कर ली और लक्ष्मण व सीता के साथ वहाँ से प्रस्थान किया।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)

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