Home विषयऐतिहासिक वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग -58
लक्ष्मण के चले जाने पर सीता को आश्रम में अकेली पाकर दुष्ट रावण परिव्राजक का रूप धारण करके सीता के पास गया। उसने शरीर पर गेरुए रंग का वस्त्र लपेट रखा था। उसके सिर पर शिखा (चोटी), हाथ में छाता और पैरों में जूते थे। उसने बायें कंधे पर एक डंडा रखकर उसमें कमण्डल लटका रखा था।
सीता जैसी अनुपम सुन्दरी को देखते ही कामी रावण का मन दुष्ट विचारों से भर गया। उस समय सीता अपने पति की चिंता में आँसू बहा रही थीं। उनका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए वह वेदमन्त्र का उच्चारण करने लगा और सीता की प्रशंसा करता हुआ विनीत भाव से बोला, “सोने जैसे रंग वाली और रेशमी वस्त्र धारण करने वाली हे सुन्दरी! तुम कौन हो? तुम्हारा मुख, नेत्र, हाथ और पैर सब अति सुन्दर हैं। कहीं तुम कोई अप्सरा अथवा कामदेव की पत्नी रति तो नहीं हो? तुमने अपने सौन्दर्य से मेरे मन को मोह लिया है।”
“पृथ्वी पर तुमसे अधिक रूपवती स्त्री मैंने आज तक नहीं देखी है। देवता, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर जातियों में भी कोई स्त्री तुम जैसी सुन्दर नहीं है। लेकिन तुम्हारा ऐसा अनुपम रूप, यौवन, सौन्दर्य और इस दुर्गम वन में निवास! ऐसा क्यों? तुम यहाँ रहने योग्य नहीं हो। यह स्थान तो इच्छानुसार रूप धारण करने वाले भयंकर राक्षसों का है। तुम्हें तो रमणीय राजमहलों, समृद्ध नगरों और सुन्दर उद्यानों में रहना और विचरना चाहिए। तुम कौन हो और इस भयानक वन में कैसे आ गई?”
रावण की बातें सुनकर सीता ने उसकी ओर देखा। तब उनका ध्यान गया कि ब्राह्मण के वेश में एक अतिथि द्वार पर आया है। सीता ने सम्मानपूर्वक उसे बैठने का आसन और पैर धोने के लिए जल दिया। फिर उन्होंने अपना परिचय दिया तथा कैकेयी के वरदान व अपने वनवास का कारण बताया। इसके बाद उन्होंने रावण को ब्राह्मण समझकर उससे कहा, “ब्रह्मन्! भोजन तैयार है, आप ग्रहण कीजिए।”
ऐसा कहकर सीता ने राम और लक्ष्मण को ढूँढने के लिए वन में चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, किन्तु वे दोनों भाई उन्हें कहीं दिखाई नहीं दिए। इधर रावण ने भी सीता की ओर देखा व उनके अपहरण का निश्चय और दृढ़ कर लिया।
रावण के कलुषित विचारों से अनभिज्ञ सीता ने उसका परिचय पूछा। तब उस दुष्ट निशाचर ने अत्यंत कठोर वाणी में उत्तर दिया, “सीते! जिसके नाम से देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोक थर्रा उठते हैं, मैं वही राक्षसराज रावण हूँ।”
“सुन्दरी! तुम्हें देखने के बाद अब मेरा मन किसी और स्त्री में नहीं लगता है। मैंने इधर-उधर से अनेक स्त्रियों का अपहरण किया है। तुम उन सबमें मेरी पटरानी बनो। मेरी राजधानी का नाम लंका है। वह समुद्र के बीच एक पर्वत पर बसी हुई है। वहाँ रहकर तुम मेरे साथ आनंद करना। फिर तुम्हें वनवास का यह कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा। तुम यदि मेरी भार्या बन जाओ, तो पाँच हजार दासियाँ तुम्हारी सेवा में नियुक्त रहेंगी।”
यह सुनकर सीता को भीषण क्रोध आया। उस नीच रावण का तिरस्कार करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे पति का पराक्रम अतुलनीय है। मैं तन-मन से केवल उन्हीं की अनुरागिणी हूँ। पापी निशाचर! अवश्य ही तेरी मृत्यु निकट आ गई है, तभी तू श्रीराम की प्रिय पत्नी पर कुदृष्टि डाल रहा है। श्रीराम जब हाथ में धनुष-बाण लेकर रोष से खड़े हो जाएँगे, तब काल भी तेरी रक्षा नहीं कर सकेगा।”
ऐसा कहकर सीता रोष में काँपने लगीं।
तब उनके मन में भय उत्पन्न करने के लिए रावण ने पुनः अपने पराक्रम का और भी बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया। सीता का मन ललचाने के लिए वह उन्हें लंका के वैभव और समृद्धि के बारे में भी बताने लगा। जब सीता ने फिर भी उसका तिरस्कार किया, तो रावण की आँखें क्रोध से लाल हो गईं, तो संन्यासी का सौम्य रूप त्यागकर वह दस मुखों और बीस भुजाओं वाले अपने वास्तविक विकराल रूप में आ गया।
फिर उसने सीता को पकड़ने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए। बायाँ हाथ पीछे ले जाकर उसने बालों सहित सीता की गरदन को पकड़ लिया और दायाँ हाथ घुटनों के नीचे लगाकर उसने सीता को उठा लिया। गधों से जुता हुआ उसका वह विशाल रथ भी उसी समय वहाँ दिखाई दिया। रावण ने बड़े कठोर वचनों में सीता को डाँटा और उन्हें लाकर रथ पर बिठा दिया।
अगले ही क्षण रावण ने अपना रथ आगे बढ़ाया और आकाश-मार्ग से वह सीता को लेकर उड़ चला। यह देखकर सीता दुःख से व्याकुल हो गईं और जोर-जोर से श्रीराम और लक्ष्मण को पुकारने लगीं, “हे रघुनन्दन! हे महाबाहु लक्ष्मण! यह राक्षस मुझे छीनकर ले जा रहा है, आप लोग इस पापी को दण्ड क्यों नहीं देते? हाय! आज कैकयी का मनोरथ पूर्ण हो गया क्योंकि श्रीराम की धर्मपत्नी होकर भी आज मैं एक राक्षस द्वारा छीनी जा रही हूँ। हे वन के वृक्षों! तुम श्रीराम से कहना कि सीता को रावण हरकर ले गया। हे माँ गोदावरी! तुम श्रीराम को बताना कि रावण ने सीता का अपहरण कर लिया।”
यह सब कहते-कहते विलाप करती हुई सीता ने अचानक गिद्धराज जटायु को देखा। तब वह करुण क्रन्दन करती हुई बोलीं, “आर्य जटायु! देखिये यह पापी राक्षस मुझे निर्दयतापूर्वक ले जा रहा है। आप इस क्रूर निशाचर को नहीं रोक सकते क्योंकि यह बड़ा बलवान, दुस्साहसी और शस्त्र-सज्ज है, किन्तु आप श्रीराम और लक्ष्मण को अवश्य बताना कि रावण मेरा अपहरण करके मुझे ले गया है।”
उस समय जटायु पेड़ पर सोया हुआ था। सीता की करुण पुकार सुनते ही उसने आँख खोली, तो सामने रावण और सीता जाते हुए दिखाई दिए।
तब पेड़ पर बैठे हुए जटायु ने रावण को समझाया कि “जिस प्रकार पराये पुरुष से अपनी पत्नी की रक्षा की जाती है, उसी प्रकार प्रत्येक पुरुष को दूसरों की स्त्रियों का भी सम्मान करना चाहिए और उनकी भी रक्षा करनी चाहिए। परायी स्त्री का स्पर्श करना अनुचित है और सभी स्त्रियों की रक्षा करना तो राजाओं का विशेष कर्तव्य है। अतः तुम ऐसा निंदनीय कर्म मत करो। सीता का अपमान करके श्रीराम से बैर मत लो। तुम अपनी ही मृत्यु को आमंत्रण दे रहे हो। मेरे जीते-जी तुम सीता को नहीं ले जा सकोगे।”
यह सुनकर अहंकारी रावण क्रोध से जटायु की ओर दौड़ा। तब उन दोनों में घनघोर युद्ध होने लगा। रावण ने जटायु पर नालीक, नाराच और अन्य पैने बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। जटायु ने सब अस्त्रों का आघात सह लिया और अपने तीखे नखों वाले पंजों से मार-मारकर रावण के शरीर में अनेक घाव कर दिए। तब रावण ने ऐसे भयंकर बाण जटायु पर छोड़े, जिनमें काँटे लगे हुए थे। उनसे जटायु का शरीर क्षत-विक्षत हो गया। फिर भी जटायु ने अपने प्राणों की चिंता न करके पूरे वेग से रावण पर आक्रमण किया व अपने दोनों पैरों से मारकर उसके धनुष को तोड़ डाला। अपने पंजों और पंखों की मार से उन्होंने रावण का कवच भी छिन्न-भिन्न कर दिया, उसके रथ में लगे पिशाचों जैसे गधों को भी मार डाला और बड़े वेग से चोंच मारकर रावण के सारथी का सिर भी धड़ से अलग कर दिया।
रथ के घोड़े और सारथी के मर जाने से रावण भी सीता के साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़ा। लेकिन वृद्ध जटायु को थका हुआ देखकर तुरंत ही उसने सीता को पकड़ा और पुनः आकाश-मार्ग की ओर उड़ चला। उसके सब अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गए थे, किन्तु एक तलवार अभी भी उसके पास शेष थी।
उसे जाता देखकर जटायु ने पुनः उड़कर रावण का पीछा किया और बड़े वेग से उसकी पीठ पर जा बैठा। वह अपने तीखे नखों से रावण को खरोंचने लगा, चोंच मारने लगा और उसके बाल पकड़कर उखाड़ने लगा।
उन दोनों का युद्ध बहुत देर तक चलता रहा। अंततः रावण ने सहसा अपनी तलवार निकाली और जटायु के दोनों पंख और पैर काट डाले। पंख कटते ही पक्षीराज जटायु भूमि पर गिर पड़ा और युद्ध समाप्त हो गया।
अब जटायु कुछ ही देर का मेहमान था।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

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