मकर संक्रांति के अवसर पर,तुम_भूल_न_जाना_उनको

प्राचीन कुरुजांगल क्षेत्र का एक गांव ‘पाणिप्रस्थ’ (महाभारत कालीन नाम)और वर्तमान में दिल्ली से नब्बे किलोमीटर दूर एक कस्बा जिसको आज पानीपत कहते हैं ।
प्राचीनकाल से ही कुरुक्षेत्र से संबंधित रणभूमि जो ऐतिहासिक रूप से भारतीयों के लिये अभिशापित रही है। अगर कुरुक्षेत्र की भूमि ने #दाशराज्ञ के उत्तरार्ध के रूप में समंतपंचक में हैहयों के रक्त से भरे कुंड से लेकर महाभारत में अगणित योद्धाओं के लहू की नदी देखी तो पानीपत ने भी अगणित योद्धाओं के मृत शरीर का असह्य भार अपनी भूमि पर वहन किया।
इस भूमि ने तीन बार भारतीय इतिहास की दिशा को पलटा।
प्रथम युद्ध भले ही दो विदेशी लुटेरों इब्राहीम लोदी और बाबर के बीच हुआ हो लेकिन खानवा के मैदान में राजपूतों की पराजय की पूर्वभूमिका यहीं लिखी गयी क्योंकि अपनी खड्गसंचालन विद्या पर भरोसा रखने वाले ये गर्वीले योद्धा तोपों के रूप में तकनीक का महत्व समझ ही नहीं सके।
इसी मैदान में द्वितीय युद्ध एक बार फिर हिंदू स्वप्नसूर्य के लिये ग्रहण सिद्ध हुआ और इस युद्ध ने भारत को मुगलों की गुलामी की भट्टी में धकेल दिया।
भयानक संघर्ष की यह काली रात भी गुजरने लगी और महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और पेशवा बाजीराव के अथक प्रयासों से हिंदू मराठों के रूप में एक बार फिर सिर ऊंचा करके उत्तर की ओर इस रणभूमि की ओर चल पड़े।
जर्जर अर्थव्यवस्था से बेहाल हमारे इन मराठा योद्धाओं ने ‘हिंदू पद पादशाही’ का नारा तो अपना लिया था लेकिन उनमें बाजीराव ‘महान’ की उस समन्वयवादी प्रतिभा का पूर्ण अभाव था जिसने उदयपुर के सिसोदिया राणाओं के नेतृत्व, सतारा के छत्रपतियों उपनेतृत्व व पेशवाओं के कार्यकारी नेतृत्व में ‘महान हिंदू संघ’ का स्वप्न देखा था।
जी हाँ, ‘अटक से कटक’ का नारा देने वाले इस महान पेशवा ने उदयपुर के राणा से भेंट के दौरान उस सिंहासन के सामने आसन ग्रहण करने से इनकार कर दिया था जिसपर कभी महाराणा प्रताप सिंहासनासीन हुये थे। उस भावनापूर्ण वातावरण में इस महान संघ की योजना बनी जो अगर कार्यरूप में परिणित हो जाती तो आज ‘हिंदू भारत’ की सीमायें कहाँ तक होतीं कल्पना करना मुश्किल है।
पर हिंदुओं का दुर्भाग्य! पुणे के कट्टर ब्राह्मणों व परिवार के सदस्यों की क्षुद्र सोच ने उनकी शक्ति, उनके प्रेम ‘मस्तानी’ को उनसे विलग कर दिया और उसके साथ उनकी साँसें भी उनसे विलग हो गईं।
उत्तराधिकारी बालाजी उपनाम ‘नाना’ में वह योग्यता व शक्ति नहीं थी जिसका परिणाम था, होलकर व सिंधियाओं जैसे सरदारों का उदय जिन्होंने राजपूतों को ही नहीं जाटों को भी अपना शत्रु बना लिया था ।
इसी बीच उत्तर पश्चिम से नादिरशाह के आक्रमण ने उसके साथ आये अफगानों की दाढ़ में खून लगा दिया था। अब वे घाव से सड़ी और कीड़े बिजबिजाती नाक वाले अपने खूँख्वार नेता अहमदशाह अब्दाली के नेतृत्व में भारत भूमि पर गिद्धों की तरह मंडराने लगे।
सिख अभी पूर्णतः संगठित नहीं थे। ऐसे में मराठों ने इस चुनौती को स्वीकार किया और राघोबा ने लाहौर को जीतकर अटक तक पहुंचने का अपने पिता का स्वप्न साकार कर दिया। परंतु मराठों ने यहां भी एक भीषण भूल कर दी और लाहौर को किसी सिख नेता को सौंपने के स्थान पर अदीना बेग को सौंप दिया जो सिखों का शत्रु था। इस तरह राजपूतों व जाटों के बाद सिखों का भी विश्वास मराठों ने खो दिया।
मराठों के लौटते ही अब्दाली पुनः पंजाब पर चढ़ आया और इस बार उसके हमले का निशाना थी दिल्ली और उद्देश्य था पंजाब को सदैव के लिये अफगान साम्राज्य में मिलाना।
मराठों ने मातृभूमि की आन की पुकार सुनी और सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में चल दिये उत्तर की ओर लेकिन उत्तर में दो घटनायें हुईं जिनमें पानीपत की पराजय का रहस्य भी छुपा है और वर्तमान के लिये सीख भी।
एक ओर तो शियासंहारक कट्टर सुन्नी विदेशी अब्दाली तथा भारत की जमीन का अन्न खाने वाले व गंगा जमनी तहजीब की बात करने वाले लखनऊ के शिया नवाब शुजाउद्दौला का इस्लाम के नाम पर आपस में मिल जाना ।
दूसरी ओर, पिछला सबकुछ भुला कर हिंदुत्व के नाम पर मराठों का साथ देने आये महान कूटनीतिज्ञ व जाट शिरोमणि महाराज सूरजमल का भाऊ द्वारा जातिगत अपमान व विश्वासघात की आशंका में उनका मराठा शिविर से पलायन।
इस्लामिक चरित्र के अनुसार प्रथम घटना तो सहज ही थी। मराठे देशद्रोही नवाब व अब्दाली की संयुक्त सेना को अभी भी हरा सकते थे बशर्ते दूसरी घटना ना हुई होती क्योंकि उन दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में मराठों ने ना केवल तीस हजार प्रचंड जाट योद्धाओं को खो दिया बल्कि सूरजमल जैसे महान कूटनीतिज्ञ की सलाहों को भी गंवा दिया।
पर फिर भी मराठों के रूप में हिंदू योद्धा इस मैदान में दूसरी बार ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की इबारत अपने लहू से लिखने के लिये एकत्रित हुए।
14 जनवरी 1761
यह वह दिन था जिस दिन पूरा भारत सूर्यदेवता के मकर राशि में प्रवेश करने का उत्सव मना रहा था, ठीक उसी समय दक्षिण भारत से आये पैंतालीस हजार भूखे प्यासे योद्धा अपने रक्त से मातृभूमि का अभिषेक कर भारत की ‘राष्ट्रीयता’ को सिद्ध करने आये थे कि,
‘हम एक राष्ट्र हैं।’

‘हम हिंदू एक राष्ट्र हैं और भारत के सुदूरतम उत्तरी खंड पर किया गया आक्रमण पूरे राष्ट्र पर आक्रमण है और उसे रोकने को दक्षिण भी उतना ही प्रतिबद्ध है जितना कि उत्तर।’
लेकिन दुर्भाग्य से अपने पूर्वर्ती व वर्तमान नेतृत्व की कूटनीतिक अकुशलता से ये योद्धा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में फंस गये।
भुखमरी से त्रस्त सैनिकों व सेनापतियों के दवाब में भाऊ ने आक्रमण करने का निश्चय किया और सेना को व्यूहबद्ध किया।
बाँयी ओर तोपखाना ,उनके दाँयी ओर विट्ठलराव विंचूरकर और दामाजी गायकवाड़ व उनके साथ दो हजार अफगान ।
इनके दाँयी ओर विश्वासराव और फिर केंद्र में सदाशिव राव भाऊ तैनात थे। इनके साथ कुल चौदह हजार घुड़सवार व नामी मराठा योद्धा थे।
एन दाँयी ओर जानकोजी व महादजी सिंधिया व मल्हार राव होलकर व गंगोबातात्या तैनात थे।
इनके वाम भाग में स्वर्गीय पेशवा बाजीराव व मस्तानी का पुत्र कृष्णा अर्थात शमशेर बहादुर तैनात था।
सेना के पिछले भाग में असैनिक व्यक्तियों व महिलाओं को सात हजार सैनिकों के घेरे में रखा गया था।
मराठा सैन्य व्यूह पूरे दो मील चौड़ाई और तीन मील लंबाई में फैला हुआ था।
खास बात यह थी कि यह व्यूह स्थिर नहीं बल्कि गतिमान था और अब्दाली को निगलने के लिये आगे बढ़ रहा था।
उधर अब्दाली ने भी कमोबेश वाम, दक्षिण व केंद्र वाला व्यूह ही रचा लेकिन दो विशिष्ट जमाव से उसकी कुटिल रणनीति के दर्शन होते हैं।
एक तो उसने नजीब खान के रुहेलों को वाम भाग में इब्राहीम खां गारदी की तोपों के सामने लगा दिया और खुद नजीब खान को वाम पार्श्व में तैनात कर शुजाउद्दौला को उसके साथ चिपका दिया। इस तरह उसने न केवल नजीब के सैनिकों का नियंत्रण उससे छीनकर उनका इच्छित उपयोग किया बल्कि उसे व शुजा दोंनों को एक स्थान पर कीलित कर दिया।
दूसरे उसने 5000 सैनिकों की एक सुरक्षित रिजर्व सेना भी रखी जिसमें उसके सबसे खूँख्वार योद्धा थे।
युद्ध प्रातः साढ़े नौ बजे शुरू हुआ।
युद्ध के प्रारंभ में ही इब्राहीम गार्दी के तोपखाने ने बढ़त कायम कर ली और उसने दांहिने भाग में तैनात अठारह हजार रुहिल्लो में से नौ दस हजार जमीन पर बिछा दिये।
इसी बीच भाऊ दुश्मन के दक्षिण भाग की ओर मुड़कर अब्दाली के वजीर शाहवली के उन्नीस हजार घुड़सवारों पर टूट पड़े और मात्र डेढ़ घंटे के युद्ध में मराठों ने भूखे प्यासे होते हुये भी लगभग सोलह सत्रह हजार घुड़सवारों का सफाया कर दिया।
अब्दाली का केंद्र तबाह होने लगा जो मराठों की विजय का सूचक था, इससे पूर्व ही दक्षिणी खंड इब्राहीम के नेतृत्व में मराठों के बाँये खंड द्वारा लगभग साफ किया जा चुका था। घबराये अब्दाली ने अपने हरम के दारोगा को औरतों को दो कोस और पीछे ले जाने व पराजय होने पर कंदहार निकल जाने का आदेश दिया और स्वयं सुरक्षित सैन्य में से डेढ़ हजार सैनिकों के साथ भागकर वापस आने वाले सैनिकों को काटने लगा।*
लेकिन उसी समय दो दुर्घटनायें घटीं।
विजय को देख यशभागी बनने की इच्छा में अपना नियंत्रण खोकर विंचूरकर व दामाजी घोर अनुशासनहीनता व उद्दंडता का प्रदर्शन करते हुये व्यूह तोड़कर रुहेलों पर लपक पड़े। इब्राहीम द्वारा गिड़गिड़ाकर रोकने के बाद भी वे नहीं रुके। परिणामस्वरूप ये अपने दस्तों का तो सफाया करवा ही बैठे साथ ही इनके कारण इब्राहीम गार्दी की पूरी पलटन निरीह वीरगति को प्राप्त हुई। नतीजा यह रहा कि अफगानों के दक्षिणी भाग पर काल बनकर मंडराते मराठा तोपखाने का दवाब खत्म हो गया।
इधर केंद्र में निरंतर विजयी हो रहे भाऊ के सैनिक स्वतः बेहोश होकर गिरने लगे क्योंकि उन्हें प्रयाण के बाद सुबह से पानी की एक बूंद नहीं मिली थी जबकि हर अफगान सैनिक पहले से ही शस्त्रों के साथ साथ छोटी मशक भर पानी व थोड़े भुने मांस से लैस था।
अब्दाली ने यह कमजोरी भांप ली और तुरंत अपनी सारी सुरक्षित सेना भाऊ पर झोंक दी और केंद्र की दरारें भर दीं। फिर भी भाऊ, विश्वासराव और शमशेर बहादुर पूरी शक्ति से अफगानों पर टूट पड़े। जंग का पलड़ा एक बार फिर मराठों की ओर झुकने लगा।
विश्व इतिहास में किसी भी सेना के योद्धाओं ने ऐसी अकल्पित वीरता नहीं दिखाई होगी जितनी भूख प्यास से जर्जरित हमारे इन मराठा वीरों ने। हर मराठे में जैसे छत्रपति व बाजीराव की आत्मा उतर आयी थी।
तभी युद्ध की तीसरी दुर्घटना घटी और केंद्र को चीरकर अलग थलग पड़े विश्वासराव का माथा एक जंबूरके(उंट पर लगी छोटी तोप) ने चूर कर दिया और उधर मराठों के साथ चल रहे अफगानों ने भगवी पट्टियां उतारकर मराठों पर ही आक्रमण कर दिया, ये वो अफगान सैनिक थे जो कुंजपुरा की जंग जीतकर मराठों ने अपनी सेना मे मिलाये थे, ओर इनकी पहचान के लिये इनके माथे पर भगवा पट्टी बांध दी थी ।
फिर भी विजय की कुंजी मराठों में होलकर के हाथों में थी, पर उन निर्णायक क्षणों में वृद्ध होलकर में जीवन का मोह उत्पन्न हुआ और वह भाऊ के आक्रमण के आदेश को ठुकराकर गंगोबातात्या के साथ युद्ध से कायरतापूर्वक पलायन कर गया।
निराश और हताश भाऊ मृत्यु को ढूंढते हुए अफगान सेना से जा भिडे ।
इस तरह ढाई बजे तक जीतने वाली मराठा सेना तीन बजे युद्ध हार गई और साथ ही हिंदू पद पादशाही का स्वप्न अगले 253 वर्षो के लिये धूमिल हो गया।
आगे की गाथा उन अभागी मराठा स्त्रियों की करुण गाथा है जिन्हें अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये कोई कुंआ भी न मिल सका क्योंकि कुँए पहले ही लाशों से भर चुके थे।
आगे की गाथा उन बचकर निकले हुये मराठा सैनिकों व अनाथ बच्चों की भी है जिनके वंशज हरियाणा से बलूचिस्तान तक #रोड़ जाति के रूप में आज भी पानीपत की हार के दर्द को अपने ह्रदय में बसाये हुये हैं।
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दुर्भाग्य से आज भी यही घटनायें हो रही हैं।
आज भी गंगा जमनी तहजीब के नाम पर हिंदुओं को मूर्ख बनाया जा रहा है और जातिगत श्रेष्ठता के अहंकार में हम अपने अपने ही भाइयों को स्वयं से दूर करते जा रहे हैं। अगर आप किन्हीं भी क्षणों में स्वयं को किसी से जातिगत रूप से श्रेष्ठ मानते हैं उस पल आप किसी पानीपत की हार की पटकथा लिख रहे होते हैं।

Note:- भारत के प्रथम गृहयुद्ध #दाशराज्ञ के विषय में विस्तार से जानने के लिए पढ़ें ‘अनसंग हीरोज:#इंदु_से_सिंधु_तक। महाभारत से पूर्व एक ऐसा युद्ध जिसने भारत, ईरान और अफगानिस्तान का इतिहास बदल दिया।

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