Home हमारे लेखकसुमंत विद्वन्स वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड भाग 64
श्रीराम और लक्ष्मण को अपनी पीठ पर बिठाकर हनुमान जी उन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव के निवास-स्थान पर ले गए। उन्हें वहाँ बिठाकर हनुमान जी पास ही मलय पर्वत पर गए, जहाँ सुग्रीव उस समय बैठे हुए थे। वहाँ पहुँचकर हनुमान जी सुग्रीव को दोनों भाइयों का विस्तृत परिचय बताया और उनके वनवास एवं रावण द्वारा सीता के अपहरण की घटना भी विस्तार से बताई।
इसके बाद उन्होंने सुग्रीव से कहा, “सीता की खोज में आपसे सहायता लेने के लिए वे दोनों भाई आपकी शरण में आए हैं। वे आपसे मित्रता करना चाहते हैं। वे दोनों वीर हम लोगों के लिए परम पूजनीय हैं, अतः आप भी उनकी मित्रता स्वीकार करके उनका यथोचित सत्कार कीजिए।”
हनुमान जी की ये बातें सुनकर सुग्रीव ने अत्यंत दर्शनीय रूप धारण किया और श्रीराम से मिलने गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने प्रेमपूर्वक श्रीराम से कहा, “प्रभु! परम तपस्वी हनुमान जी ने मुझे आपके गुणों के बारे में बताया है। आपसे मित्रता करना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है। मैं अपनी मित्रता का हाथ आगे बढ़ा रहा हूँ। आप भी अपना हाथ बढ़ाकर मेरी मित्रता स्वीकार करें।”
यह सुनकर श्रीराम को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने प्रेम से सुग्रीव का हाथ पकड़ा और फिर हर्षित होकर सुग्रीव को गले लगा लिया। तुरंत ही हनुमान जी ने दो लकड़ियों को रगड़कर आग प्रज्वलित की और फूलों से इस अग्नि का पूजन किया। फिर श्रीराम और सुग्रीव दोनों ने उस अग्नि की प्रदक्षिणा की और अटूट मित्रता का संकल्प लिया।
इसके बाद सभी लोग वहाँ बैठ गए और फिर सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! मेरे भाई वाली ने मुझे घर से निकाल दिया है। मेरी पत्नी भी मुझसे छीन ली है। उसी वाली के भय से मुझे वन में इस दुर्गम पर्वत पर निवास करना पड़ रहा है। अब आप कुछ ऐसा कीजिए, जिससे मेरा यह भय नष्ट हो जाए।”
तब श्रीराम ने उत्तर दिया, “महाकपि! मेरे तूणीर में रखे ये बाण अमोघ हैं। इनका वार खाली नहीं जाता। इनमें कंक पक्षी के परों के पंख लगे हुए हैं। इनकी नोक बहुत तीखी और गाँठें भी सीधी हैं। जब ये लगते हैं, तो बड़ी भयंकर चोट देते हैं। तुम्हारी पत्नी का अपहरण करने वाले उस दुराचारी वाली का मैं इन बाणों से वध कर दूँगा।”
यह सुनकर सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई।
फिर सुग्रीव ने कहा, “श्रीराम! मेरे श्रेष्ठ मंत्री हनुमान जी ने मुझे यह भी बताया है कि दुष्ट राक्षस रावण ने आपकी पत्नी सीता का अपहरण कर लिया और गिद्ध जटायु का भी वध कर दिया। इसी कारण आपको भी पत्नी के वियोग से पीड़ित होना पड़ा है, किन्तु शीघ्र ही आप इस दुःख से मुक्त हो जाएँगे। आपकी पत्नी सीता चाहे आकाश में हों या पाताल में, मैं उन्हें ढूँढ निकालूँगा और आपके पास ले आऊँगा।”
“श्रीराम! एक दिन मैं अपने चार मंत्रियों के साथ इसी पर्वत-शिखर पर बैठा हुआ था। तब अचानक मैंने देखा कि कोई राक्षस आकाश-मार्ग से किसी स्त्री को ले जा रहा है। मेरा अनुमान है कि वे सीता ही रही होंगी। हमें देखते ही उन्होंने अपनी चादर और कई सुन्दर आभूषण ऊपर से हमारी ओर गिराए थे। हमने उन सब वस्तुओं को संभाल कर रख लिया है। मैं अभी उन्हें लाकर आपको दिखाता हूँ, जिससे आप उन्हें पहचान सकें।”
ऐसा कहकर सुग्रीव पर्वत की गुफा में गए और उन आभूषणों व चादर को लेकर आए।
सीता के वस्त्र और आभूषण देखते ही श्रीराम का धैर्य टूट गया और वे सीता को याद करके रोने लगे। आँसुओं से उनका मुख भीग गया और गला रुँध गया। विलाप करते हुए श्रीराम अपने पास ही खड़े लक्ष्मण से बोले, “लक्ष्मण! देखो सीता ने ये आभूषण भूमि पर डाल दिए थे। अवश्य ही ये घास पर गिरे होंगे क्योंकि ये टूटे नहीं हैं।”
यह सुनकर लक्ष्मण बोले, “भैया! ये कुंडल और बाजूबंद किसके हैं, ये तो मैं नहीं पहचान सकता किन्तु इन नूपुरों को मैं अवश्य पहचानता हूँ क्योंकि प्रतिदिन भाभी के चरणों में प्रणाम करते समय मैंने इन्हें देखा है।”
अब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! मुझे बताओ कि वह दुष्ट राक्षस मेरी प्राण-प्रिया सीता को लेकर किस दिशा में गया था। उस एक के अपराध के कारण ही मैं समस्त राक्षसों का विनाश कर डालूँगा। उसने धोखे से मेरी प्रियतमा का अपहरण करके अपनी मृत्यु का द्वार स्वयं ही खोल दिया है।”
श्रीराम का शोक देखकर सुग्रीव की आँखों में भी आँसू आ गए। हाथ जोड़कर उन्होंने दुःखी वाणी में कहा, “श्रीराम! उस नीच पापी का निवास स्थान कहाँ है, उसकी शक्ति कितनी है और उसका पराक्रम कैसा है, इन सब बातों को मैं बिल्कुल भी नहीं जानता हूँ। लेकिन मैं आपके सामने यह प्रतिज्ञा कर रहा हूँ कि मैं सीता को खोजकर पुनः आपके पास लेकर आऊँगा। अतः अब आप शोक त्याग दें और धैर्य धारण करें।”
“इस प्रकार व्याकुल होकर विलाप करना आप जैसे महापुरुषों के लिए उचित नहीं है। मुझे भी पत्नी का वियोग सहना पड़ रहा है, किन्तु मैं इस प्रकार शोक नहीं करता हूँ और न ही मैंने अपना धैर्य छोड़ा है। जब मुझ जैसा एक साधारण वानर भी इस बात को समझता है, तो आप जैसे सुशिक्षित और धैर्यवान पुरुष को तो कदापि शोक नहीं करना चाहिए।”
“श्रीराम! शोक में, आर्थिक संकट में अथवा प्राण संकट में पड़ जाने पर भी जो व्यक्ति धैर्य नहीं खोता है और अपनी बुद्धि लगाकर उस संकट से निकलने का उपाय सोचता है, वह उस कष्ट से अवश्य ही पार हो जाता है। लेकिन जो मूढ़ मानव सदा घबराहट में पड़ा रहता है, वह पानी में भार से दबी नौका के समान ही शोक में विवश होकर डूब जाता है। मैं आपको उपदेश नहीं दे रहा हूँ, किन्तु मित्रता के नाते आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप धैर्य रखें और शोक न करें।”
सुग्रीव की ये बातें सुनकर श्रीराम ने अपने वस्त्र के छोर से अपने आँसुओं को पोंछ लिया और सुग्रीव को सीने से लगा लिया।
फिर श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “मित्र सुग्रीव! तुमने उचित बातें ही कही हैं, जैसी एक सच्चे मित्र को कहनी चाहिए। तुम्हें सीता का व उस दुरात्मा रावण का पता लगाने के लिए अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिए। अब तुम मुझे बताओ कि तुम्हारे लिए मैं क्या करूँ। मैंने आज तक कभी कोई झूठी बात नहीं कही है और भविष्य में भी मैं कभी असत्य नहीं बोलूँगा। मैंने वाली का वध करने की जो बात तुमसे कही है, उसे भी तुम सत्य ही मानो। मैं शपथ लेकर यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अवश्य ही वाली का वध करूँगा।”
श्रीराम की इन बातों को सुनकर सुग्रीव और उनके मंत्री अत्यंत प्रसन्न हुए।
तब श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा, “तुम दोनों भाइयों में वैर होने का कारण क्या है?”
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

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