Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 51
श्रीराम और लक्ष्मण एक दिन अपने आश्रम में बैठे कुछ बातचीत कर रहे थे कि तभी अचानक एक राक्षसी वहाँ आ पहुँची।
वह रावण की बहन शूर्पणखा थी।
श्रीराम जैसे सुकुमार, बलशाली, सौंदर्यवान एवं तेजस्वी पुरुष को देखकर वह काम से मोहित हो गई। श्रीराम युवा थे, जबकि शूर्पणखा बूढ़ी थी। उनका मुख सुन्दर था, जबकि शूर्पणखा का बहुत भद्दा और कुरूप था। श्रीराम की आँखें मनोहर थीं, जबकि शूर्पणखा के नेत्र कुरूप व डरावने थे। उनके बाल चिकने और सुन्दर थे, जबकि उस राक्षसी के बाल ताँबे जैसे लाल थे। उसका शरीर बेडौल और पेट लंबा था। कामभाव से आविष्ट होकर वह अत्यंत मनोहर रूप बनाकर श्रीराम के पास आई और उसने उनका परिचय पूछा।
अपना परिचय देकर श्रीराम ने उससे कहा, “अब मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारे मनोहर अंगों को देखकर मुझे तुम इच्छानुसार रूप धारण करने वाली कोई राक्षसी प्रतीत होती हो।”
तब शूर्पणखा ने कहा, “तुम्हारी बात सही है कि मैं इच्छानुसार रूप धरने वाली राक्षसी ही हूँ। मैं रावण की बहन शूर्पणखा हूँ और सबके मन में भय जगाती हुई मैं इस वन में अकेली विचरती हूँ। तुमने संभवतः मेरे भाई रावण का नाम सुना होगा। वह विश्रवा मुनि का वीर पुत्र है। मेरा दूसरा भाई कुम्भकर्ण है, जिसकी निद्रा बहुत अधिक है। तीसरा भाई विभीषण है, किन्तु वह राक्षसों के आचार-विचार का पालन नहीं करता है।”
“मैं बल और पराक्रम में अपने सब भाइयों से बढ़कर हूँ। तुम्हें देखते ही मेरा मन तुम में आसक्त हो गया है। तुम्हारी पत्नी तो कुरूपा है। वह तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम तो मेरे ही पति बन जाओ। मैं इस सीता को और तुम्हारे भाई को खा जाऊँगी, फिर तुम कामभाव से युक्त होकर मेरे साथ इन पर्वत-शिखरों और वनों में विहार करना।”
उसकी ये बातें सुनकर श्रीराम जोर-जोर से हँसने लगे। फिर उन्होंने शूर्पणखा से कहा, “आदरणीया देवी! मैं तो पहले ही विवाह कर चुका हूँ और मेरी यह प्यारी पत्नी मेरे साथ ही विद्यमान है। लेकिन मेरे यह छोटे भाई श्रीमान लक्ष्मण बड़े शीलवान और पराक्रमी हैं। इनकी स्त्री भी इनके साथ नहीं है। ये युवा भी हैं और अनेक गुणों से संपन्न भी हैं। यदि इन्हें भार्या की चाह हो, तो यही तुम्हारे लिए उपयुक्त पति होंगे।”
श्रीराम के ये वचन सुनकर शूर्पणखा सहसा लक्ष्मण के पास जा पहुँची और उनसे बोली, “लक्ष्मण! तुम्हारे इस सुन्दर रूप के योग्य तो मैं ही हूँ। अतः मैं ही तुम्हारी परम सुन्दरी भार्या हो सकती हूँ। मुझे अंगीकार करके तुम इस समूचे दण्डकारण्य में सुख से विचरण कर सकते हो।”
इन बातों को सुनकर लक्ष्मण ने परिहास करते हुए उससे कहा, “हे गौर वर्ण वाली सुन्दरी! मैं तो अपने बड़े भाई श्रीराम का दास हूँ। मुझसे विवाह करके तुम दासी क्यों बनना चाहती हो? तुम तो मेरे भैया की ही दूसरी पत्नी बन जाओ और सदा प्रसन्न रहो। ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य होगा, जो तुम्हारे इस श्रेष्ठ राक्षसी रूप को छोड़कर किसी मानव कन्या से प्रेम करेगा? निश्चित ही अपनी उस कुरूप, ओछी, विकृत और वृद्धा भार्या को त्यागकर श्रीराम तुमसे ही प्रेम करेंगे।”
इस परिहास को न समझने के कारण शूर्पणखा ने उनकी बातों को सच ही माना। तब वह पुनः श्रीराम से कहने लगी, “राम! इस कुरूप स्त्री के कारण ही तुम मेरा प्रस्ताव नहीं मान रहे हो। अतः मैं तुम्हारे सामने ही इस मानवी को अभी खा जाऊँगी और फिर सुखपूर्वक तुम्हारे साथ रहूँगी।”
ऐसा कहकर वह तेजी से सीता की ओर झपटी।
तब श्रीराम ने तुरंत उसे रोककर अत्यंत क्रोधित वाणी में लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! क्रूर कर्म करने वाले अनार्यों से किसी प्रकार का परिहास भी नहीं करना चाहिए। देखो, अभी सीता के प्राणों पर कैसा संकट आ गया था। तुम्हें इस राक्षसी को किसी अंग से हीन कर देना चाहिए।”
श्रीराम का यह आदेश सुनकर लक्ष्मण ने तुरंत से म्यान से तलवार खींची और शूर्पणखा के नाक-कान काट लिए।
नाक और कान कट जाने पर खून से लथपथ वह भयंकर राक्षसी चीत्कार करती हुई तेजी से वन में भागी। अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर तेजी से भागते हुए वह जनस्थान (नासिक) में निवास करने वाले अपने भाई खर के पास पहुँची।
अपनी बहन को इस अवस्था में देखते ही राक्षस खर क्रोध से जल उठा। उसने कहा, “बहन! घबराना छोड़ो और मुझे बताओ कि किसने तुम पर इस प्रकार आक्रमण करके अपनी मृत्यु को स्वयं आमंत्रित किया है?”
तब अपनी आँखों से आँसू बहाती हुई शूर्पणखा बोली, “भैया! वन में दो तरुण आए हैं, जो देखने में बड़े सुकुमार, सुन्दर और बलवान हैं। उनके नेत्रों कमल जैसे सुन्दर हैं और वे दोनों वल्कल-वस्त्र व मृगचर्म पहनते हैं। वे दोनों भाई राजा दशरथ के पुत्र हैं व उनके नाम राम और लक्ष्मण हैं। उन दोनों के साथ एक अत्यंत रूपवान स्त्री भी है, जिसका शरीर बड़ा ही सुन्दर है और वह अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूषित है। उस स्त्री के कारण ही उन दोनों भाइयों ने मेरी यह अवस्था की है। अब मैं उस कुटिल स्त्री और उन दोनों पुरुषों के मारे जाने पर उनका रक्त पीना चाहती हूँ। तुम्हें मेरी यह इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए।”
यह सुनते ही क्रोधित खर ने तुरंत अपने अत्यंत बलवान चौदह राक्षसों को बुलवाया और उन्हें आदेश दिया कि “चीर और काला मृगचर्म पहने हुए जो दो शस्त्रधारी मनुष्य एक युवती के साथ दण्डकारण्य में घुस आए हैं, तुम लोग जाकर उन तीनों के प्राण ले लो। मेरी बहन उन तीनों का रक्त पीयेगी। उसका यह मनोरथ तुम शीघ्र पूरा करो।”
आज्ञा मिलते ही वे चौदह राक्षस तीव्र गति से शूर्पणखा के साथ पंचवटी को गए।
आश्रम के पास पहुँचने पर उन लोगों ने देखा कि श्रीराम और सीता पर्णशाला में बैठे हैं और लक्ष्मण भी उनके पास ही खड़े हैं। उन राक्षसों को देखते ही श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्राकुमार! तुम सीता के पास ही खड़े रहकर उसकी रक्षा करो। मैं इस राक्षसी के सहायक बनकर आए इन सब निशाचरों का अभी वध करता हूँ।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और उन राक्षसों को चेतावनी दी कि “यदि अपने प्राण प्यारे हैं, तो तुरंत ही यहाँ से लौट जाओ, अन्यथा मैं तुम्हारा वध करने वाला हूँ।”
यह सुनकर वे राक्षस कुपित हो उठे और श्रीराम से बोले, “अरे! तू तो अकेला है और हम बहुत सारे हैं। तुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि तू हमारे सामने टिक सके। हमारे इन शूलों, परिघों और पट्टिशों की मार खाकर तू शीघ्र ही अपने प्राण गँवाएगा।”
ऐसा कहकर वे अनेक प्रकार के आयुध, तलवारें और शूल लेकर श्रीराम पर टूट पड़े। लेकिन श्रीराम ने अपने बाणों से उन राक्षसों के सभी चौदह शूलों को काट डाला। फिर उन्होंने अत्यंत क्रोधित होकर तेज धार वाले चौदह नाराच (लोहे के बने हुए पाँच पंखों वाले तीर) लिए और उन्हें अपने धनुष पर रखकर कानों तक धनुष को खींचा और राक्षसों पर लक्ष्य साधकर वे तीर छोड़ दिए। वे बाण बड़ी तेजी से उन राक्षसों की छाती में धंस गए और वे सभी राक्षस धराशायी हो गए। खून से लथपथ उन मरे हुए राक्षसों को देखकर शूर्पणखा घबरा गई और बड़ी तेजी से तुरंत ही वह अपने भाई खर की ओर पुनः भागी। अब तक उसके कटे हुए नाक और कानों का खून सूखकर गोंद जैसा दिखने लगा था।
अपने भाई के पास पहुँचकर वह शोक से आर्तनाद करने लगी और फूट-फूटकर रोने लगी। उसने उन सब राक्षसों के वध का समाचार खर को सुनाया।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)

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