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जन्मनाजातिगतश्रेष्ठता
लंबा शब्द! अंग्रेजी में कहते हैं, ए माउथफुल.

इस शब्द को ट्रिवियलाइज या डिस्क्रेडिट करने का प्रयास कर रहे हैं. उनकी चिन्ता या असहजता भी समझता हूं. उन्हे लगता है कि इस शब्द के साथ जो मानसिकता जुड़ी है उसपर प्रहार करने से समाज में विद्वेष बढ़ेगा.
सहमत हूं, विद्वेष बढ़ेगा! भला क्यों बढ़ना चाहिए? सभी मनुष्य जन्म से समान हैं, कोई किसी से श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं है, इतनी सी बात के assertion से विद्वेष क्यों बढ़ना चाहिए? इन प्रश्नों को छोड़ दीजिए, तो भी सत्य है कि विद्वेष बढ़ेगा.
पर किनके बीच?
एक फेसबुकिया भाई कह रहे हैं यह एक डिब्रांडिंग टैग है, और यह टैग फर्जी है.
एक समय मुझे भी लगता था कि यह टैग फर्जी है…समाज में ऐसा सोचने वाले लोग नहीं हैं, और इस मानसिकता के अस्तित्व की कहानियां फिक्शन हैं…जबतक मैं फेसबुक पर नहीं आया था. फेसबुक पर आया, तब भी शुरू शुरू में सब बढ़िया चल रहा था…सभी कट्टर झट्टर हिंदुत्व वादी ही थे. सभी भैया, दादा, अग्रज, आदरणीय ही थे… जबतक सतह के नीचे नहीं खुरचा गया. जबतक सत्ता जिहादी तंत्र के पास थी, जबतक कॉन्ग्रेस की सरकार का डंडा था, जबतक सांप्रदायिक हिंसा विधेयक की तलवार लटक रही थी… सभी हिन्दू थे. जब स्थिति मजबूत होने लगी, राजनीतिक सत्ता पर हिन्दू नेतृत्व की पकड़ दिखने लगी तो शत्रुबोध कमजोर पड़ने लगा और हिंदुत्व की प्रतिस्पर्धी पहचानों ने सर उठाना शुरू किया. फिर हिंदुत्व का केंचुल उतरने लगा और जातीयता के विषदंत दिखने लगे.
एक फेसबुक मित्र हुआ करते थे…मित्र से अधिक, भ्राता, अग्रज, आदरणीय और सम्माननीय टाइप के हुआ करते थे…उनसे इस विषय पर लंबी चर्चा हुई जब पहली बार लगभग डेढ़ वर्ष पहले यह विषय उठा था. मैंने उनसे एक डेढ़ घंटे तर्क वितर्क किया, आग्रह किया, हाथ जोड़ कर विनती की…आप वर्णाश्रम धर्म का पालन करना चाहते हैं, अपने निजी जीवन में अवश्य करें. आपको यह लगता है कि ईश्वर कृपा से आप उच्च कुल में पैदा हुए हैं…आप उसपर गर्व करते हैं…अवश्य करें. लेकिन इस गर्व को अपने तक रखें. उसकी सामाजिक सार्वजनिक घोषणा और दूसरों को स्वयं से निम्न घोषित करने का आग्रह त्याग दें. उसके घातक, विनाशकारी परिणाम होंगे.
उन सज्जन ने कहा, उन्हें परिणामों की चिन्ता नहीं है. वे ऐसा नहीं कर सकते…क्योंकि इसके बिना उनके लिए हिन्दू होने का कोई अर्थ ही नहीं है.
उसी चर्चा के दौरान कुछ और लोग मिले, जिन्होंने यह तक स्वीकार किया कि उनसे उनका यह स्थान छीन लिया जाए तो वे क्यों न इस्लाम अपना लें. मुझे मालूम है, यह कोरा फ्रस्ट्रेशन का एक्सप्रेशन नहीं था. वे इस्लाम अपना लेंगे…अगर उन्हें यहां से निर्णायक उत्तर मिल जायेगा और इस्लाम उन्हें प्रेफरेंशियल ट्रीटमेंट का एक क्रेडिबल ऑफर दे देगा तो वे मजे में नाम के आगे शेख और सय्यद लगा लेंगे. और वे यहां जबतक हैं, तबतक उनका प्रयास हिन्दू धर्म का वह प्रारूप खड़ा करना है जो मूलतः इस्लाम की भगवा पैरोडी हो…जहां यह उन्हें पूरे समाज के जीवन पर एक निरंकुश केंद्रीय कन्ट्रोल का अवसर दे.
ऐसे लोग संख्या में कम हैं. वे पूरे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते. पर वे मुखर हैं. सबसे बड़ी बात है, उन्हें हिन्दू धर्म के भविष्य की चिन्ता नहीं है और अपने व्यवहार से होने वाले नुकसान से वे विचलित नहीं हैं. हिन्दू धर्म उनके लिए वह खिलौना है जिसपर उनका कब्जा न हो तो वे उसे मजे में तोड़ देंगे. हमारे सजग सुधि मित्रगण डिनायल में हैं. उनकी चिन्ता यही है… वे उस जिद्दी बच्चे के हाथ में वह खिलौना देकर उसे चुप कराना चाहते हैं जिससे यह टूटे नहीं. वे विखंडन के इस ब्लैकमेल से विचलित और असहज हैं.
उपाय क्या है? हम करें तो क्या करें?
क्या हम इस ब्लैकमेल के आगे समर्पण कर दें? हम इस नैरेटिव को चलने दें कि इस समाज में कुछ लोग मनुष्य मात्र की इंट्रिंसिक डिग्निटी के सिद्धांत को नकारते हैं, और शेष समाज उसका मूक दर्शक बना हुआ है? और अपने विषैले वामी शत्रुओं के हाथ में हम सामाजिक विध्वंस का शस्त्र पकड़ा दें?
करना क्या है? सरल है…अधिसंख्य समाज जो इस जन्मना ऊंच नीच की अवधारणा को अस्वीकार करता है, वह इसका मुखर औपचारिक उद्घोष करे. हम फार्मली घोषित करें कि सभी हिन्दू समान हैं और भातृत्व की भावना से बंधे हैं. अपनी आर्थिक, भौतिक उपलब्धियों में कितने भी आसमान हों, सामाजिक संपर्कों में सभी समान हैं. और जो कोई भी इसके विपरीत विचार रखता है, वह अगर उन्हें सार्वजनिक रूप से व्यक्त करे तो उसे शर्मिंदा करें, उसकी निंदा, भर्त्सना, बहिष्कार करें. यदि हमने अभी से भी ऐसा नहीं किया तो हमारे शत्रु जो नैरेटिव बना रहे हैं, और हमारे बीच के कुछ कुंठित लोग जो उन्हें यह नैरेटिव बनाने का कच्चा माल उपलब्ध करा रहे हैं, उसका परिणाम हमें ही भुगतना होगा. जेएनयू के दीवारों पर जो जहरीले नारे लिखे हैं, उसकी स्याही यही हमारे बीच बैठे चार मूर्ख उपलब्ध करा रहे हैं. इतिहास की दीवारों से उन नारों को मिटाने के साथ साथ हमें वैमनस्य की यह स्याही भी सुखानी होगी.
और हर व्यक्ति जो इस “जन्मनाजातिगतश्रेष्ठता” की चर्चा कर रहा है, वह आपका शत्रु नहीं है. वह इस महत्त्वपूर्ण स्पेस को ऑक्यूपाई करके उसे शत्रुओं के हाथ में जाने से रोक रहा है. वह उस मिडफील्डर की तरह है जो बॉल को विपक्षी स्ट्राइक के पांव में जाने से रोकने के लिए बैक पास देता है. उस बैकपास को ओन साइड गोल होने से रोकिए. अपनी टीम को जानिए, जर्सी पहचानिए…पास रिसीव कीजिए और अपना अटैक बिल्ड कीजिए. लेकिन तबतक चर्चा जारी रखिए.. बॉल पास करते रहिए. पर इस विमर्श को शत्रु की शर्तों पर ना होने दें. यह हमारी जमीन है, हमारा मैदान है. हमारा देश और हमारा समाज है. इसका विमर्श हम निर्धारित करेंगे, इसकी दिशा हम तय करेंगे.

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