उच्च कहे जाने वाले समाज में जब विचरण करती हूँ तो देखती हूँ,,,चाहे बंगभाषी हो, बिहारी, ओड़िया, माड़वारी, तमिल,तेलुगु या फिर भारतभर के किसी भी प्रदेश से अंग्रेजी माध्यम में शिक्षित युवा/प्रौढ़ माताएँ….तुतलाता गोद वाला बच्चा हो या युवा,इनसे ये अपनी प्रादेशिक भाषा या हिन्दी में नहीं अपितु अंग्रेजी में ही बतियाती हैं…..और तो और जो अंग्रेजी माध्यम की पढ़ी नहीं भी हैं, टूटीफूटी(खतरनाक) अंग्रेजी में ही कसरत कर रही होती हैं।क्योंकि इनके मन में भारी भय होता है कि यदि इनका फर्राटेदार अंग्रेजी न बोल पाया,सोच समझ आचरण से अंग्रेज न बन पाया तो प्रगति के रेस में बुरी तरह पिछड़ जाएगा।
आज की युवा पीढ़ी तो कम से कम हिन्दी समझ लेती है,,भले इसके नाम पर हँसती है,इसे हीन अनुपयोगी मानती है,,,पर भविष्य वाली पीढ़ी तो हिन्दी या प्रादेशिक बोलियों का नाम भी नहीं सुनना चाहेंगी,इसे व्यवहार करने की बात तो बहुत दूर रही।अच्छा है,हम जैसी भविष्य की नानी दादियाँ जो मन में बच्चों के मुँह से हिन्दी/अपनी मातृभाषा सुनने की लालसा रखे हुए हैं,अगले दशक भर में ही निपट लें,अन्यथा हमसे तो यह अपमान न सहा जाएगा।
हाँ, विदेशों में बसे कुछ जागरूक भारतीय अवश्य हैं जो अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी तथा मातृबोली भी सिखा रहे हैं।क्योंकि इन्होंने तथाकथित अंग्रेजी प्रगतिशीलता का स्वाद चख लिया है और इन्हें लगता है कुछ करके भी बच्चों में भारतीयता भरी जाय।
वैसे यह नया भारत देकर गए हमारे चचाजान हमको,जो जन्म से हिन्दी/हिन्दू,मन से मुस्लिम और सोच विचार संस्कार से खाँटी अंग्रेज थे।
भाषा केवल विचार विनिमय का माध्यम नहीं होता,अपितु यह अपने आप में पूरी संस्कृति समेटे होता है।अब भारत में से भारतीयता निकालकर जो बचेगा,वह विशुद्ध रूप से वही होगा जैसा अंग्रेज भारत को देखना चाहते थे।
“संस्कृति विहीन,रीढ़विहीन,जड़ों से कटा हुआ अंग्रेजी कृतदास”
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