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कोरेगाँव भीमा युद्ध की कहानी का इतिहास

Akanksha Ojha.

by Akansha Ojha
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31 अक्तूबर, 1817 को रात 8 बजे ईस्ट इंडिया कंपनी के कप्तान फ्रांसिस स्टोंटो ने नेतृत्व में 500 सैनिकों, 300 घुड़सवारों, 2 बंदूकों और 24 तोपों के साथ एक सैनिक दस्ता पूना से रवाना हुआ। रातभर चलने के बाद अगले दिन सुबह 10 बजे यह छोटी टुकड़ी भीमा नदी के किनारे पहुंची तो सामने पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में 20,000 मराठा सेना खड़ी थी। इस विशालकाय सेना का उद्देश्य पूना को फिर से स्वतंत्र करवाना था लेकिन कम्पनी के उस दस्ते ने उन्हें मार्ग में ही रोक लिया।
कप्तान स्टोंटो की सेना में ब्रिटिश अधिकारियों के अलावा स्थानीय मुसलमान और दक्कन एवं कोंकण के हिन्दू महार सम्मिलित थे। दोनों ओर के विश्लेषण में पेशवा की तैयारी अधिक कुशल और आक्रामक थी। जिसे देखकर कप्तान स्टोंटो ने नदी को पार कर सामने से आक्रमण करने की बजाए पीछे ही रहने का निर्णय किया। अपनी सुरक्षा के लिए उसने नदी के उत्तरी छोर पर बसे एक छोटे से गाँव कोरेगांव को बंधक बनाकर वहां अपनी चौकी बना ली।
एक छोटी से चारदीवारी से घिरे भीमा कोरेगांव के पश्चिम में दो मंदिर – बिरोबा और मारुती थे। उत्तर-पश्चिम में बस्ती थी।
कंपनी के दस्ते ने कोरेगांव के घरों की छतों का उपयोग पेशवा की सेना पर दृष्टि रखने लिए किया था। कप्तान स्टोंटो ने अपनी बंदूकें गाँव के दो छोर – एक सड़क के रास्ते और दूसरी नदी के किनारे पर नियुक्त कर दी थी। अब वह पेशवा की ओर से पहले आक्रमण की प्रतिक्षा करने लगा। हालाँकि, अभी तक पेशवा ने कंपनी के दस्ते पर कोई आक्रमण नहीं किया क्योंकि वह 5,000 अतिरिक्त अरबी पैदल सेना की प्रतिक्षा कर रहे थे।
जैसे ही वह सैनिक टुकड़ी उनसे जुड़ गयी तो पेशवा की सेना ने भीमा नदी को पार कर पहले हमला शुरू कर दिया। दोपहर के आसपास पेशवा के 900 सिपाही कोरेगांव के बाहर पहुँच गए थे (कुछ पुस्तकों में इनकी संख्या 1,800 तक बताई गयी है)। दोपहर तक दोनों मंदिरों को पेशवा ने वापस अपने अधिकार में ले लिया था। सायंकाल होने तक नदी के किनारे वाली एक बन्दुक और 24 तोपों में से 11 को मराठा सेना ने नष्ट अथवा मार दिया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा साल 1910 में प्रकाशित ‘maratha and pindari war’ में कंपनी के नुकसान के दूसरे आकंडे प्रस्तुत किये है। पुस्तक के अनुसार 24 तोपों में से 12 को नष्ट/मार और 8 को हताहत कर दिया था।
मराठा सेना ने विंगगेट, स्वांसटन, पेट्टीसन और कानेला नाम के चार कंपनी अधिकारियों को भी मार डाला था।हमला इतना तीव्र था कि परिस्थितियों को देखते हुए कप्तान स्टोंटो से बची हुई टुकड़ी ने आत्मसमर्पण की गुहार लगायी। इस सुझाव को कप्तान स्टोंटो ने स्वीकार कर लिया और वर्तमान कर्नाटक के सिरुर गाँव की तरफ भाग गया।
कप्तान स्टोंटो के पीछे हटने के निर्णय के बाद भी ब्रिटिश इतिहासकारों ने उसकी प्रशंसा की है। लड़ाई के चार साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने कप्तान स्टोंटो और उसकी सेना के नाम कोरेगांव में एक स्तम्भ बनवा दिया। कुछ वर्षों बाद, अर्थात 25 जून, 1825 को कप्तान फ्रांसिस स्टोंटो मर गया और उसे समुद्र में दफना दिया गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा सेना के इस टकराव के कई ऐसे तथ्य है जिनका तथ्यात्मक विश्लेषण करना जरुरी है।
महारों की मराठाओं से कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं थी। यह लड़ाई कंपनी और मराठा सेना के बीच में लड़ी गयी थी जिसमें महारों ने कंपनी का साथ दिया। यह जाति इससे पहले फ़्रांस के भारतीय अभियानों में भी उन्हें अपनी सैन्य सहायता दे चुकी थी। जिसका कारण महारा लोग बताते है कि पेशवा अथवा ब्राह्मण उनसे जातिगत भेदभाव करते थे। परंतु यह असत्य है।
अलेक्जेंडर राबर्टसन ने अपनी पुस्तक “The mahara folk” मे उल्लेख किया है कि, महारा सामाजिक रुप से एक प्रतिष्ठित जाति थी, जो पेशवा की सेना मे बडे-बडे पदो पर नियुक्त होती थी और पेशवाओ से इन्हे इनाम मे धन, भूमि आदि पाते थे। समाज मे अन्य जातीयों मे किसी प्रकार की समस्या होने पर महारा ही उनकी समस्या का निपटारा किया करते थे। महारा जाति के अपने से छोटी जाति मंग के साथ अछूतों सा व्यवहार करते थे, यहाँ तक की मंग जाति को विवाह आदि मे घोडी पर चढने की मनाही थी। परंतु भीमा कोरेगाँव युद्ध मे मराठा सेना के विरुद्ध ब्रिटिशो का साथ देने के पश्चात महारा को संपूर्ण समाज से बहिष्कृत होना पडा। महारो को दूध वाला दूध न देता था, सब्जीवाला सब्जी न देता था, लगभग सभी इनसे किसी प्रकार का व्यवहार न रखते थे। यहाँ तक की सार्वजनिक जलाशयों से पानी भरने अथवा पानी पिने पर भी मनाही कर दी गई।
एम. ए.नईम के गोवा के संकलित किये दस्तावेज “The external relationship of Bijapur kingdom” के अनुसार महारा पुर्तगालियों के व्यापरिक केंद्रो की चौकिदारी करते थे, बाद मे छ. शिवाजी महाराज के पुर्तगालीयो के व्यापारिक केंद्रो पर कब्जा करने के बाद महारा स्वत: ही उनके सेना मे नियुक्त होने लगे और पुर्तगालीयों के लिये छ. शिवाजी महाराज की मुखबिरी किया करते थे। आदिलशाह मराठों की जासूसी करवाने के लिये महारो को अच्छा उपाय मानता था।
वैसे किसी भी इतिहास की पुस्तक में स्पष्ट रुप से मराठा सेना की हार का कोई उल्लेख नहीं है। सभी स्थानों पर कप्तान स्टोंटो द्वारा स्वयं की जान बचाने का उल्लेख है, जिसे ‘डिफेन्स ऑफ़ कोरेगांव’ के नाम से संबोधित किया गया है।
बाद के वर्षों में, इस एकतरफा टकराव को भीमा कोरेगांव युद्ध के नामपर ईस्ट इंडिया कंपनी की शान मे जबरन परिवर्तित कर दिया गया। इस झूठ को रचने वाले स्वयं ब्रिटिश इतिहासकार थे। जिसमें रोपर लेथब्रिज द्वारा लिखित ‘History of India’ (1879); जी.यू. पोप द्वारा लिखित ‘Longmans school history of India’ (1892); आर. एम. बेथाम द्वारा लिखित ‘Maratha and Dekhani musalmans’ (1908); जोसिया कोंडर द्वारा लिखित ‘The modern travellar’ (1918); सी.ए.किनकैड द्वारा लिखित ‘A history of Maratha people’ (1925); और रिचर्ड टेम्पल द्वारा लिखित ‘Shivaji and the rise of the marathas’ (1953) इत्यादि शामिल थे।
इन सभी पुस्तकों में एक जैसा ही, बिना किसी परिवर्तन के, ब्रिटिश इतिहास का वर्णन मिलता है। हालाँकि, साल 1894 में अल्दाजी दोश्भई द्वारा लिखित ‘History of Gujrat’ में एक अन्य तथ्य का उल्लेख किया गया है। उन्होंने लिखा है कि पेशवा ने कोरेगांव में ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं समझा क्योंकि कप्तान स्टोंटो को पीछे से ब्रिटिश सहायता मिल सकती थी। इसलिए उन्होंने वहां से निकलकर दक्षिण की तरफ जाने का निर्णय किया। इस समय तक, दक्षिण भारत के कई हिस्सों में ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी पकड़ बना चुकी थी। पेशवा चारों ओर से उनसे घिरे हुए थे और धीरे-धीरे उनके कई दुर्ग जैसे सतारा, रायगढ़, और पुरंदर हाथ से निकल गए थे।
‘Maratha and Pindari war’ में भी बताया गया है कि जनरल स्मिथ के आने की सुचना सुनकर पेशवा की सेना अगले दिन सुबह वहां से चली गयी थी। कप्तान स्टोंटो को जनरल स्मिथ के कोरेगांव पहुँचने के समय का अनुमान नहीं था। इसी मध्य उसके पास हथियारों की कमी हो गयी थी, इसलिए वो वहां से चला गया। जनरल स्मिथ को 2 जनवरी से 6 जनवरी के बीच कोरेगांव पहुंचा था लेकिन तब तक मराठा सेना और कंपनी की टुकड़ी वहां से निकल चुकी थी।
साल 1923 में प्रत्तुल सी. गुप्ता द्वारा लिखित ‘Baji rao ।। the east India company 1796-1818’ में पेशवा की हार का कोई उल्लेख नहीं है। बल्कि उन्होंने कंपनी के नुकसान के आंकड़े प्रस्तुत किये है। प्रत्तुल सी. गुप्ता ने यह भी लिखा है कि रात के नौ बजे लड़ाई रुक गयी थी।
यहाँ एक गौर करने वाली बात है कि प्रत्तुल सी. गुप्ता के अनुसार रात्रि को लड़ाई रुकी थी। ‘Maratha and Pindari war’ के मुताबिक पेशवा की सेना अगले दिन सुबह कोरेगांव से रवाना हुई थी। इसका अर्थ स्पष्ट है कि कप्तान स्टोंटो ने रात में ही भाग गया था। जबकि उसे ज्ञात था कि उसकी सहायता के लिए जनरल स्मिथ की एक बड़ी सेना उसके पीछे खड़ी थी। हालाँकि, उसके पास अपनी जान बचाने का समय भी नहीं था और न ही पर्याप्त हथियार बचे थे।
कोरेगांव के टकराव का एक अन्य विरोधाभास भी है। वर्तमान में, इस गाँव में कथित ब्रिटिश शौर्य (जिसे महारा लोग 500 महारो के शौर्य का प्रतीक बताते है।) का एक स्तंभ बनाया हुआ है, जिसमें 49 मरने वालों के नाम लिखे गए है। जबकि स्वयं ब्रिटिश इतिहासकारों जैसे रोपर लेथब्रिज ने साल 1879 में अपनी पुस्तक ‘History of India’ (तीसरा संस्करण) में ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से 79 सैनिकों के मरने अथवा घायल होने की पुष्टि की है।
दो साल पहले अर्थात साल 1887 में सी. कॉक्स एडमंड द्वारा लिखित ‘A short history of the bombay presidency’ में कप्तान स्टोंटो के 175 सैनिकों के मारे जाने का उल्लेख है।
साल 1818 के बाद मराठा साम्राज्य लगभग संकुचित हो गया और दक्षिण-पश्चिम भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार हो गया। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश क्राउन भारत के सभी वर्गों पर जितने अत्याचार, नरसंहार और अमानवीय व्यवहार किये, उसपर इतिहास भरा पड़ा है।

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