जो “शांति से फैला, अमन अखलाक से फैला” का झूठ हमें परोसते नहीं थकते उनको जवाब देता एक विडिओ मिला। पाकिस्तान के तीन बड़े नाम हैं – डॉ इसरार अहमद (ये वाकई मेडिकल डॉक्टर भी थे, अपने जाकिर जैसे), खादिम हुसेन रिजवी (वही “लैट्रिन” वाले) – दोनों आज हयात नहीं – और इंजीनियर मुहम्मद अली मिर्जा (आठ साल की दो बीवियाँ का जोक वाले) ।
दो अरबी मौलाना भी हैं, सब टाइटल के साथ। लेकिन अगर कोई कहें कि सब टाइटल गलत हैं तो हम इन तीन पाकिस्तानियों की ही बात करेंगे।
तीनों के तीनों ताल ठोंककर कह रहे हैं कि जो फैला वो तो तलवार से ही फैला, तेरा साल शांति से फैलाने से सौ लोग भी कन्वर्ट नहीं हुए। लड़ाइयों का डीटेल भी दे रहे हैं लगभग सौ लड़ाइयाँ लड़ी उनके श्रद्धेय ने। अरबी में भी वही बात कही गई है लेकिन जैसे कहा, अरबी की बात नहीं करेंगे।
ये उनके बोल, इनके ही यहाँ ताल ठोंककर किये भाषणों से किसी ने काटकर एक क्लिप बना दी। किसने, पता नहीं, लेकिन जब एक्स मु इसे अपने चैनल्स पर दिखाने लगे और यह पूरी क्लिप उन्होंने अपने चैनल पर डाल दी तो उनको कहा गया कि यह कॉपीराइट का उल्लंघन है, उतार दो शराफत से अच्छे बच्चे बनकर। अत: यह क्लिप यू ट्यूब पर नहीं मिल सकती।
जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास है 1984 जो साम्यवाद (और स्टालिन) को लेकर है, उसमें इसी संभावना का स्पष्ट उल्लेख है । यूट्यूब वगैरह तब थे नहीं, इसलिए सबूतों के नष्ट किये जाने का उल्लेख है। नायक से सामने एक सबूत नष्ट किया जाता है और उससे पूछा जाता है – कहाँ है वो सबूत ? बस तुम्हारी कल्पना में है। अगर सबूत दिखा नहीं सकते, उसे तुम्हारी कल्पना ही मान लिया जाएगा, तुम्हारी स्मृति भी नहीं। उसका कोई अस्तित्व नहीं तो वो सबूत ही नहीं, बल्कि तुमने किसी का नाम खराब करने के लिए लगाया हुआ झूठा आरोप है, तुम्हें ही हम सजा क्यों न दें ?
वह विडिओ यहाँ लगेगी नहीं, सब को पता है क्या होता है जूक्रूद्दीन के राज में। साइज तो छोटी ही है लेकिन बात बड़ी है। डॉ इसरार अहमद तो यहाँ पीसफुल को-एकजिस्टन्स की संकल्पना को ही शिद्दत से खारिज करते पाए जाते हैं, और कहते हैं कि दूसरों पर हावी होने के लिए आगे बढ़कर जंग करनी होगी, क्योंकि यह हमारा ईश्वर का दिया हुआ कर्तव्य है, हम दूसरा आक्रमण करे तो ही उससे लड़ने का इंतजार नहीं कर सकते।
तीनों एक ही बात बार बार दोहराते हैं कि उस विचारधारा को बाकी सब के ऊपर राज ही करना है, सब को अपने से नीचे ही रखना है, और इसके लिए “तलवार की जरूरत हमेशा रहेगी।”
एक संस्कृत सुभाषित है जिसका उत्तरार्ध ही हमें स्मरण होता है और उसमें भी, उसका अर्थ सही से पता नहीं होता।
न ही लक्ष्मी कुलक्रमज्जता, न ही भूषणों उल्लेखितोपि वा।
खड्गेन आक्रम्य भुंजीत:, वीर भोग्या वसुंधरा।।
ना ही लक्ष्मी निश्चित कुल से क्रमानुसार चलती है और ना ही आभूषणों पर उसके स्वामी का चित्र अंकित होता है ।
खड्ग के दम पर पुरुषार्थ करने वाले ही विजेता होकर इस रत्नों को धारण करने वाली धरती को भोगते है ।
आजकल लोगों को संस्कृत नहीं आती, पूर्वजों के ज्ञान से हम ने खुद ही मुँह मोड लिया है। लेकिन कम से कम यह सुभाषित का अर्थ याद रक्खें और उसके अनुसार बरतें तो बेहतर होगा।