Home विषयमुद्दा तुलसीदास-आदमखोर कबीलों के हिमायतियों का अरण्यरोदन

तुलसीदास-आदमखोर कबीलों के हिमायतियों का अरण्यरोदन

देवेन्द्र सिकरवार

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आप जिनके हिमायती हैं उनके बने रहें! आप चारासाजों और नलकुबेरों के सत्ताधीश होने की यानी आपके मनचीते सामाजिक परिवर्तन की बाट देख रहे हैं! ज़रूर देखें। लेकिन राक्षसविरोधी चरितनायक का आख्यान रचने वाले कवि तुलसीदास को अनेक तरह से जाँचें परखें। उनकी चौतरफ़ा आलोचना करें। उन्हें रंदे से रगड़ें और बँसूले से छीलें। उन्हें माँजें चमकाएँ और अपना चेहरा निहारें। उससे आप अपना संवेदनशील पक्ष तय करते नज़र आएँगे जैसा कि हम भी नज़र आएँगे। हम भी आएँगे तो क्या हर्ज! यदि आप पढ़े लिखे हैं तो समालोचना करें। लेकिन, भाई साहब आप ज़रा उन्हें पढ़ें भी। हमेशा यही न हो कि पढे कोई दूसरा और आप उसकी एक आँख छीनकर ले भगें! तुलसी इस बात से बिदक नहीं जाएँगे कि आप रामचरितमानस की पंक्तियों की कितनी आधारहीन व्याख्या करते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि आप कुपढ़ हैं । इसलिए दया के पात्र हैं। वो तो आपको सीताराम का स्वरूप समझकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम ही करेंगे। अगर आप चाहते हैं तो तुलसी आपकी वंदना को भी मानस में ही तैयार दिखते हैं। वो क्या जानते थे कि आप के ऊपर बन्दना भी बेअसर है।

यों तो आप उनके वृहद् चिंतन की धूल भर भी नहीं हैं लेकिन आप उनके ऊपर फ़तवा देने चल देते हैं। देश में चारों ओर मूर्खता की एक नस्ली फ़ौज ही दिखायी देती है जिसे दिनरात भौंकने का चस्का लगा हुआ है। वह एक विचित्र भीड़ है जिसके न कान हैं न आँख । वह मूढ़ विचारों की गुलाम पट्टी है! वह अपने चिढ़े हुए मुँह से कबीर का नाम लेती है लेकिन वह असल में कबीर को भी नहीं जानती। तुलसी यह सब देख-सुनकर नाराज़ नहीं होते । न मुँह बिचकाते हैं। वह केवल मुस्कुरा भर देते हैं। एक ऐसे जीवन साधक ने जिसने जनम भर केवल दुख ही दुख सहा है, वह कलिकाल के दुखों से मँजकर धवल हो चुका है। उस पर फेंकी गयी गंदगी उलटे आपके ही चेहरे को मैला कर रही है जिसे आप नहीं देख पा रहे हैं। उस तुलसी को न किसी के बेटे से अपनी बेटी का ब्याह करना है न किसी की जात बिगाड़नी है। कोई उसे धूत कहता है कोई पाखंडी कोई जुलाहा कोई राजपूत। लेकिन वह तो अपने राम का सरनाम गुलाम है। अगर राम की अदालत में वह खड़ा होकर अपने जीवन का लेखा-जोखा माँग रहा है तो उसका अंतिम न्याय भी राम को ही करना है।

उसने वहाँ पर अपनी पेटिशन फ़ाइल की है जिसमें आप नाहक इंटरवेंशन की कोशिश कर रहे हैं! विनय की पत्रिका में तुलसी ने सभी आरोप अपने ऊपर ओढ़ लिये हैं जिसे आप कन्फेस भी नहीं कर सकते क्योंकि आप तो पहले से ही बेदाग़, सच्चरित्र और निष्कलंक हैं! तुलसी ने बक़ौल आपके भारतीय समाज को विकसित नहीं होने दिया उसे वैज्ञानिक नहीं होने दिया। आप को ख़याल तक नहीं है कि आप उसी भाषा में आरोप लगाते हैं जो तुलसी की ही बनायी हुई है। जिसने भाषा को आख्यान में रचकर आत्म का विश्वास दिया और लाखों लोगों को जीने की शक्ति दी वह आपके हिसाब से समाज की प्रतिगामिता को बढ़ाने वाला था। तुलसीदास सबको लेकर धर्मांतरित हो जाते तो मध्यकालीन दीक्षाभूमि की परिक्रमा कर आपके सीने को ठंडक मिलती। लेकिन वह तो माँग कर खाते हैं और मस्जिद में सोते हैं! कोई कनेक्शन उस मस्जिद से भी उनका ज़रूर रहा होगा! आप बताएँ कि क्या रहा होगा!

तुलसीदास आपके कठमुल्ले कटघरे में नहीं खडे़ हैं न कोई आपसे न्याय की अपेक्षा करते हैं। आप उनके हज़ार ऊपर लानतें भेज सकते हैं क्योंकि न आप को मध्यकालीन कविता की समझ है न इतिहास की। न आप तत्कालीन समाज की परम्पराओं को जानते हैं न उसकी आंतरिक संरचनाओं को । कबीर वग़ैरा से तुलना भी मत कीजिए। कबीर आदि निर्गुनियां संतों का रोल उन्नीसवीं सदी के थियोसोफिस्टों की तरह था जो जनता को रहस्यवाद की झीनी चदरिया ओढ़ा रहे थे! इतिहास को देख लीजिए । व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित जीवन विवेक हमेशा बृहत्तर समाज के सामूहिक विवेक से हारता रहा है। कबीर वग़ैरह निर्गुनियाँ संतों की साधना बंद समाज की संरचनाओं के उपोत्पाद (बाइप्रोडक्ट) की तरह हैं। हज़ारी प्रसाद जी ने सही कहा है कि कबीर की समाज सुधार वग़ैरह की बातें घलुवे में मिली हुई चीजें हैं। दो के साथ एक फ़्री वाली मुद्रा में । लेकिन, धर्म को सामाजिक विवेक और सकर्मक प्रेरणा से जोड़कर एक अनुशासित समाज बनाने का स्वप्न तुलसी देख रहे थे। नानक ने वही काम किया था जो कबीर कर रहे थे लेकिन सामाजिक विवेक की प्रतिष्ठा के लिए गुरु गोविंद सिंह जी को खालसा पंथ बनाना पड़ा और चंडीचरित लिखना पड़ा। केवल साधुता से आप निशिचरों का सामना नहीं कर सकते।

यदि आप का आरोप हो कि तुलसी अपने रामराज्य को चलाने के लिए केवल प्रशासक, धर्माधिकारी आदि पदों का विज्ञापन क्यों कर रहे थे ? वह साथ ही साथ कार्यालय सहायक और लिपिक की भर्तियों के लिए रोस्टर क्यों लागू कर रहे थे! यह कैसा भेदभाव? वह चतुर्थ श्रेणी का नाम ही क्यों ले रहे थे! तुलसी असमानता के हिमायती हैं। वह सबको “ताड़” क्यों रहे हैं? आपको यह भी दुख सता सकता है कि तुलसी जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के यहाँ दसहजारी मनसबदार क्यों न हो गए! जब अकबर लाउडस्पीकर लिए “नील डाऊन” का हाँका लगा रहे थे तब वह क्यों न अपना धर्म और ईमान बेचकर तत्कालीन गुंडों और मवालियों के आगे सरेंडर हो गए। आपको इसका गहरा दुख है । वाजिब तकलीफ़ें तो हैं ही कि क्यों न फतहपुर के विष्णुस्तंभ पर आसीन पौंड्रक को अपना अवतार समझ सके, वह ठकुरसुहाती गाने वाले सेहरा लिखने वाले शायर क्यों न हो गए!

वह काने अबुल फ़ज़ल बन जाते तो भी शायद आपको बहुत अच्छा लगता । तब वह समाज को आगे ले जाने वाले क्रांतिकारी लंबरदार होते! आज आप उनके गीत गा रहे होते! लेकिन तुलसी यह सब न हो सके, उन्हें किसी “नर” का मनसबदार होना गवारा न हुआ! आप तो भौंकने के लिए फेंके गए टुकड़ों पर पलते हैं और उसे अपनी जेब में अधिकार की तरह लिए चलना चाहते हैं! दुख तो यह है कि आपको मनसबदारी भी मयस्सर नहीं! आप उस निज़ाम की तलाश में हैं जो आपको गिरहकटी से सीधे उठाकर मनसबदारी ख़ैरात में दे दे! लेकिन वो दिन लद गए!

अब आप क्या करें! और आपका दोष भी क्या! आपको यही सिखाया गया है! आप मैदानी भूभाग में तद्भव की गलियों में आवारा विचर रहे हैं, कश्यपमेरु में होते तो तत्सम में प्रस्तरास्त्र चलाते! यहाँ आपकी दाल नहीं गल रही तो लगे हाथ तुलसी की पंक्तियाँ चींथ रहे हैं! तुलसी तथाकथित राजनीतिक विचारक या मैकियावली नहीं हैं और न ही आपके राजनीतिक हथकंडे उनको आते हैं । उनके पास जीवन की आँख है इसलिए वह कोनों अँतरों में सीधे झांक कर साफ़ साफ़ देख लेते हैं। वह भारतीय समाज के यथार्थ का सामना अपने आदर्शों से करना चाहते हैं । उनके दारुण समय की कल्पना आप कभी नहीं कर सकते क्योंकि जिन इतिहास ग्रंथों को पढ़कर आपकी बुद्धि विभ्रमित हो गयी है उनमें जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर को बहुत महान बताया गया है। वह महानों की गिनीज़ बुक वाली परम्परा है जिसमें सिकंदर और नेपोलियन को भी महान बताया जाता है। तुलसी की कवितावली को पढ़िए तब आप समझ सकेंगे कि उस समय आम भारतीय समाज किन हालातों से गुजर रहा था। वह आपके “द ग्रेट” के राज्यकाल का ऐसा समय था जब किसान के पास खेती नहीं थी, बनिक के पास ब्यापार नहीं था, लोग “जीविकाविहीन” हो चुके थे, पेट की आग को बुझाने के लिए लोग अपने बेटे-बेटियों को बेच रहे थे! तरह तरह के करतब करते हुए लोग सोचते रहते थे कि कहाँ जायें और क्या करें! ऐसे दुर्दिन के समय में मनसबदारों, उमरावों की बन आयी थी।

 

बड़े बड़े राजा कहारों से अपनी कन्याओं की डोलियाँ भिजवा रहे थे। भारत में वह मांसल आखेट का काल था। लोग चुप्पी मार गए थे। कोई बोल नहीं रहा था। केवल भक्ति का एक मार्ग खुला था जिसमें हताश भारतीय सनातनता किसी तरह साँस ले रही थी। वर्ण व्यवस्था का एक पुराना टुटहा फ़्रेम बचा था जो कंकाल हो रहा था लेकिन तार तार होकर भी जीवन को सँभाले हुआ था। सल्तनत क़ालीन भारत में बाहर से आयी हुई एक म्लेच्छ सेना थी जिसके पास आखेट का वैभव था और पैशाची उन्माद था। दूसरी ओर आहत जीवनबोध और पराजित विवेक से विन्यस्त बंद अर्थव्यवस्था और सामाजिक श्रेणीकरण था। इस दूसरे के पास अपने लड़खड़ाते समाज और समुदाय को बचाए चलने की चुनौती थी। आप इसे कब समझेंगे? आप ब्रिटिश भारत के दोषों को मध्यकाल तक खींच ले जाकर विक्टिम कार्ड कब तक खेलेंगे? बेहतर हो कि आप धर्मपाल को पढ़ें तब समझ सकेंगे कि भारत का जैसा चित्रण अंग्रेज इतिहासकारों ने किया है भारत वैसा नहीं था।

 

धर्मपाल ने वर्षों तक छानबीन कर जो आँकड़े प्रस्तुत किये हैं उन्हें ही एक बार पढ़ लीजिए। दक्षिण भारत के आँकड़ों के आधार पर उसने कहा है कि ईस्ट इंडिया के समय लगभग हर गाँव में पाठशालाएँ और गृहशिक्षा थी। हर पाठशाला में केवल सवर्ण जातियों के ही नहीं बल्कि अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग के शिक्षक होते थे।समाज में इनका बहुत सम्मान था। अवर्ण सवर्ण के कंट्राडिक्शन को जिस तरह से ब्रिटिश राज्य में कुप्रचारित किया गया उसी नैरेटिव के शिकार होकर हम अपने मध्यकालीन इतिहास को देख रहे हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था ने कुल मिलाकर यही काम किया है। इस विषय पर बाबा साहेब को भी पढ़ लेना श्रेयस्कर होगा। भारत में अनेक समस्याएँ रही हैं। कौन सा समाज ऐसा रहा है जहां पर सामाजिक संरचनाओं की जटिलता से विवाद नहीं उपजे हैं और कौन सा समाज है जिसने इन समस्याओं के भीतर से अपना रास्ता नहीं निकाला है। वर्तमान भारत यही काम कर रहा है लेकिन आपकी मंशा लांछन लगाने की है। आप नहीं चाहते हैं कि समाज में सब एक साथ चल सकें। आप एकबारगी सब कुछ नीचे गिराकर लतियाना चाहते हैं ताकि सामाजिक क्रांति आपके हिसाब से तय हो सके। लेकिन ऐसा नहीं होने वाला।

 

तुलसीदास को तत्कालीन समय की भयावह विपदा ज्ञात है जिसे आपके पूर्वज नहीं झेल सके। यह मोटी बात आपकी समझ में नहीं आती। वह वर्णाश्रम के हिमायती हैं लेकिन उसे अपने रामराज्य की संकल्पना के हिसाब से चलाने को इच्छुक हैं! उसमें सीता का निर्वासन और शंबूक का वध नहीं हुआ है- यह स्त्री और दलित के प्रति उनका दृष्टिकोण है। यह उनका जीवनबोध भी है जिसे उन्होंने रामचरितमानस में अभिव्यक्त किया है। उनके द्वारा संकल्पित रामराज्य के संविधान के एक्ट, स्टैच्यूट और ऑर्डिनेंस में यह कहीं भी नहीं हैं जो आप उनके मुँह में ठूँसें दे रहे हैं लेकिन पेनलकोड में यह भावना ज़रूर है कि सभी दुष्टों को दंडित किया जाय। आप का वांछित संविधान तो हमें भी ज्ञात है। आप तो रावणों के पक्षधर हैं, आपके राजा महिषासुर हैं और दुर्गा तो आपके जहाँपनाह शुंभ निशुंभ की क्रीत दासी है। आप खरदूषण के प्रति सहानुभूति से भरे हुए हैं और उसे जनता का स्वर्णिम राज बताना चाहते हैं! जिसने बुद्धिजीवियों के दुर्दांत “मॉस मर्डर” को देखकर भुजा उठाकर प्रण किया था कि “पृथ्वी को राक्षसों से ही रहित कर दूँगा” वो तुलसी के आराध्य हैं। जनस्थान में तपोनिष्ठ महात्माओं पर कैनिबलिस्टिक कबीलों की क्रूरताओं का आप महिमामंडन करना चाहते हैं! यह आपका चयन है।

जो चरितनायक समाज के “हीनियस क्राइम” की जड़ों को समूल नाश करने को उद्यत था उसके चरित्र का गायन करने के लिए तुलसी ने बुढ़ौती में लेखनी चलाई! वरना कहाँ बहत्तर साल की उम्र और कहाँ जमाने की क्षुद्रताओं से पंजे लड़ाने का विराट संकल्प। उस समय तो उन्हें अपने लिखे के बल पर मैग्सेसे के लिए पीआरशिप करनी थी या बुकर पाने के लिए कोई रास्ता ढूँढना था। लेकिन वो दलाली या पीतपत्रकारिता करने नहीं निकले थे जो पेड न्यूज़ के बल पर रसरंजन करते हैं! आप सबको बिकते हुए देख सकते हैं। तुलसी को नहीं! उन्हें तो जीवन की मर्यादा को अंतिम धक्का देकर एक बार फिर से रचना था। उन्हें ज़ोर लगाकर एक बार फिर से टूटते-गिरते “पुराने संचालनालय”को बचाना था।

 

लेकिन बेचारे तुलसी अपने बल पर अकेले कितना बचा पाते!
शुक्र मनाइए कि आप बच गए हैं!

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