Home लेखक और लेखदेवेन्द्र सिकरवार आस्तिक_अनीश्वरवादी_नास्तिक

मूल समस्या यह है कि हिंदुओं में धार्मिक ग्रंथों के स्वाध्याय को भी केवल साधु संत मात्र का कर्तव्य मान लिया गया है जबकि यह प्रत्येक हिंदू का कर्त्तव्य है।
बात यहीं तक रहती तो भी ठीक थी क्योंकि सोशल मीडिया से पूर्व पर्यटन व पुस्तकें ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत थीं लेकिन व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने इसे विद्वानों की फौज खड़ी कर दी जो इस ज्ञान को अंतिम मानती है। यही कारण है कि नास्तिक, वामपंथी, क्रिप्टो आदि शब्दों को रटकर तथाकथित सनातनी योद्धाओं की फौज खड़ी हुई है जबकि उन्हें इनके मूल अर्थ नहीं पता। अस्तु!
वस्तुतः ‘नास्तिक’ शब्द का बड़े पैमाने पर प्रयोग छठवीं शताब्दी पूर्व पूर्वी भारत में थोक के भाव में पैदा हुए उन विचारकों के लिए किया गया जो ‘आत्मा’ के रूप में ‘ध्रुव शाश्वत सत्ता’ और उसके कर्त्ता के रूप में ‘ईश्वर’ को स्वीकार नहीं करते थे। उनके अनुसार यह सृष्टि स्वतः अपने ही नियमों से चलती है और हम सभी का अस्तित्व एक दिन समाप्त हो जाना है। इन्होंने औपनिषदक चिंतन व वैदिक कर्मकांड दोंनों को ही नकार दिया। संक्षेप में कहें तो इन्हें स्वयं के अस्तित्व पर भी विश्वास न था।
आगे जाकर शुंग काल में ब्राह्मण सत्ता ने इसे चतुराईपूर्वक वेदों से जोड़ दिया अर्थात जो वेद को अंतिम प्रमाण न माने।
ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि श्रमण विचारधारा के दो संप्रदाय जैन और बौद्ध अपने तर्कों से कर्मकांड पर आश्रित ब्राह्मणों की दक्षिणा में सेंध मार रहे थे। यज्ञ दक्षिणाओं का लगभग सारा हिस्सा तो बौद्ध विहार व जैन संघ मार ही रहे थे, मुफ्तखोर भिक्षुओं के झुंडों ने गृहस्थों पर दोहरा भार डाल दिया था।
चूँकि जैन और बौद्ध दोंनों ने वेदों को अंतिम प्रमाण मानने से इनकार कर दिया था और जनसामान्य अभी भी वेदों को आदर की दृष्टि से देखता था अतः उन्होंने ‘वेद प्रमाण’ की कसौटी को नास्तिकता की कसौटी बना दिया।
इसके अलावा यह भी था कि षटदर्शनों में सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल व (पूर्व) मीमांसा के प्रणेता महर्षि जैमिनी भी नास्तिक सिद्ध हो जाते क्योंकि दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते।
वास्तविकता यह है कि जैन व बौद्ध की तरह सांख्य व मीमांसक भी ‘अनीश्वरवादी’ हैं ‘नास्तिक’ नहीं।
तो जाहिर है कि आस्तिक की परिभाषा केवल ईश्वर को मानने को लेकर हो ही नहीं सकती।
ईश्वर को न मानने वाला नास्तिक, यह परिभाषा सेमेटिक विचार है न कि हिंदू विचार।
तो कुल मिलाकर इस वर्गीकरण के अनुसार हिंदुत्व के अंतर्गत विभिन्न संप्रदायों का वर्गीकरण इस प्रकार है।
1)आस्तिक:- जो स्वयं के अस्तित्व को माने और कर्मफल सिद्धान्त में विश्वास रखे। वह मूर्तिपूजक हिंदू, बौद्ध, जैन भी हो सकता है और मूर्तिपूजाविरोधी सिख, आर्यसमाजी यहाँ तक कि मुस्लिम भी। इसके दो उपसमूह भी हैं।
A)आत्मवादी ईश्वरवादी:- जो ईश्वर के साथ-साथ आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। सामान्य सनातनी, सिख।
B)आत्मवादी अनीश्वरवादी:- जो आत्मा की सत्ता को तो मानता है परंतु ईश्वर को नहीं। प्रमुख उदाहरण जैन हैं।
C)अनात्मवादी अनीश्वरवादी:- जो न आत्मा और न ईश्वर के अस्तित्व को शाश्वत सत्ता के रूप में स्वीकार न करे। उदाहरण बौद्ध।
इन सभी आस्तिक संप्रदायों में एक सिद्धांत कॉमन है जो इन सभी को जोड़ता है और वह है ‘कर्मफल व पुनर्जन्मवाद’।
वस्तुतः यही है वह मूल तत्व जो हिंदू संस्कृति व अध्यात्म की कुंजी है।
2)नास्तिक:- जो न आत्मा, न ईश्वर, न कर्मफल और न पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। इनका मानना है कि जीव परमाणुओं का समुच्चय है और संसार बिना कार्य-कारण के घटनाओं का एक प्रवाह। चार्वाक, अजित केशकम्बलि, मस्करीपुत्त गोशाल इस मत के मठाधीश थे। इन्हें संदेहवादी भी कहा जाता था।
वस्तुतः अंतिम बिंदु ने नास्तिक सम्प्रदाय को हिंदू समाज में अस्वीकार्य बना दिया क्यों कि इसके प्रसार होने पर बौद्धों से लेकर मीमांसकों के हलवे मांडे खत्म हो जाते और इसीलिये नास्तिकों के खिलाफ बौद्ध व जैन भी खड़े हो गए।
ये एक तरह के एनार्किस्ट भी थे और वर्तमान के लिबरल्स की तरह मुफ्तखोर भी।
अब आप तय कर लें कि आप स्वयं को किस वर्ग में पाते हैं क्योंकि मुझे बड़ी हंसी आती है जब आधुनिक मीमांसक यानी आर्यसमाजी और अनीश्वरवादी जैन भी ईश्वर की दुहाई देते हैं।
जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मेरा कर्मफलसिद्धान्त में अटूट विश्वास है लेकिन वेदों को अंतिम प्रमाण मानने के स्थान पर मानव चेतना को सर्वोपरि मानता हूँ और ईश्वर की सत्ता की उपस्थिति के विषय में संदेहपूर्ण हूँ अतः आप मुझे अनीश्वरवादी कह सकते हैं।

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