Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 65
श्रीराम के पूछने पर सुग्रीव ने बताना आरंभ किया।
“श्रीराम! वाली मेरा बड़ा भाई है। मेरे पिता ऋक्षराज उसे बहुत मानते थे। मेरे मन में भी उसके प्रति आदर की भावना थी। वाली बड़ा था और सबको प्रिय भी था, इसलिए पिताजी की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उसे किष्किन्धा का राजा बनाया। मैं भी निष्ठापूर्वक उसकी सेवा करने लगा।”
“मय दानव का पुत्र और दुन्दुभि का बड़ा भाई मायावी एक तेजस्वी दानव था। वाली से उसका बैर हो गया। एक बार आधी रात को वह किष्किन्धा के द्वार पर आया और वाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा। इससे क्रोधित होकर वाली भी उससे युद्ध करने निकला। मैं भी उसके पीछे चल पड़ा।”
“हम दोनों भाइयों को आता देख, वह दैत्य भय से घबराकर भागने लगा। हमने उसका पीछा किया, तो वह भागकर एक गुफा में जा घुसा। तब वाली मुझसे बोला, ‘सुग्रीव! मैं इस गुफा में प्रवेश करके उस शत्रु का वध कर दूँगा। तब तक तुम गुफा के द्वार पर सावधानी से खड़े रहना।’”
“एक वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर भी वाली गुफा से बाहर नहीं आया। एक दिन अचानक मुझे गुफा से खून की धारा निकलती हुई दिखी और असुरों की गरजती हुई आवाज भी मेरे कानों में पड़ी। इन संकेतों के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि वाली उस युद्ध में मारा गया है। तब मैंने एक बहुत बड़ी चट्टान से उस गुफा का द्वार बंद कर दिया और मैं किष्किन्धा वापस लौट आया। मंत्रियों ने अब मुझे ही राजा घोषित कर दिया और मैं न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करने लगा।”
“तभी एक दिन अचानक वाली नगर में लौट आया। मुझे सिंहासन पर बैठा देख वह बहुत क्रोधित हुआ। मैंने उसे बहुत समझाया कि ‘एक वर्ष तक प्रतीक्षा करने के बाद गुफा से निकलती हुई रक्त की धारा को देखकर मैं घबरा गया था और चट्टान से उस गुफा को बंद करके मैं नगर में लौट आया था। राज्य पाने की मेरी कोई अभिलाषा न थी और मैं आज तक इसे आपकी धरोहर के रूप में ही संभाल रहा हूँ। अतः आप मेरी भूल को क्षमा करें।’”
“लेकिन वाली ने मेरी एक न सुनी। उसने मुझे बहुत धिक्कारा और मेरे मंत्रियों को भी कैद कर लिया। फिर प्रजाजनों को बुलाकर उसने कहा, ‘सुग्रीव को गुफा के द्वार पर छोड़कर मैं भीतर गया और उस दानव को खोजने लगा। इसमें एक वर्ष लग गया। जब मुझे वह शत्रु दिखाई दिया, तो मैंने उसके बंधु-बांधवों सहित उसे तत्काल मार डाला, किन्तु इसके बाद जब मैं वापस लौटा, तो गुफा से निकलने का कोई मार्ग ही नहीं दिखा क्योंकि गुफा का द्वार बंद कर दिया गया था। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार मैंने उस चट्टान को लात मार-मारकर गिराया और तब मैं उस गुफा से बाहर निकलकर नगर में वापस पहुँच पाया हूँ। यह सुग्रीव इतना क्रूर और निर्दयी है कि मेरा भाई होते हुए भी इसने केवल राज्य पाने की लालसा में मुझे इस गुफा के भीतर बंद कर दिया था।’”
“ऐसा कहकर वाली ने मुझे घर से निकाल दिया और मेरी स्त्री को भी मुझसे छीन लिया। उसके बाद मैं पूरी पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता रहा और अंततः इस ऋष्यमूक पर्वत पर चला आया क्योंकि मतंग ऋषि के शाप के के कारण वाली यहाँ नहीं आता है। फिर भी मेरा वध करने के प्रयास में वह अपने वानरों को भेजता रहता है, जिनमें से अनेकों का मैं वध कर चुका हूँ। आपको देखकर भी पहले मुझे यही संदेह हुआ था, इसी कारण मैंने स्वयं आपके पास न आकर हनुमान को आपका परिचय जानने के लिए भेजा था। हनुमान आदि वानर ही यहाँ मेरे रक्षक हैं। उनकी सहायता से ही मैं आज तक जीवित हूँ।”
यह सब सुनने के बाद श्रीराम बोले, “मित्र! तुम निश्चिन्त रहो। मेरे ये बाण शीघ्र ही उस दुराचारी के प्राण ले लेंगे और तुम अपनी पत्नी को तथा उस विशाल राज्य को अवश्य ही प्राप्त करोगे।”
यह सुनकर सुग्रीव को अतीव प्रसन्नता हुई। लेकिन वाली के नाम से वह अभी भी भयभीत था। उसने श्रीराम को वाली के पराक्रम की अनेक बातें बताईं। उसने कहा, “वाली बहुत बलशाली है। वह सूर्योदय से पहले ही पश्चिमी सागर से पूर्वी सागर तक और दक्षिणी समुद्र से उत्तर तक घूम आता है, फिर भी वह थकता नहीं है। बड़े-बड़े पर्वत शिखरों को वह उठा लेता है और फिर हवा में उछालकर उन्हें हाथों में थाम लेता है। वन के अनेक विशाल वृक्षों को उसने तोड़ डाला है।”
“दुन्दुभि नामक भीषण असुर को उठाकर उसने धरती पर पटक दिया था और अपने शरीर के भार से उसे पीस डाला था। फिर उसे उठाकर बड़ी सहजता से वाली ने एक योजन दूर फेंक दिया था। यह देखिये, उस दुन्दुभि की अस्थियों का ढेर यहाँ पड़ा है।”
“उसके शरीर की कुछ बूँदें मतंग ऋषि के आश्रम में गिर गईं। इसी से कुपित होकर उन्होंने शाप दे दिया था कि जिस किसी वानर ने मेरे इस वन को अपवित्र किया है, उसका यहाँ आते ही विनाश हो जाएगा। उसी शाप के भय से वाली यहाँ नहीं आता है।”
यह सुनकर लक्ष्मण जी हँसने लगे। उन्होंने सुग्रीव से पूछा, “कौन-सा काम कर देने से तुम्हें विश्वास होगा कि श्रीराम वाली का वध कर सकते हैं?”
तब सुग्रीव ने कहा, “साल के इन सात विशाल वृक्षों को देखिये। कई बार वाली ने एक-एक करके इन सातों वृक्षों को बींध डाला है। श्रीराम यदि इनमें से किसी एक वृक्ष को भी अपने बाणों से छेद डालें, तो मुझे विश्वास हो जाएगा कि ये अपने पराक्रम से वाली का वध कर सकते हैं। अन्यथा यदि ये इस दुन्दुभि की अस्थियों को एक ही पैर से उठाकर दो सौ धनुष की दूरी पर फेंक सकें, तो भी मैं मान लूँगा कि इनके हाथों वाली का वध हो सकता है।”
फिर सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! मैं आपके और वाली के पराक्रम की तुलना नहीं कर रहा हूँ। आपको डराने या आपका अपमान करने के लिए भी मैं यह सब नहीं कह रहा हूँ। मैं उस दुष्ट अहंकारी के बल-पराक्रम को तो जानता हूँ, किन्तु युद्ध-भूमि में आपका पराक्रम मैंने नहीं देखा है। केवल इसी कारण मैं आपके पराक्रम का प्रमाण देखना चाहता हूँ।”
तब श्रीराम ने सुग्रीव की ओर मुस्कुराते हुए देखा और दुन्दुभि के कंकाल को पैर के अँगूठे से उछालकर सहज ही दस योजन दूर फेंक दिया।
तब सुग्रीव ने कहा, “श्रीराम! जब वाली ने मृत दुन्दुभि को उछालकर फेंका था, तब वह युद्ध से थका हुआ था और दुन्दुभि का शरीर भी माँसयुक्त और ताजा था। अब तो यह हड्डियों का सूखा हुआ ढाँचा मात्र है। अतः आपके द्वारा इसे फेंके जाने से भी यह नहीं पता चलता कि आपकी शक्ति अधिक है या वाली की। आप यदि साल के एक वृक्ष को भी अपने बाणों से विदीर्ण कर दें, तो मुझे आपकी शक्ति का स्पष्ट पता चल जाएगा।”
यह सुनकर श्रीराम ने सुग्रीव को विश्वास दिलाने के लिए धनुष हाथ में लिया और एक बाण खींचकर साल के उन वृक्षों की ओर छोड़ दिया। श्रीराम का पराक्रम ऐसा अद्भुत था कि उनका वह बाण सातों वृक्षों को एक साथ ही बींधकर पर्वत तथा पृथ्वी के सातों तलों को छेदता हुआ पाताल में चला गया। एक ही मुहूर्त में उन सबको इस प्रकार भेदकर वह वेगशाली सुवर्णभूषित बाण पुनः उनके तरकस में भी लौट आया।
श्रीराम का यह अतुल्य पराक्रम देखकर सुग्रीव को बड़ा विस्मय हुआ। उसने हाथ जोड़कर धरती पर माथा टेक दिया और श्रीराम को साष्टांग प्रणाम किया। अब उसे पूर्ण विश्वास हो चुका था कि वाली को मारना श्रीराम के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उसने श्रीराम से कहा, “मित्र! अब मेरा सारा संशय दूर हो गया है। आज ही आप वाली का वध कर डालिये।”
तब श्रीराम उससे बोले, “सुग्रीव! अब किष्किन्धा चलकर तुम वाली को युद्ध के लिए ललकारो।”
इसके बाद वे सब लोग वाली की राजधानी किष्किन्धा गए और गहन वन में वृक्षों की आड़ में छिपकर खड़े हो गए।
तब सुग्रीव ने वाली को युद्ध के लिए ललकारा।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

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