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भारतीय_मुसलमान और भारतीय_बुद्धिजीवी

Bhagwaan Singh

by Bhagwan Singh
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क्या आपने कभी सोचा है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी किसी से कम संवेदनशील न होते हुए भी मुस्लिम समाज में व्याप्त विकृतियों के प्रति संवेदनशून्य क्यों हो जाता है ? यह दिखावा करने के लिए कि वह अपने समुदाय के प्रति भी आलोचनात्मक दृष्टि रखता है, किसी ऐसी कमी की ओर उँगली क्यों उठाता है जिसमें हिन्दू मुसलमानों से सवा पड़ते हैं, जैसे अजान से ध्वनि प्रदूषण, जब कि पड़ोस की अजान से भी मुझे कोई परेशानी न हुई, पर रतजगों के शोर से कान के पर्दे फटने को आ जाते हैं और उनके भोंड़ेपन पर लज्जा आती है। इशारा रतजगों की ओर होता है, या योजनाअमानवीय और आपराधिक प्रकृति की विकृतियों से ध्यान हटाने की होती है? इस बात की चिंता तक दिखाई नहीं देती कि आखिर इनसे हानि उसी के अपने परिजनों और समाज को होती है।
क्या आपने कभी सोचा है कि सामाजिक सुधार की चिंता से कातर होकर मुस्लिम बुद्धिजीवी भी हिंदू समाज में व्याप्त कमियों की ओर ही क्यों ध्यान दिलाता है ? वह अपने दुख दूर करने की जगह हिंदुओं के दुख दूर करने के लिए इतना आतुर क्यों होता है? अपने घर की गंदगी साफ करने की जगह झाड़ू लेकर हिंदू के घर क्यों पहुंच जाता है, जबकि वह जानता है कि वहां दैनिक कामों में पहला काम झाड़ू-पोछा लगाने का ही होता है। इसकी एक लंबी परंपरा है। आज भी झाड़ू लगाने वाले हिंदुओं की संख्या काफी बड़ी है ? झाड़ू भी वह ऐसे ही हिंदुओं के साथ मिलकर क्यों लगाता है जो अपने को हिंदू कहने में ग्लानि अनुभव करते हैं, पर झाड़ू लगाने के नियम का पालन जरूर करते हैं? झाड़ू भी इस तरह क्यों लगाया जाता है कि धूल अधिक उड़ती है और गंदगी कम होने की जगह या तो बढ़ जाती है या जम जाती है?
आपने क्या कभी यह सोचा कि हिंदुओं पर आई भारी से भारी विपत्ति पर भी अपने को सेकुलर कहने वाला हिंदू चुप क्यों लगा जाता है? उस त्रासदी का जनक यदि कोई मुस्लिम या मुस्लिम समुदाय है, तो वह इसकी ऐसी व्याख्या करने को आतुर क्यों हो जाता है कि भुक्तभोगी अथवा हिंदू समाज को ही अपराधी सिद्ध किया जा सके ? हिंदू की याददाश्त कमजोर है, ऊपर से उसे अतीतोन्मुखी होने का दोष लगाते हुए इतिहास विमुख बनाया जाता रहा है, इसलिए भारत का उच्चतम न्यायालय तक भारत विभाजन के बाद घटित सबसे जघन्य त्रासदी, कश्मीरी पंडितों की हत्या, अपमान और विस्थापन की घटना को इतनी पुरानी मान लेता है जिस पर विचार नहीं किया जा सकता , जबकि वह उनके लिए केवल इतिहास का हिस्सा नहीं है, वर्तमान का भोग भी है, विस्थापित व्यक्ति स्थापित होने तक अपमान झेलता रहता है।
क्या आप नहीं मानते कि हमारे सभी अंगों, तंत्रों, विभागों और संस्थानों में पहुंचे हुए लोग उसी शिक्षा प्रणाली से निकले हैं जिसमें हिंदूद्रोह को गौरवशाली मानसिकता की अनिवार्य शर्त मानते हुए पाठ्य पुस्तकें लिखवाई और शिक्षा दी जाती रही है।*
{nb. *ध्यान रहे कि यह पाकिस्तान में पाई जाने वाली पाठ्य पुस्तकों मैं हिंदुओं के प्रति उपलब्ध सामग्री से शैली में भिन्न होते हुए भी येअंतर्वस्तु के मामले में ठीक वैसी ही रही हैं । यह दूसरी बात है इनका लेखन अपने को हिंदू पैतृकता की उपज मानने वाले लड्डू गोपालों ने किया और लड्डू बांटने का काम उदारता पूर्वक हिंदुत्वघाती करते रहे हैं।}
विविध कारणों से इस देश में जघन्यतम हत्याएं बहुत बड़े पैमाने पर हो रही हैं। ये हत्याएं राजनीतिक से लेकर जघन्य प्रतिहिंसा तक की सभी श्रेणियों की होती है। जिस दिन अखबारों की सुर्खियां किसी अन्य विषय से आरंभ हों तो हम अपने को भाग्यशाली अनुभव करते हैं। परंतु जहां इस बात की क्षीणतम संभावना हो कि इसके लिए किसी हिन्दू या हिंदू संगठन को दोषी ठहराया जा सकता है, वहाँ बटन दबाने वाली तत्परता से चारों ओर से, पुलिस के संज्ञान लेने से पहले, अपराधी तय करके शोर मचाना आरंभ हो जाता है। प्रतिस्पर्धा ऐसी होती है मानो किसी से विलंब हो गया या कोई अवसर चूक गया तो उसके मार्क्सवादी या सेकुलर होने होने का प्रमाण पत्र वापस ले लिया जाएगा।
इन सभी की एक पहचान यह होती है कि ये अपने को मार्क्सवादी बताते हैं और दूसरी पहचान यह बताई जाती है कि वे समाज सुधार के कार्य में लगे हुए थे, इसलिए जिस समाज को सुधारना चाहते थे उसी समाज के लोगों ने उनकी हत्या की है।
इस देश में समाज सुधारों का एक लंबा इतिहास है। इसका एक कारण यह है कि कोई भी समुदाय अपनी कबीलाई कुरीतियों के बावजूद हिंदू समाज के खुलेपन के कारण इसमें सम्मिलित होता रहा है और उसके साथ आई विकृतियों को दूर करने के प्रयास समय-समय पर होते रहे हैं। उदाहरण के लिए जिस सती प्रथा के लिए हिंदू समाज को दोष दिया जाता है वह कल्हण के अनुसार मध्य एशियाई प्रथा है। बालिका वध मध्यकालीन मुस्लिम दरिंदगी का रक्षात्मक उपाय रहा है। तांत्रिक कुरीतियां आटविक जनों के माध्यम से और सुधारवादी सिद्धों के माध्यम से हिंदू समाज में आई हैं। यहां हमारा उद्देश्य इन कुरीतियों का न तो बचाव करना है, न इनके प्रचलन से इंकार करना। उद्देश्य केवल यह याद दिलाना है कि सुधार का क्रम विकृतियों के विस्तार के समानांतर चलता रहा है।
इसमें अकेले अपने दम पर कठोरतम आलोचना करने वाले लोग भी रहे हैं परंतु कभी भी किसी की हत्या की नौबत नहीं आई। मार्क्सवाद ने मूर्तियों पर पेशाब करते हुए इस पर गर्व करने, अपने मत के आदि पुरुष का बहन से सहवास करने, अकेले अपने दम पर पुलिस का काम संभालते हुए मूर्ति विसर्जन को रोकने का प्रयत्न करने, जिस आहार और व्यवहार को सामी मतों के जन्म से पहते से वर्जित माना गया हो उनके भक्षण का शोर मचाने, समादृत पुराण पुरुषोंं के चरित्र को हिंदू मन को आहत करने वाले तरीके से पेश करने वाले प्रसंगों को पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा बनाने का समाज सुधार मार्क्सवाद के कार्यक्रमों में कब से आ गया ? जिस समाज में उसे अपनी गहरी बैठ बनानी है उसे विमुख करते हुए स्वयं को कूड़ेदान में फेंकने की व्यवस्था करने के बाद दर दर की ठोकरें खाने की बात तक समझ न आ पाए, वह समझ न पाए कि उसका हाल ऐसा क्यों हो गया है, ये ऐसी रहस्यमय बातें हैं जिन्हें उनकी दिमागी हालत को देखते हुए मैं नहीं समझ पाता।
यदि ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाएगा कि इनके पीछे सुधार का लक्ष्य नहीं है अपितु हिंदू समुदाय को अपमानित और उत्तेजित करने और भड़क कर कुछ ऐसा कर बैठने का उकसावा है जिसके बाद यह कहा जा सके कि हिंदू समाज भी मुसलमानों से कम उपद्रवी नहीं है और इस तरह उनके विधातक तत्वों के लांछन को कम किया जा सके। आरोप लगाने और शोर मचाने के पीछे भी संदेश यही होता है हिंदू समाज नितांत असहिष्णु और उपद्रवी है और इसके रहते देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती।
यह एक तरह का छद्म आक्रमण है। आक्रमणकारी कौन है यह पता लगाना कठिन है । मार्क्सवाद तो नहीं हो सकता, परंतु यह मार्क्सवाद की कीमत पर, उसे बलि देते हुए, ऐसा किया जाता रहा है और आत्महंता अपने को मार्क्सवादी भी कहते हैं। यदि उनकी नीयत पर मुझे शक नहीं है तो उनकी समझ पर विश्वास हो ही नहीं सकता, फिर भी वे चाहते हैं लोग उनसे सीख लें।
उसमें यह सोचने की क्षमता तक का अभाव है कि यदि वह हिंदू समाज को सुधारने के लिए ऐसा कर रहा था तो समाज में सुधार की जगह अधिक कट्टरता क्यों पैदा हुई, जिसकी प्रतिक्रिया का शिकार उसे बनना पड़ा, यदि सचमुच बनना पड़ा तो ? वे इस पर विचार क्यों नहीं कर पाते यदि कोई आपराधिक काम हुआ है तो उसे संभालने का काम आपका नहीं है और यदि आपका काम है तो आप इसे निष्पक्षता पूर्वक क्यों नहीं कर पाते हैं ?
अपराध की राजनीति में एक सिरे से सहयोगी बनने के बाद क्या आप अपराध की राजनीति का विस्तार नहीं करते हैं ?
ये ऐसे सवाल हैं जिन को उठाया जाना, जिन पर बात करना भारतीय समाज के लिए जरूरी था। ऐसा करने के लिए क्या किसी दूसरे उपग्रह से कोई भी आएगा और आपको वस्तुस्थिति से अवगत कराएगा? मेरी समझ में इन प्रश्नों का जो उत्तर आता है उसे मैं कल शेयर करना चाहूंगा। मैं जानता हूं ऐसे लोग

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