Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 60
मारीच का वध करने के बाद श्रीराम तुरंत ही अपने आश्रम की ओर लौटे। वे यथाशीघ्र आश्रम वापस पहुँचना चाहते थे। तभी अचानक पीछे की ओर से एक सियारिन रोंगटे खड़े कर देने वाले कठोर स्वर में भयंकर चीत्कार करने लगी।
श्रीराम ने इसे भीषण अपशुकन माना। मार्ग में उन्हें और भी कई अपशकुन दिखाई दिए। वन के मृग और पक्षी बड़ी भयंकर वाणी में कोलाहल कर रहे थे। वे सब उन्हें बायीं ओर करके चल रहे थे। तब श्रीराम सोचने लगे, “आज भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। अवश्य ही कोई अशुभ घटना हुई है। क्या सीता सकुशल होगी? राक्षस मारीच ने उन्हें भ्रमित करने के लिए ही मरते समय बड़े आर्त स्वर में मेरे जैसी वाणी में ही लक्ष्मण को पुकारा था। उससे चिंतित होकर सीता अवश्य ही लक्ष्मण को मेरी सहायता के लिए भेजेगी। जब हम दोनों भाई आश्रम में नहीं होंगे, तो क्या अकेली सीता वहाँ सुरक्षित रह पाएगी। जनस्थान में जो राक्षसों का संहार हुआ, उस कारण सभी राक्षसों का मुझसे बैर हो गया है।”
यह सोचते हुए श्रीराम तेजी से आगे बढ़े। इतने में ही उन्हें लक्ष्मण आते हुए दिखाई दिए। उनका मुख मुरझाया हुआ था और वे दुःख में डूबे हुए दिख रहे थे। लक्ष्मण को देखकर श्रीराम ने उनका बायाँ हाथ पकड़ लिया। बहुत आर्त होकर श्रीराम ने सीता को अकेली छोड़कर आने के लिए कठोर शब्दों में लक्ष्मण की निंदा की। फिर वे चिंतित स्वर में बोले, “सौम्य लक्ष्मण! मेरा मन अत्यंत दीन व अप्रसन्न हो रहा है। मेरे आस-पास अनेक अपशकुन हो रहे हैं। मेरी बायीं आँख भी फड़क रही है। ऐसा लगता है कि सीता अब कुशल नहीं है।, उससे यही लगता है कि निःसंदेह सीता आश्रम में नहीं है। कोई उसका हरण करके ले गया। वह मारी गई होगी या किसी राक्षस के साथ मार्ग पर होगी।”
“लक्ष्मण! मैं सीता के बिना दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता। फिर जब तुम अकेले अयोध्या लौटोगे तो क्या माता कैकेयी अपने मनोरथ को सफल मानकर सुखी हो जाएगी? जब मैं मर जाऊँगा, तो मेरी माँ कौसल्या क्या रानी कैकेयी की सेवा में उपस्थित होगी? लक्ष्मण! तुम कुछ बोलते क्यों नहीं!”
तब लक्ष्मण ने उन्हें बताया, “भैया! मैं अपनी इच्छा से उन्हें अकेला छोड़कर नहीं आया। मैंने उन्हें बहुत समझाया कि ‘देवताओं की भी रक्षा करने वाले मेरे भैया कभी भी अपने मुँह से ‘बचाओ! बचाओ!’ जैसे कायरतापूर्ण वचन नहीं कह सकते। लेकिन वे नहीं मानीं। उनके कठोर वचनों से विवश हो मुझे यहाँ आना पड़ा।”
ऐसी बातें करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण ने उस सूने आश्रम में प्रवेश किया। भूख-प्यास, शोक और परिश्रम से श्रीराम मुँह सूख गया था। सारी पर्णशाला उजाड़ दिखाई दे रही थी। चारों ओर मृगचर्म और कुश बिखरे हुए थे। चटाइयाँ अस्त-व्यस्त पड़ी थीं। आश्रम में उन्होंने सीता के सभी प्रिय स्थानों को देखा, किन्तु वह कहीं दिखाई नहीं दी। आश्रम में सीता को न पाकर श्रीराम विषाद में डूब गए और अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगे।”
फिर उन्होंने सोचा कि सीता घबराकर कहीं छिप तो नहीं गई या वह कहीं फल-फूल या जल लाने के लिए वन में या नदी तट पर तो नहीं चली गई? अतः उन्होंने वन में भी चारों ओर सीता को खोजा। शोक के कारण उनकी आँखें लाल हो गईं और वे उन्मत्त दिखाई देने लगे।
जब सीता कहीं नहीं मिलीं, तो शोक से व्याकुल होकर वे लक्ष्मण से कहने लगे, “लक्ष्मण! सीता के बिना मैं भी प्राण त्याग दूँगा। जीवित रहकर मैं किस मुँह से अयोध्या वापस जाऊँ और मरने पर परलोक जाकर भी मैं पिताजी को क्या मुँह दिखाऊँ? वे ताना देते हुए मुझसे कहेंगे कि “मैंने तुझे चौदह वर्षों के लिए वन में भेजा था, पर तू मेरा वचन झूठा करके समय पूरा होने से पहले ही यहाँ चला आया। तुझे धिक्कार है। तब मैं क्या उत्तर दूँगा!”
उनका शोक देखकर लक्ष्मण ने उन्हें समझाया, “भैया! आप इस प्रकार विषाद न करें। आप मेरे साथ मिलकर जानकी को ढूँढने का प्रयास करें। वे यहीं कहीं होंगी। हम साथ मिलकर खोजें, तो शीघ्र ही उन्हें ढूँढ निकालेंगे।”
यह सुनकर दोनों भाई पुनः सीता की खोज में लग गए। बहुत ढूँढने पर भी उसे न पाकर श्रीराम अत्यंत शोक से विलाप करने लगे। सीता के शोक से व्याकुल होकर रोते हुए श्रीराम को देखकर लक्ष्मण का मन भी अत्यंत व्यथित हो गया और वे घबरा गए। फिर भी उन्होंने श्रीराम को सांत्वना दी और दोनों भाई पुनः वन में, नदी तट पर सर्वत्र सीता को खोजने लगे। अब श्रीराम वन के वृक्षों, पर्वतों, पुष्पों, भँवरों, मृगों, हाथियों और नदी से भी पूछने लगे कि ‘क्या तुमने सीता को कहीं देखा है?” और पागलों के समान वे हर दिशा में ‘सीते! सीते!’ कहकर पुकारने लगे।
उन्हें देखते ही मृगों का एक झुण्ड सहसा उठ खड़ा हुआ और मुड़-मुड़कर उसी दिशा में देखने लगा, जिस ओर सीता को लेकर रावण गया था। यह देखते ही बुद्धिमान लक्ष्मण ने कहा, “तात! जब आपने पूछा कि ‘सीता कहाँ है?’, तो ये मृग सहसा खड़े हो गए और दक्षिण दिशा की ओर हमारा ध्यान दिला रहे हैं। इससे मुझे लगता है कि हमें भी नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा की ओर ही जाना चाहिए।”
तब श्रीराम ने उनकी बात मान ली और वे दोनों दक्षिण दिशा की ओर चले।
मार्ग में उन्हें कुछ फूल गिरे हुए दिखाई दिए। तब श्रीराम ने दुःखी होकर लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! मैं इन फूलों को पहचानता हूँ। मैंने यही फूल सीता को दिए थे और उसने इन्हें अपने बालों में लगा लिया था।”
थोड़ा और आगे जाने पर उन लोगों को सीता के और उस राक्षस के पैरों के निशान, टूटे धनुष, तरकस, छिन्न-भिन्न होकर टुकड़ों में बिखरा हुआ रथ आदि भी दिखे। यह सब देखकर श्रीराम का हृदय घबरा गया। तभी उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! ये देखो! सीता के आभूषणों में लगे सोने के घुंघरू यहाँ बिखरे पड़े हैं। उसके अनेक हार भी यहाँ टूटकर बिखरे हुए हैं। यहाँ की पूरी भूमि रक्त की बूँदों से सनी हुई दिखाई दे रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इच्छाधारी राक्षसों ने सीता के टुकड़े-टुकड़े कर दिए होंगे और मिल-बाँटकर उसे यहाँ खा लिया होगा?”
“लक्ष्मण! यह मोतियों और मणियों से विभूषित अत्यंत सुन्दर और विशाल धनुष किसका हो सकता है? इसमें वैदूर्यमणि (नीलम) के टुकड़े जड़े हुए हैं। उधर सोने का कवच गिरा हुआ है। वह किसका होगा? न जाने यह छत्र किसका है? इधर पिशाचों जैसे मुख वाले भयंकर गधे मरे पड़े हैं। इनकी छाती में विशाल कवच बँधे हुए हैं। ऐसा लगता है कि ये युद्ध में मारे गए हैं। यह रथ किसका है? ये बाण और तरकस किसके हैं? ये अवश्य ही किसी राक्षस के पदचिह्न हैं।”
“अवश्य ही सीता का अपहरण या हत्या हो गई है अथवा क्रूर राक्षसों ने उसे मारकर खा लिया है। अब राक्षसों के प्राण लेकर ही उनसे मेरा वैर समाप्त होगा। मुझे निर्बल मानकर उन राक्षसों ने मेरी स्त्री का अपहरण कर लिया है। अब यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, किन्नर और मनुष्य कोई भी चैन से नहीं रह पायेंगे। अब तीनों लोक मेरे पराक्रम को देखेंगे।”
ऐसा कहकर श्रीराम अत्यंत क्रोधित होकर बार-बार अपने धनुष की ओर देखने लगे और उन्होंने उसकी डोरी चढ़ा ली। तब लक्ष्मण ने पुनः समझाया, “आर्य! यहाँ केवल एक ही रथ के चिह्न दिख रहे हैं, दो रथों के नहीं। यहाँ किसी विशाल सेना के पदचिह्न भी नहीं हैं। इससे लगता है कि सीता का अपहरण करने वाला कोई एक राक्षस ही था। आप क्रोधित होकर अपने स्वभाव को न छोड़ें। किसी एक के अपराध का दण्ड सारे संसार को न दें। मैं यह पता लगाने का प्रयास करता हूँ कि यह रथ किसका है।”
“हम लोग सारे वनों, पर्वतों, नदियों, समुद्रों में हर कहीं सीता को खोजेंगे। बड़े-बड़े ऋषियों की सहायता लेकर उसका पता लगाएँगे। शान्ति से पूछने पर भी यदि सारे संसार में कहीं सीता का पता न मिला, तो अवश्य ही आप क्रोधित होकर सारे संसार का संहार कर दीजिएगा, किन्तु अभी आप इस प्रकार शोक और क्रोध मत कीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम पुनः अनाथों के भाँति भीषण विलाप करने लगे। तब पुनः लक्ष्मण ने बहुत प्रयास करके उन्हें शांत किया और फिर दोनों भाई सीता की खोज में आगे बढ़े।
कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने विशाल शरीर वाले पक्षीराज जटायु को भूमि पर खून से लथपथ पड़ा देखा। पहले तो श्रीराम ने उसे भी राक्षस समझकर धनुष तान दिया था, पर तभी अचानक दीन वाणी में बोलते हुए जटायु ने उनसे कहा, “आयुष्मान! तुम जिसे ढूँढ रहे हो, उस देवी सीता को और मेरे प्राणों को भी रावण ने ही हर लिया है।”
ऐसा कहकर जटायु ने रावण से हुए संग्राम का वर्णन दोनों भाइयों को सुनाया। यह सब सुनकर राम और लक्ष्मण दोनों ही शोक से विह्वल हो गए। दोनों भाइयों ने जटायु को गले लगा लिया और रोने लगे। तब उन्हें सांत्वना देते हुए जटायु ने बड़े कष्ट से धीरे-धीरे कहा, “रघुनन्दन! अब मेरे प्राण छूटने वाले हैं। मेरी दृष्टि घूम रही है। समस्त वृक्ष मुझे सुनहरे रंग के दिखाई दे रहे हैं।”
“लेकिन तुम जानकी के लिए खेद न करो। रावण जिस मुहूर्त में उसे ले गया है, वह ‘विन्द’ मुहूर्त था। उसमें खोया हुआ धन भी शीघ्र वापस मिल जाता है। तुम भी शीघ्र ही सीता को पुनः प्राप्त कर लोगे। रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है…”
ऐसा कहते-कहते अचानक ही जटायु के मुँह से रक्त निकलने लगा, उनका मस्तक भूमि की ओर झुक गया, दोनों पंख फ़ैल गए और जटायु के प्राण निकल गए।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

Related Articles

Leave a Comment