राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंध में जो जितना कम जानता है, एक अध्ययन में पाया गया है कि वह उसके संबंध में उतना ही अधिक लिखता और बोलता है। सरल शब्दों में इस बात को कुछ यूं समझा जा सकता है कि आरएसएस पर निरंतर लिखने वाले एक दर्जन लोगों के नामों की सूचि बनाइए और फिर उससे शाखा में आने जाने के संबंध चर्चा कीजिए।
जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मीडिया से बातचीत का दायित्व दिया है। वह मीडिया में सबसे कम दिखाई देते हैं।
संघ बदल रहा है। उसकी गति से कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए शाखा जाना होगा। शाखा गए बिना आप आज के संघ को नहीं जान सकते। यहां तो ऐसे खिलाड़ी भी खूब मिलते हैं, जिन्होंने तीस—चालीस साल पहले दो चार दिन शाखा दर्शन किए और उस अनुभव के आधार पर 2023 में संघ की वैश्विक समझ पर पॉडकास्ट, टीवी, यू ट्यूब, लिटरेचर फेस्टिवल का हिस्सा हैं।
इस्लाम की भी स्थिति कुछ इसी तरह की दिखाई देती है। मोहम्मद का जिस जमीन पर जन्म हुआ। उस जमीन से जो जितना दूर है। वह उतना बड़ा खुद को मोहम्मद साहब का सेवक साबित करने पर तुला हुआ है। दुख तो तब होता है, जो शाम को शराबनोशी करने वाला सुबह किसी चैनल या सोशल मीडिया पर बैठ कर इस्लाम समझा रहा होता है।
मिलाद उन नबी दक्षिण एशिया के देशों में ही मनाया जाता है। जहां उनका जन्म हुआ, वहां इसका चलन नहीं। जहां उनकी मृत्यु हुई। वहां उनकी कब्र नहीं। मोहम्मद साहब का इस्लाम में दर्जा बहुत बड़ा है लेकिन वह खुदा नहीं हैं। भारत के परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो एक बार को कोई इस्लाम का नया—नया जानकार खुदा के संबंध में दो शब्द सुनने को तैयार भी हो जाए लेकिन वह मोहम्मद साहब के संबंध में एक शब्द सुनने को तैयार नहीं है।
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इस्लाम के अधूरे जानकारों के अंदर इतनी असहिष्णुता आती कहां से है? क्या उनकी अज्ञानता से?